वक्त-बेवक्त: महानता की खोज

यह समझ के बाहर है कि किसी भी व्यक्ति की आलोचना से समाज में घृणा कैसे फैल सकती है!

फोटोः सोशल मीडिया
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अपूर्वानंद

महानता क्या है? क्या उसे गढ़ा जा सकता है? क्या सत्ता महानता का सृजन या निर्माण कर सकती है? पिछले एक हफ्ते से भारत में जो कुछ भी हो रहा है, उसे देखते हुए ये प्रश्न सहज ही उठते हैं।अटल बिहारी वाजपेयी की मृत्यु के बाद सरकार द्वारा उन पर जो महानता आरोपित की जा रही है और उनपर जिस प्रकार के लेख लिखे जा रहे हैं, उन्हें पढ़ने के बाद किसी दूसरे विचार की गुंजाइश नहीं बचती। लेकिन महानता के इस विराट राज्य संचालित आयोजन को देखते हुए यह पूछा ही जा सकता है कि क्या यह जनता की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थी? क्या अटलजी जिस दल के थे, वह सत्ता में न होता तो भी उनके प्रति श्रद्धा का यही ज्वार दिखलाई पड़ता?

ये प्रश्न कुछ लोगों को आपत्तिजनक लग सकते हैं। जो कहानी सत्ता हमें सुना रही है उसमें कोई भी विघ्न उसे बर्दाश्त नहीं। इसलिए अटलजी की महानता के किस्से के बीच में मोतिहारी के केन्द्रीय विश्वविद्यालय के अध्यापक संजय कुमार की टिप्पणी के कारण उनपर सत्त्ताधारी दल के विचारों से जुड़े लोगों ने जिस तरह हमला किया, वह इसका प्रमाण है कि महानता की इस कथा के बीच में श्रोता कुछ पूछ नहीं सकते। उस शारीरिक हमले को छोड़ दें तो भी बाद में जो बिहार सरकार के एक मंत्री ने कहा, वह चिंताजनक है। उनके मुताबिक भारत रत्न उपाधि से विभूषित किसी व्यक्ति पर सवाल उठाना देशद्रोह से कम नहीं है। संजय कुमार पर उन्हीं के दल के एक दूसरे व्यक्ति ने मुकदमा भी दायर कर दिया है। यह समझ के बाहर है कि किसी भी व्यक्ति की आलोचना से समाज में घृणा कैसे फैल सकती है! इन्हीं दोनों तर्कों के आधार पर भारतीय जनता पार्टी द्वारा नेहरू पर लगातार आक्रमण, जो प्रायः असभ्य भाषा में किया जाता है, गैरकानूनी और आपराधिक ठहरता है! लेकिन उसे जाने दें!

महान कौन है? विशेषकर राजनीतिज्ञों के सन्दर्भ में इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है। उनके संदर्भ में और भी नहीं जो कुछ वक्त तक भी सत्ता में रह गए। नेहरू के बारे में लिखते हुए हीरेन मुखर्जी ने कहा था कि राजनीति के लिए जो थोड़ी बहुत क्षुद्रता चाहिए उसका नेहरू में अभाव था इसलिए उनका सफल राजनेता या शासक होना संभव न था। तो जो सफल है, वह महान भी है, यह कहना ठीक नहीं। सफलता हमेशा उचित रास्ते नहीं हासिल की जाती।

सफलता की चर्चा के दौरान मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पंक्तियां याद आती हैं: “सफलता के जंग खाए, तालों और कुंजियों, की दूकान है कबाड़ी की, इतनी कहां फुरसत हमें- वक्त नहीं मिलता है, कि दूकान पर जा सकें।” वे सफलता के रास्ते को गोल-गोल घुमावदार चक्करदार सीढ़ियों की तरह देखते हैं। टैगोर उनके काफी पहले सफल और सार्थक के बीच का फर्क समझा गए हैं। हर कोई जो सफल है, जरूरी नहीं, सार्थक भी हो!

मुक्तिबोध इसी कविता में सफलता हासिल करने की हिकमत के बारे में यों लिखते हैं, “थोड़ी-सी सचाई में, बहुत सी झुठाई घोल, सांस्कृतिक अदा से,अंदाज से, अगर बात कर सको, भले ही दिमाग में, ख्यालों के मरे हुए चूहे, ही क्यों न हों प्लेग के, लेकिन अगर अगर कर सको, ऐसी जमी हुई ज़बानदराजी, और सचाई का अंग भंग, करते हुए झूठ का बारीक सूत कात सको, तो गतिरोध और कंठरोध, मार्गरोध कभी न होगा फिर।।।”

राजनेता को वक्ता होना ही होता है। बोलकर लोगों से संबंध स्थापित करना जनतंत्र के लिए आवश्यक है। कुछ राजनेता लिखते भी हैं। वह लिखना उनके बोले हुए का विस्तार होता है। भारत के सभी बड़े नेताओं का लेख भी प्रचुर है। गांधी और नेहरू तो लिक्खाड़ थे ही, आप आंबेडकर, राजगोपालाचारी, विनोबा, लोहिया, जयप्रकाश, सरोजिनी नायडू, पेरियार आदि को भी याद रखें। इन्हें पढ़ते हुए हमें इनके मानसिक क्षितिज का अंदाज मिलता है। इसका कि ये स्वयं महान विचारों के निरंतर संपर्क में थे। इस तरह विश्व स्तर पर विचार की जो एक दीर्घ परंपरा है, ये खुद को उसके बीच रखकर अपनी बात कहते हैं। इस कारण इनमें मिथ्या अहंकार नहीं होता, पर्याप्त विनम्रता इनके स्वर में होती है।

लिखना बोलने से अधिक कठिन है। गद्य को कसौटी माना गया है लेखक की और कवि की भी। अगर आप कविता लिख रहे हैं तो क्या सरल, सुलभ भावों को आप प्राप्त भाषा में दुहरा रहे हैं या नए भावों का और नई भाषा का सृजन भी कर रहे हैं? कवि और तुक्कड़ में काफी अंतर होता है। हर तुकबाजी कविता नहीं होती वरना विज्ञापन लिखने वाले सबसे बड़े कवि होते !

वाक्पटुता या वाग्मिता अच्छे वक्ता का एक गुण है। लेकिन वह एकमात्र नहीं। वाक्पटुता और वाक्चातुर्य भाषा पर अधिकार का प्रमाण है, लकिन उससे क्या आपके विचार के गुण का भी पता चलता है? वह कब जबानदराजी है, इसका पता कैसे चले?

बोलकर भीड़ जमा लेना क्या एक मात्र सबूत है अच्छे वक्ता का? फिर उसमें और एक मजमेबाज में क्या फर्क? अकसर लफ्फाजी को भी श्रेष्ठ वक्तृता में शुमार कर लिया जाता है। भारत के पहले शिक्षा आयोग के अध्यक्ष मुदलियार साहब ने इसी खतरे की तरफ सावधान किया था। उनका कहना था कि लफ्फाजी लोगों को मोहित करती है और उनके विवेक को सुला देती है। अगर भाषण आपको सिर्फ उत्तेजित कर दे या आपको केवल मजा दे तो उसके श्रेष्ठ होने में संदेह है। वह भाषण जो आपको दूसरों के खिलाफ उकसाए, वह घृणा का प्रचार है।

कई राजनेता तो सिर्फ वक्ता ही होते हैं। जनता से उनका संपर्क सिर्फ शब्दों के माध्यम से होता है, जनता के जीवन में उनकी भागीदारी शून्य होती है। उनके अपने जीवन में अनेक ऐसे अवसर आते हैं, जब वे जनता की जिंदगी में शामिल हो सकते हैं। क्या वे ऐसा कर पाते हैं? आज के नेताओं को छोड़ दें जिन्हें जनता सिर्फ नौकरी, तबादले आदि के लिए पैरवी का जरिया भर मानती है।

बोलना और कुछ भी बोलकर धाक जमा लेना एक बात है। क्या आप समाज में सद्भाव, न्याय बोध, अन्य के प्रति स्वागतभाव के साथ उत्सुकता के लिए जगह बना रहे हैं या पहले से जमे पूर्वग्रहों, धारणाओं को सहला कर उन्हें यह विश्वास दिला रहे हैं कि चूंकि आप उनके भावों की शानदार अभिव्यक्ति कर सकते हैं, आप उनके प्रतिनिधि हैं?

बहुत कम नेताओं में साहस होता है कि वे जनता को चुनौती दें। जो सहज और सरल रूप से ग्राह्य है, उससे अलग जाकर उन्हें अपनी समीक्षा करने को प्रेरित करें। ऐसे नेता हमेशा लोकप्रिय नहीं होते।

महानता एक सापेक्षिक अवधारणा भी है। हमारे पास महानता के कौन से पूर्व उदाहरण हैं, इससे भी तय होता है कि अपने वक्त में हम किसे महान मानेंगे। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि जो औसत है, वह महान से हमेशा भयभीत रहता है। जो औसत को स्वीकार है, उसके महान होने में शक है।

(लेखक के विचारों से नवजीवन की सहमति अनिवार्य नहीं है।)

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Published: 24 Aug 2018, 7:59 AM