प्रतिभा के नाम पर दलितों को धकियाने वालों के लिए खुशी लेकर आया कोर्ट का फैसला, जातिवादियों को मिला नया हथियार

एससी-एसटी आरक्षण का प्रावधान आर्थिक नहीं है, गरीब तो सभी जातियों में है। आरक्षण का असली आधार छुआछूत और जाति से जुड़े उसके दर्दनाक नतीजे थे। संविधान में एससी-एसटी के लिए प्रावधानों के जरिये इन्हीं सामाजिक बुराइयों और भेदभाव को हमारे पुरखे खत्म करना चाहते थे।

फोटोः सोशल मीडिया
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अरविंद मोहन

सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रमोशन में आरक्षण की सीमा तय करने का मामला अगर संसद और राजनीति में अगला तूफान अनकर आए तो हैरान होने की जरूरत नहीं होगी। कांग्रेस और अधिकांश विपक्षी दल इसे जोर-शोर से उठा रहे हैं और एनडीए में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी भी इसे जीवन-मरण का सवाल बनाने जा रही है। अगर इधर सचेत और आंदोलित हुए दलित समूहों ने इस मसले को उठा लिया, तो सरकार के लिए इसे संभालना मुश्किल होगा।

सरकार का नजरिया चाहे जो हो, न्यायपालिका में आरक्षण न होने से इस फैसले के और भी अलग अर्थ लगाए जाएंगे। समाज का अगड़ा जमात मानता है कि नौकरियों और अकादमिक संस्थाओं के दाखिले में आरक्षण की व्यवस्था से सिर्फ जातिवाद बढ़ रहा है और कोई और लाभ नहीं होता। ऐसे में, स्वाभाविक ढंग से वही मध्य वर्ग आरक्षण के खिलाफ शोर मचाता आ रहा है और यह फैसला उससे मेल खाता लग रहा है।

डाॅ. भीमराव रामजी आम्बेडकर ने कितना सही कहा थाः ”26 जनवरी, 1950 से हम एक विरोधाभासपूर्ण जीवन जीने जा रहे हैं। राजनीति में तो हमें समानता मिलेगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम असमानता बनी रहेगी।” एससी-एसटी के लिए आरक्षण का प्रावधान आर्थिक कारण से नहीं आया, क्योंकि गरीबी तो सभी जातियों और समुदायों में व्याप्त है। आरक्षण का असली आधार छुआछूत और जाति से जुड़े उसके दर्दनाक परिणाम ही थे। संविधान में एससी-एसटी के लिए प्रावधानों के जरिये इन्हीं सामाजिक बुराइयों और भेदभाव को हमारे पुरखे खत्म करना चाहते थे। आरक्षण पर विवाद का मामला भी यही है कि हमारे समाज की सबसे पीड़ित और प्रताड़ित जातियों के लोगों को आबादी में उनके अनुपात में नौकरियों और प्रोन्नति में विशेष अवसर मिले या नहीं।

दुर्भाग्य से जिन सीमित क्षेत्रों में विशेष अवसर या सकारात्मक कार्रवाई से लाभान्वित लोगों से संबंधित आंकड़े उपलब्ध हैं, वे भी विभिन्न स्तरों पर इनकी स्थिति की बहुत ही खराब तस्वीर उपस्थित करते हैं। जैसे, मार्च, 2011 में भारत सरकार के सचिव स्तर के 149 अधिकारियों में एक भी एससी अधिकारी नहीं था। अगर हम पूरे ग्रुप-ए सेवाओं पर नजर डालें, जहां साल 1955 से आरक्षण लागू है, एससी अधिकारियों का अनुपात 11.1 फीसदी और एसटी अधिकारियों का अनुपात 4.6 फीसदी ही था जो उनके लिए तय कोटे से काफी कम है।


केंद्र सरकार के सभी कर्मचारियों में एससी श्रेणी के 17 फीसदी और एसटी श्रेणी के 7.4 फीसदी हैं। लेकिन यह आंकड़ा सफाई कर्मचारियों और स्वीपरों की भर्ती में एससी-एसटी श्रेणी की ज्यादा भर्ती से आया है, क्योंकि इन श्रेणियों में उनका अनुपात 45.5 फीसदी है। हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने माना था कि यदि एससी-एसटी समाज के बड़े हिस्से की स्थिति में नाटकीय रूप से सुधार नहीं हुआ तो सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात हवाई स्वप्न ही रह जाएगी।

इसी चलते राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों के तहत धारा 46 जैसे प्रावधानों के जरिये शासन पर समाज के कमजोर समूहों, खासकर एससी-एसटी समाज के लोगों के शैक्षिक और आर्थिक हितों का विशेष ध्यान रखकर उनको सामाजिक अन्याय और हर किस्म के शोषण से बचाने का जिम्मा सौंपा गया। और संविधान के संरक्षक और व्याख्याकार होने के चलते न्यायपालिका इस पवित्र संकल्प को लागू करने के मामले में अपनी निगरानी से पीछे नहीं हट सकती।

आरक्षण के विवादास्पद मुद्दे पर देश की सबसे बडी अदालत का रुख क्या है, यह सुप्रीम कोर्ट के दो पुराने फैसलों से भी जाहिर होता है। 2006 में एम नागराज बनाम भारत सरकार मामले में अदालत ने निर्णय दिया था कि नियुक्ति और प्रोन्नति के हर मामले में पिछड़ेपनऔर प्रतिनिधित्व में कमी की बात साबित करनी होगी। साथ ही कार्यकुशलता में आने वाली कमी को भी ध्यान में रखना होगा। अप्रैल, 2012 के अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने प्रोन्नति में आरक्षण को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि नागराज केस में तय मानकों का पालन नहीं किया गया। यह केस यूपी पावर काॅर्पोरेशन बनाम राजेश कुमार था। ये फैसले समस्या वाले हैं और इनसे जितने सवालों का जबाब नहीं मिलता, उससे ज्यादा सवाल पैदा होते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार इस बात को रेखांकित किया है कि अदालतें पहले के उदाहरणों से चलती हैं। फिर भी नागराज मामले में पांच जजों की खंडपीठ ने इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए फैसले को दरकिनार कर दिया था। उस मामले में नौ सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने माना था कि सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के मानक और वांछनाएं एससी-एसटी पर लागू नहीं होतीं, क्योंकि वे तो “नागरिकों के पिछड़े वर्ग” से आते ही हैं। नागराज मामले में इस सिद्धांत की अनदेखी कर दी गई और एससी-एसटी के ‘क्रीमी लेयर’ को आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया गया और नजरिये में बदलाव का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया।


यह भी दिलचस्प है कि दोनों मामलों- नागराज और राजेश कुमार, में अदालतों ने यह स्पष्ट नहीं किया कि दलितों में ‘क्रीमी लेयर’ का सिद्धांत एससी-एसटी प्रोन्नति में ही लागू होगा या आरक्षण में भी। अब यह संभव है कि कोई भी अदालत इन फैसलों को आधार बनाकर आगे की नियुक्तियों में भी इस तरह की बंदिश लगा दे, क्योंकि प्रोन्नति और नियुक्ति के लिए अलग-अलग आधार कैसे हो सकता है।

सामाजिक न्याय हमारे संवैधानिक मूल्यों में एक है, इस बात को मानते हुए भी इन दोनों फैसलों में आरक्षण को विशुद्ध आर्थिक मसला बना दिया गया है क्योंकि इसमें एससी-एसटी के ‘क्रीमी लेयर’ को ही सबसे बड़ा आधार बना दिया गया है। दलितों को कितना सामाजिक अन्याय सहन करना पड़ता है, इसका इन फैसलों में जरा भी एहसास नहीं है और इन्होंने उस चीज को और नुकसान पहुंचा दिया है।

हर आदमी जानता है कि अगर आपके पास साधन नहीं हैं तो आपके पास न अच्छा स्वास्थ्य हो सकता है, न शिक्षा और न ही अच्छी नौकरी। यह हवाई खयाल है कि बस्तियों से निकले बच्चे सीधे आईएएस या पीसीएस की परीक्षा में कंपीट हो जाएंगे। अब अपने फैसलों से ‘क्रीमी लेयेर’ को रोक देने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि दलित लोग अपने लिए तय कोटे को भरने लायक पर्याप्त संख्या में नहीं पहुंच पाएं। आज भी असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर आरक्षण के आईआईटी में एससी-एसटी अध्यापकों का अनुपात 4 फीसदी से भी कम है।

समाज विज्ञानी मानते हैं कि मुश्किल सामाजिक-आर्थिक हालात और उनके चलते शैक्षिक पिछड़ेपन के चलते यह स्थिति बनी है। अब यह सवाल भी उठाया जा सकता है कि क्या अदालतें संसद और विधानसभाओं में एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटों पर भी ‘क्रीमी लेयर’ का सिद्धांत लागू कराएंगी? प्रोन्नति के मामले में आरक्षण के सवाल पर प्रशासन में कार्यकुशलता का मसला उठाकर सुप्रीम कोर्ट ने जाने-अनजाने यह फैसला भी सुना दिया है कि आरक्षण का मतलब प्रशासनिक क्षमता से समझौता है।

इससे इस भ्रांति की पुष्टि ही होती है कि दलित कम तेज होते हैं और कार्यकुशल नहीं होते हैं। और हर सरकारी अधिकारी, सिर्फ दलित ही नहीं, हर काम के मामले में रोज खुद को सक्षम साबित करता है। जब प्रोन्नति की सूची बनती है तो उसमें आया हर आदमी कई पैमानों पर, जिनमें कार्यकुशलता भी एक है, पर खरा उतरने के चलते ही उसमें आ पाता है।


लेकिन सुप्रीम कोर्ट सिर्फ आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों से योग्यता साबित कराना चाहता है जिसका उनके भविष्य की संभावनाओं पर निश्चित असर पड़ेगा। सरकार में काम करने वाले जानते हैं कि अक्सर किसी व्यक्ति का प्रोफेशनल मोल उन कारणों से ही तय होता है जिनका योग्यता से कोई लेना-देना नहीं रहता। अपने वरिष्ठों द्वारा अधिकारियों के कामकाज की सालाना गोपनीय रिपोर्ट का उपयोग नौकरशाही में दलितों को ऊपर पहुंचने से रोकने के लिए ही हुआ है। जब रामविलास पासवान रेल मंत्री थे, तब यह देखकर हैरान हो गए थे कि ग्रुप-ए के दलित अधिकारियों में अधिकांश को ऐसे ग्रेड नहीं मिले थे कि उनका प्रमोशन किया जा सके।

प्रोन्नतियों में कार्यकुशलता प्रमुख जरूरत बने, यह अदालती फैसला आरक्षण विरोधियों के लिए खुशी का कारण बनकर आया है, जो पहले से ही प्रतिभा की दिखावटी छड़ी से दलितों को पीटते रहे हैं। नौकरशाही में बने रहने और फलने-फूलने के लिए मेरिट की कोई जरूरत होती नहीं है, पर अदालती फैसले ने जातिवादी मानसिकता वालों को एक और हथियार दे दिया है।

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