कोरोना कोई प्रलय नहीं, महामारी आई है तो जाएगी भी

ये कोई नई बात नहीं,चौदहवीं सदी की कहानी है। प्लेग के कारण एक शहर से थोड़े से लोग कहीं दूर शरण लेते हैं। वे रोज प्रेम और त्रासदी की कहानियां सुनाते हैं, चुटकुले कहते हैं, गाते हैं, लेकिन प्लेग के बारे में कोई बात नहीं करते। यही असहाय इंसान का अंतिम विजडम है।

फोटोः सोशल मीडिया
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गुंजन सिन्हा

सोलहवीं सदी में टॉमस मूर ने ऐसी दुनिया की कल्पना की, जिसमें सब कुछ बढ़िया होगा और सब लोग आजाद होंगे। उन्होंने नाम दिया- ‘यूटोपिया’। बाद में लोगों को आशंका होने लगी कि हम कहीं उलटी दिशा में तो नहीं जा रहे? आशंकाओं पर भी उपन्यास लिखे गए। इनमें जार्ज ऑरवेल का उपन्यास ‘1984’ और आल्डस हक्सले के ‘ब्रेव न्यू वर्ल्ड’ में डरावनी कल्पनाएं और एकाधिकारवादी सरकारें थीं। यही डिस्टॉपिया है। इसकी विधा है, भविष्य के अंदेशे हैं।

अस्तित्व का सवाल

विश्व युद्धों ने पारंपरिक आदर्शवाद की जड़ें हिला दी थीं। तय हुआ कि अस्तित्व बचाने के लिए हिंसा अनिवार्य है। लेकिन अस्तित्व बचाना एक बात है, उसका कोई माने होना दूसरी बात। इसकी समीक्षा में कई उपन्यास लिखे गए, जिनमें प्रमुख है- अलबर्ट कामू का ‘द प्लेग’ (1947)। इसकी पृष्ठभूमि अल्जीरिया के ओरान शहर की है। प्लेग के कारण उसे क्वैरेंटाइन कर दिया गया। कोरोना वायरस के विस्फोट के बाद इसे नए संदर्भ में पढ़ा जा रहा है। बिक्री तीन गुना हो गई है। ‘द प्लेग’ में फ्रांस पर नाजी कब्जे के बिंब भी हैं, तो मृत्यु से टकराने वाली जिजीविषा भी। आज भी हिटलरी प्रवृत्तियां हैं और कोरोना ने प्लेग सी ही स्थिति रची है।

ऐसी पुस्तकें डिस्टॉपिया को नापती हैं। नव-पूंजीवाद ने उन्हें किनारे रखा था। चुनिंदा लोग ही पढ़ते थे। अब कोरोना की महामारी ने उन्हें मांग में ला दिया है। भारी छलांग के उदाहरण हैं। किसी महामारी की कल्पना पर 2011 में बनी स्टेवेन सदरबर्ग की फिल्म ‘कांटाजियन’ (वार्नर ब्रदर्स) कोरोना विस्फोट के बाद 270वें स्थान से दूसरे पर आ गई है। चालीस साल पहले छपी डीन कुन्द्ज के उपन्यास ‘आइज ऑफ डार्कनेस’ की बिक्री तीन हफ्ते में तीन हजार गुना बढ़ गई। इसमें कोरोना जैसे वायरस वुहान-400 का जिक्र है। अभी के कोरोना और चालीस साल पुरानी वुहान-400 की कल्पना में आश्चर्यजनक समानता है।

लोग ऐसी रचनाएं क्यों पढ़ते हैं?

डरावने भविष्य के वर्णन से मिलता क्या है? इस सवाल का जवाब कामू ने ‘द प्लेग’ में ही दे दिया है- “सारी तकलीफों का एक लक्ष्य है। वे आदमी को ऊपर उठाती हैं।” ‘द स्टैंड’ (1978, स्टीफेन किंग) भविष्य का दुःस्वप्न है। कैप्टेन ट्रिप्स नामक सुपर फ्लू से पूरी आबादी लगभग खत्म हो जाती है। डेनियल डिफो की ‘अ जर्नल ऑफ प्लेग ईयर’ (1772) ब्रिटेन में 1666 के भयानक प्लेग पर है। डिफो ने ऐसे परिवारों की स्थिति बयान की जिन्हें क्वैरेंटाइन कर दिया जाता था। बंद घरों से रोने की आवाजें ही बता पाती थीं कि अंदर कोई मर गया।

हालांकि, क्वैरेंटाइन अब उतना तकलीफदेह नहीं है। फोन, स्वास्थ्य-सेवा और मानव-अधिकार बेहतर हैं। लेकिन खबर वायरल थी कि इटली में एक युवक दो दिनों से बहन के शव के साथ घर में बंद है। कोई मददगार नहीं। ऐसी कहानियां पता नहीं, अब भी कितनी हैं। निराशा के बीच चुनौती भी है और प्यार भी। ‘पेल हॉर्स, पेल राइडर’ (1939, कैथेरिन पोर्टर) में प्रथम विश्वयुद्ध और फ्लू की छाया में नायिका एक सैनिक से प्यार करती है। उस प्यार की प्रतिध्वनि अब भी है।


लेकिन गैब्रियल गार्सिया मारक्वेज के उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा’ (1985) में महामारी किस्मत के प्रहार की तरह भौंचक कर देती है। बीसवीं सदी के अंत में एचआईवी मानव जाति पर ऐसा ही प्रहार था। तब सेक्स और मौत को जुड़ा माना जाने लगा था। पीड़ितों के प्रति रवैये की आलोचना नार्मन स्पिनराड की ‘जर्नल्स ऑफ द प्लेग ईयर्स’ जैसे उपन्यासों से शुरू हुई। बाद में महामारियों पर कई कल्पनाएं हुईं। ‘द चाइल्ड गार्डन’ (जेओफ रैमन, 1989) में कैंसर खत्म हो चुका है, लेकिन आदमी अल्पजीवी है। उसे पढ़ाने के लिए भी वायरस है। रैमन का कहना था कि कहानियां बीमार करती हैं। जैसे ‘न्युरोसिस’ ऐसी कहानी है, जिस पर हम यकीन करते हैं।

सवाल है, फिर ऐसी परिकल्पनाएं क्यों की जाती हैं? कई कारण हैं। कैथार्सिस एक है। आदमी कहीं और, किसी सिनेमा हॉल में या किसी किताब में अपने डर से टकरा लेना चाहता है। हम अपने अस्तित्व की समीक्षा गैर-इंसानी पैमानों पर चाहते हैं। काल्पनिक उपन्यास ये कठिन प्रयास करते हैं। वे हमें कल्पनाओं, सपनों- दुःस्वप्नों के पैराडॉक्स में देखते हैं। ‘हैमलेट’, ‘एलिस इन वंडरलैंड’, ‘गुलिवर इन द लैंड ऑफ जैन्ट्स’ या ‘इन द लैंड ऑफ लिलिपुट्स’ की तरह। भविष्य में निरूपित उपन्यास वर्तमान को देखता है, बेलगाम फैंटेसी नहीं होती।

निकोला ग्रिफिथ की ‘अमोनाइट’ (1992) किसी अन्य ग्रह पर पृथ्वी के समाज और लैंगिक विभेद पर बहस करती है, लेकिन यह पृथ्वी के नारीवाद का ही बयान है। अत्यंतिक नारीवाद की एक फैंटेसी पुरुष-विहीन समाज है। सिर्फ औरतों के ऐसे एक बसेरे की कल्पना टोनी मॉरिसन ने ‘पैराडाइज’ में की थी। पुरुष उसे गुस्से से जला देते हैं। मारिओ बेलातीं का ‘ब्यूटी सैलन’ (1994) इससे आगे जाता है। एक खास महामारी में सब पुरुष मर जाते हैं। ‘पैराडाइज’ के विपरीत, ‘ब्यूटी सैलन’ जीवन के बदले मौत के करीब है।

महामारियों की कल्पना में नोबेल विजेता जोस सेरामागो का उपन्यास ‘ब्लाइंडनेस’ अनोखा है। उनके भविष्य के वाइरस से लोग मरते नहीं, अंधे हो जाते हैं। यह अंधापन वर्तमान को प्रतिबिंबित करता है, जहां सरकार निरंकुश है। औपन्यासिक कल्पनाओं में कुछ महामारियां प्रकृति ने फैलाईं, कुछ इंसानी साजिशों ने, कुछ अंतरिक्ष से हमलों ने। मिशेल क्रिकटन के ‘द एंड्रोमेडा स्ट्रेन’ (1969) में वैज्ञानिक अंतरिक्ष के एक माइक्रो जीव की लाई महामारी से लड़ते हैं।

कुछ कल्पनाएं अतीत में जाकर विश्व का भविष्य रचती हैं। किम स्टैनले राबिन्सन के ‘द ईयर्स ऑफ राइस एंड साल्ट’ में चौदहवीं सदी का प्लेग यूरोप को निर्जन कर देता है। सदियों बाद नया शक्ति- संतुलन जन्मता है। ‘ओरिक्स एंड क्रेक’ (2003) में मार्गरेट ऐट्वुड ऐसी दुनिया सोचती हैं, जिसे जेनेटिक इंजीनियरिंग ने बर्बाद कर दिया। क्रिस एड्रियन ‘चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल’ (2006) में नई महामारी के बीच इस सवाल से जूझते हैं कि आदमी मरता क्यों है और जीने का अर्थ क्या?

लॉरा वैन डैनबर्ग के ‘फाइंड मी’ (2015) का वायरस स्मृति मिटा देता है। लिग मा की ‘सेवरेन्स’ (2018) भी महामारी के बीच अतीत और उसके बोझ के बारे में है। ‘द बुक ऑफ एम’ (पेंग शेफर्ड) में लोग ऐसी महामारी से ग्रस्त हैं, जिसमें पीड़ित अपनी छाया नहीं देख पाता और याददाश्त खो देता है।


इन तमाम कहानियों में अच्छी बात यह है कि मानव जाति को कोई भी वायरस, अंतरिक्ष का शत्रु या कोई विज्ञान/वैज्ञानिक अंतिम रूप से बर्बाद नहीं कर देता। कुछ न कुछ लोग बच जाते हैं। भले लाखों मारे जाएं। जो बचे, उनके साथ बच जाती है उम्मीद। हमारे लिए यह राहत है। काल्पनिक कहानियां हमें वर्तमान समस्याओं से लड़ने में मदद करती हैं। हम जान जाते हैं कि कोरोना भी कोई प्रलय की घंटी नहीं है। आई है, तो जाएगी भी।

इन कहानियों/संकटों ने हमारी पूरी असहायता के बीच हमें अपने भय से गुजर जाना, टिके रहना सिखाया है। कोई नया वाइरस आता है, तो व्यवस्था धम्म से ध्वस्त हो जाती है, लेकिन हम फिर खड़े होते हैं। कोई नई बात नहीं, चौदहवीं सदी की कहानी है। प्लेग के कारण एक शहर से थोड़े से लोग कहीं दूर शरण लेते हैं। वे रोज प्रेम और त्रासदी की कहानियां सुनाते हैं, चुटकुले कहते हैं, गाते हैं, लेकिन प्लेग के बारे में कोई बात नहीं करते। यही असहाय इंसान का अंतिम विजडम है।

हिंदी का हाल

अंग्रेजी भाषा में महामारियों और भविष्य की कल्पनाओं पर कई किताबें हैं। हिंदी-उर्दू में गिनी चुनी हैं। मंटो और प्रेमचंद जैसे कुछेक को छोड़कर अधिकांश लेखक टकराव नहीं चाहते। प्रेम सदाबहार विषय है, कठोर सवालों से बचने का रास्ता दे देता है। मदन मोहन के उपन्यास ‘जहां एक जंगल था’ जैसे उंगली पर गिनने लायक किन्ही किताबों में बिहार/झारखंड की सालाना महामारी एन्सेफ्लाइटिस की चर्चा है। कालाजार से उत्तर बिहार के कई गांव मरघट हो गए, लेकिन उन पर कोई उपन्यास नहीं है। ये मुद्दे साहित्य के विषय नहीं, शायद इसलिए कि आम लोगों ने उनके साथ जीना सीख लिया है, और खास लोगों के लिए उन बीमारियों से मरने वाले लोग बस हैं ही नहीं। वैसे भी भारतीय दर्शन में त्रासदी/दुखांत कुछ होता नहीं। सब सुखांत। सब प्रारब्ध, या ईश्वर-इच्छा। डिस्टोपिया के लिए हिंदी में कोई शब्द ही नहीं है।

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