मीडिया पर कॉरपोरेट के कब्जे से खबरें बनीं कमाई का जरिया, हमलों के साये में ग्रामीण पत्रकारिता की चुनौतियां

पिछले पांच साल में राष्ट्रीय अखबारों के पहले पेज पर ग्रामीण खबरों की जगह का औसत 0.67 प्रतिशत है, जबकि 2011 की जनगणना में ग्रामीण आबादी 69 प्रतिशत है। अगर जनसंख्या के 69 फीसदी को अखबार के पहले पेज पर 0.67 प्रतिशत जगह दी जाती है तो बाकी पेज पर क्या जाता है?

फोटोः सोशल मीडिया
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पी साईनाथ

हिंदुस्तान के राष्ट्रीय अखबारों में ग्रामीण खबरें कितनी छपती हैं? दिल्ली में एन भास्कर राव की एक संस्था है- ‘सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज’ (सीएमएस) जो तीस साल से मीडिया पर शोध कर रही है। इसके मुताबिक पिछले पांच वर्षों में राष्ट्रीय दैनिकों के पहले पन्ने पर ग्रामीण खबरों की जगह का औसत 0.67 प्रतिशत है, जबकि 2011 की जनगणना में ग्रामीण आबादी 69 प्रतिशत है। अगर जनसंख्या के 69 फीसदी को अखबार के पहले पेज पर 0.67 प्रतिशत जगह दी जाती है, तो बाकी पेज पर क्या जाता है?

आपको बता दें कि प्रथम पृष्ठ का 67 फीसदी हिस्सा नई दिल्ली को जाता है। क्या यह 0.67 फीसदी का आंकड़ा आपको विचित्र नहीं लगता? इस गणना के पांच सालों में एक साल चुनाव का भी है और यदि इसे निकाल दें, तो आंकड़ा कुल 0.20 फीसदी हो जाता है। अभी कई पत्रकार हैं, जिन्होंने पिछले 20 सालों में तीन दर्जन किताबें ‘मार्केट इकोनॉमी’ के बारे में लिखी हैं, लेकिन ग्रामीण भारत पर मैं केवल एक का नाम ले सकता हूं, जयदीप हार्डिकर की ‘चेज्ड बाइ डेपलवमेंट’।

ग्रामीण पत्रकारों की कलम की आजादी पर देखें तो पिछले दिनों तीन-चार रिपोर्टें आई हैं। ‘कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ (सीपीजे) की एक रिपोर्ट निकली है जिसकी प्रस्तावना मैंने लिखी है। अलग-अलग खांचे में फिट पत्रकार, स्ट्रिंगर आदि में एक समानता है, 2013-14 तक जितने भी पत्रकार मरे या मारे गए हैं, उनमें सौ फीसदी कस्बाई और ग्रामीण पत्रकार हैं। बड़े शहरों के एलीट पत्रकारों में से एक भी नहीं। साल 2013 तक सौ फीसदी हमले ग्रामीण और हिंदुस्तानी भाषाओं के पत्रकारों पर हुए।

बड़े जानलेवा हमले जिन पत्रकारों पर हुए उनमें एक भी अंग्रेजी का नहीं है। बीते 15 साल में कुल 27 मौतें हुई हैं। सीपीजे की रिपोर्ट का परिचय लिखने के दौरान मैंने एक-एक सूची देखी। पत्रकारों पर ये हमले क्यों बढ़ गए? देश में कॉरपोरेट जगत की ताकत है माइनिंग, सेज (एसईजेड), भूमि अधिग्रहण। ये सब कौन कवर करता है? ग्रामीण पत्रकार। असल बात है, कॉरपोरेटाइजेशन में खबर ही रेवेन्यू का माध्यम बन गई है।

पत्रकारिता और मीडिया में पिछले बीस साल में बहुत बदलाव आया है। एक तो लोग भूल गए हैं कि हिंदुस्तान की पत्रकारिता की परंपरा क्या है। तीन साल बाद भारतीय पत्रकारिता के 200 साल पूरे होने वाले हैं। मैं अगस्टस हिक्की-विक्की को नहीं मानता। हमारे देश का पहला अखबार राजा राममोहन रॉय का ‘मिरातुल’ था, जो बंगाली में नहीं, फारसी में था। उस वक्त मुगल कोर्ट की भाषा फारसी थी। पहले ही दिन से ‘मिरातुल’ अखबार सती प्रथा, विधवा विवाह, कन्या भ्रूण हत्या, लड़कियों की शिक्षा आदि मुद्दे लेकर निकला था। राजा राममोहन रॉय से शुरू होकर 170 साल की यह परंपरा थी, मानवीय पत्रकारिता की।


दुनिया में कितने पत्रकार हैं, जिनके संग्रहित काम के सौ अंक प्रकाशित हुए हैं? एक थे गांधी और दूसरे थे आंबेडकर। इनके काम के सौ खंड छपे हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि ये लोग पत्रकार थे। पिछले साल मैं पंजाब में गया तो मुझे बहुत निराशा हुई कि वहां सब लोग जानते हैं कि भगत सिंह शहीद थे, राजनीतिक कार्यकर्ता थे, लेकिन वे भूल जाते हैं कि भगत सिंह एक पेशेवर पत्रकार भी थे। उन्होंने बारह से ज्यादा पत्रिकाओं में लिखा। चार में नियमित लिखा और चार भाषाओं में लिखा। पंजाबी, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी। उन्होंने पहले ‘अकाली’ पत्रिका में पंजाबी में लिखा, फिर ‘अर्जुन’ में लिखा, ‘प्रताप’ में लिखा। उन्होंने राजनीतिक लेखन ‘कीर्ति’ में किया। एक नौजवान ने चार भाषाओं में सैकड़ों लेख लिखे, जब तक कि 23 साल की उम्र में उसे फांसी नहीं दे दी गई। मैं बार-बार सोचता हूं कि मैंने तो 23 साल में पत्रकारिता शुरू ही की थी। यह थी हमारी पत्रकारिता की परंपरा।

पिछले तीस साल में क्या बदला है? पारिवारिक, निजी, ट्रस्ट की मिलकियत से मीडिया अब कॉरपोरेट की मिलकियत में चला गया है। इसका सबसे बड़ा मीडिया मालिक है, मुकेश अंबानी। आप लोग जो ईटीवी देखते हैं, उसमें केवल तेलुगु को छोड़कर बाकी के 19 चैनल मुकेश अंबानी की संपत्ति है। एक ट्रस्ट बनाकर उन्होंने इन्हें खरीदा है। दिलचस्प है कि उस ट्रस्ट का नाम ‘इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट’ है।

मीडिया में कॉरपोरेटाइजेशन (निगमीकरण) 1985 से आया और तब ही से ग्रामीण पत्रकारों की दिक्कत शुरू हुई। उस साल दो बड़ी गतिविधियां शुरू हुईं। पहली, कॉरपोरेटाइजेशन लाने के लिए यूनियनों, संगठनों को हटाना, खत्म करना शुरू हुआ। इसकी शुरुआत समीर जैन ने ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ से की और जिसे धीरे-धीरे सभी ने अपना लिया। संगठन खत्म करने का पहला मास्टर स्ट्रोक था रोजगार से ठेके पर पत्रकारों को लाना। आप 11 महीने के ठेके पर हैं, मैं आपका एडिटर हूं। आठवें महीने मैं आपको बुलाकर कहता हूं कि आप फलां की सराहना में लिखो, इसको-उसको गाली दे दो। जो कुछ मैं कहता हूं वही आप करने वाले हैं क्योंकि रिन्यू होने से पहले आपका नब्बे दिन का कांट्रैक्ट बचा है।

तो कॉरपोरेटाइजेशन में मीडिया पूरा बदल गया। पत्रकारिता की समझ, उसका दर्शन और कॉरपोरेट का दर्शन एकदम अलग है। पत्रकार देखता है कि खबर क्या है, उसका सबूत क्या है। यह पत्रकार की मानसिकता है। कॉरपोरेट के लिए रेवेन्यू और प्रॉफिट असल चीज है। उनकी दिलचस्पी नहीं है कि पत्रकार बढ़िया स्टोरी करे, वो ये देखते हैं कि स्टोरी से रेवेन्यू मिलेगा या नहीं। साल 1990 से मीडिया और पत्रकारिता दो अलग-अलग चीजें बन गई हैं। पत्रकारिता हम करते हैं, मीडिया धंधा करता है, मुनाफा कमाता है। उसका मूल उद्देश्य यही है। मीडिया एक धंधा है, कारोबार है। टीवी एक कारोबार है, अखबार एक धंधा है, लेकिन पत्रकारिता एक आह्वान है, पुकार है। पत्रकारिता हम अपने दिल से करते हैं।


पत्रकारिता में दूसरा बड़ा बदलाव 2013 में आया जब शहरी और एलीट पत्रकार भी हमले की चपेट में आ गए। इनमें पहला कौन था? नरेंद्र दाभोलकर। आज भी उनकी हत्या का मामला हल नहीं हुआ है। सब जानते हैं कि दाभोलकर सिर्फ अंधविश्वास विरोधी एक्टिविस्ट नहीं थे, पच्चीस साल उन्होंने एक पत्रिका चलाई थी। दूसरे थे, गोविंद पानसारे। वह कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर थे, लेकिन इतिहासकार और स्तंभकार भी थे। तीस साल से वह कॉलम लिख रहे थे। उनको उनके घर के सामने मार दिया गया। इसके बाद एमएम कलबुर्गी। वह भी एक पत्रकार, अकादमिक, विद्वान थे। कॉलम लिखते थे। उनको भी मार दिया गया। चौथी हत्या थी, एक हाइप्रोफाइल पत्रकार गौरी लंकेश की।

इन चारों के बीच समानता थी कि वे तार्किक विचारों को भारतीय भाषाओं में लिख रहे थे। ध्यान रखिए, भारतीय भाषाओं में लिखने वाले पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले हुए हैं। इस तरह की चीजें रिपोर्ट करेंगे तो एक तो प्लेटफार्म की दिक्कत है कि इसे कौन छापेगा, दूसरा हमले की आशंका है।

पत्रकारिता में अभी दो स्कूल हैं। एक है पत्रकारिता, दूसरा स्टेनोग्राफी। अखबार और चैनल में सब स्टेनोग्राफी कर रहे हैं। जो मालिक बोलता है, वे लिखते हैं। इस संकट के बीच आखिर ग्रामीण पत्रकार कैसे अपना काम करे? मैं क्या सलाह दूं आपको? मेरे खयाल से एक प्लेटफॉर्म और एक नेटवर्क होना चाहिए। आप लोग सहकारी मॉडल पर वेबसाइट बनाइए। प्लेटफॉर्म मिलेगा, तो आप विज्ञापन भी ले सकते हैं। वेबसाइट चलाना अखबार से ज्यादा सस्ता है। अखबार में 70 परसेंट न्यूजप्रिंट की ही लागत आ जाती है।

दूसरा, सुरक्षा के लिए पत्रकारों का एक नेटवर्क, संगठन बनाओ। यूनियन को रिवाइव करो ताकि अगर कुछ होगा तो देश के हर पत्रकार को 24 घंटे में उसका पता चलना चाहिए। मेरे लिए ग्रामीण पत्रकार बहुत अहम हैं। इसीलिए मैं एडिटरशिप छोड़कर ग्रामीण पत्रकारिता में आया। मीडिया से शिकायत आसान और अक्सर जायज भी होती है। जब तक खबरों का खर्चा आप नहीं उठाएंगे, खबरें कॉरपोरेट और राजनीति के दबाव में आपके हितों से समझौता करती रहेंगी।

(पी. साईनाथ द्वारा पराड़कर स्मृति सभागार, वाराणसी में पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति (सीएएजे) द्वारा आयोजित कार्यक्रम में दिए व्याख्यान का संपादित अंश का लेख सप्रेस से साभार)

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