पेड़ काटकर केवल जुबानी वंदन करना फरेब
मां भारती को शस्य श्यामल रहने तो दें। अन्यथा सवाल होगा कि यह धरती तो सांस लेने लायक रही नहीं।

संसद के शीतकालीन सत्र में तमाम मुद्दों पर बहस के लिए सरकार ने शर्त रखी। जब तक “वंदे मातरम्” पर चर्चा नहीं होगी, तब तक और कोई बात नहीं होगी। चर्चा भी हुई। सरकार “वंदे मातरम” का गौरवगान करती है। दूसरी तरफ उस गाने के बोल के ठीक विपरीत दृश्य भारत में दिखाई देता है। “वंदे मातरम्” हमारी ‘शस्य श्यामला’ , ‘द्रुमदल शोभिनिम’ को वर्णित करती है। सरकार अपने चहेते पूंजीवादी एकाधिपत्य स्थापित करते कॉरपोरेट मित्र से तकरीबन 6 लाख पेड़ या द्रुम कटवाने की तैयारी में है। ‘एक पेड़ मां के नाम’ का आह्वान होता है, मगर पूरा जंगल कॉरपोरेट मित्र के नाम कर देती है।
यह परिस्थिति आंखों देखी और मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले के धिरौली कोलमाइन क्षेत्र की है। सिंगरौली में 2021 में धिरौली कोलमाइन का आवंटन अडानी की कंपनी को दिया गया। सितंबर 2025 में परियोजना आरंभ हुई। कुल लीज क्षेत्र 26.72 वर्ग किलोमीटर है जिसमे दो तिहाई वन भूमि के तहत है। उस क्षेत्र के अध्ययन से यह सामने आया कि करीबन 6 लाख पेड़ हैं, जो अनुमानतः कट सकते हैं। यह क्षेत्र हाथी कॉरिडोर का हिस्सा भी रहा और महुआ, तेंदू आदि वनोपज पर आधारित आदिवासी जन जीवन के प्रभावित होने की आशंका है।
9 अगस्त 2023 को तत्कालीन कोयला मंत्री जी. किशन रेड्डी ने लोकसभा में एक संसदीय प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट रूप से बताया था कि धिरौली कोयला खनन परियोजना वास्तव में संविधान की पांचवीं अनुसूची में संरक्षित क्षेत्र में आती है। ऐसे में धिरौली क्षेत्र में पेसा कानून लागू होता है। पेसा के तहत किसी भी खनन परियोजना के लिए स्थानीय ग्राम सभा की मंजूरी पूरी तरह अनिवार्य है, लेकिन यहां ऐसा बिल्कुल नहीं किया गया। मगर मध्य प्रदेश की सरकार यह कहती है कि धिरौली कोयला खनन पांचवी अनुसूची में शामिल नहीं है। इसका सीधा मतलब है कि या तो केन्द्र सरकार या तो राज्य की सरकार सच को छिपा रही है और लोगों को गुमराह कर रही है।
पांचवी अनुसूची लागू हो या न हो, भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013-14 के अनुसार, किसी भी अधिग्रहण से पूर्व ग्राम सभा का आयोजन अनिवार्य है। समता बनाम आंध्रप्रदेश (1997) के निर्णय में भी यह स्पष्ट किया गया है कि ग्राम सभा की सहमति के बिना अधिग्रहण नहीं किया जा सकता। यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 244 पर आधारित है। ग्राम सभा में पारदर्शी तरीके से प्रस्ताव पारित न करवाकर राज्य सरकार ने स्पष्ट रूप से कानून तोड़ा है और जो धिरौली में हुआ वह ग्राम सभा नहीं, ‘भय सभा’ थी।
वनाधिकार अधिनियम, 2006 की धारा 3 एवं 4 के अंतर्गत किसी भी वन भूमि के गैर-वन उपयोग से पूर्व वनाधिकारों का निस्तारण अनिवार्य है। वनाधिकार अधिनियम, 2006 में केवल व्यक्तिगत वन अधिकार ही नहीं, बल्कि सामुदायिक वन संसाधन अधिकार और विशेष रूप से संवेदनशील जनजातीय समूहों के आवास अधिकार भी शामिल हैं।
धिरौली कोयला खदान के तहत लगभग 3,500 एकड़ वनभूमि खनन हेतु इस्तेमाल की जानी है। इसमें अनेक गांव और हजारों गांववासी प्रभावित होने हैं। इन प्रभावित गांवों में तीन प्रकार के जनजातीय अधिकारों का पहले निस्तारण किया जाना आवश्यक है। लेकिन मध्य प्रदेश सरकार की अपनी जानकारी के अनुसार, सिंगरौली जिले में अब तक न तो कोई सामुदायिक अधिकार और न ही कोई आवास अधिकार मान्यता प्राप्त हुए हैं। वहां के सभी आदिवासी तेंदू और महुआ जैसे वनोपाज पर ही आजीविका के लिए निर्भर है। यह सिर्फ उनकी आजीविका नहीं, उनकी पूरी संस्कृति का भी सवाल है। एक तरह से आदिवासियत पर प्रहार हो रहा है।
इसके अलावा अंतिम चरण की स्वीकृति के बिना ही लगभग 2,000 पुलिसकर्मियों की तैनाती के साथ आनन-फानन में पेड़ों की कटाई प्रारंभ कर दी गई। अब तक लगभग 34,211 पेड़ काटे जा चुके हैं। कई पेड़ों पर मार्किंग नहीं पाई गई, जिससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि दर्ज संख्या से अधिक कटाई की गई है।
पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 के अनुसार, श्रेणी ‘ए’ की परियोजना (जिसमें धिरौली परियोजना आती है) में जनसुनवाई, प्रभावित समुदायों की सहभागिता तथा स्वतंत्र चर्चा आवश्यक है। लेकिन भारी पुलिस तैनाती के कारण स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जनसुनवाई संभव नहीं हो सकी। इसके अलावा, पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन किसी स्वतंत्र एवं सार्वजनिक विशेषज्ञ समिति द्वारा पारदर्शी रूप से नहीं कराया गया। जिला प्रशासन का कहना है कि परियोजना के लिए सारी अनिवार्य अनुमति हासिल हो चुकी है। वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है, परंतु ऑनलाइन ऐसी कोई फाइल नहीं मिलती। मिट्टी एवं प्राकृतिक जल स्रोतों के संरक्षण हेतु आवश्यक उपाय आज तक दिखाई नहीं देते, जबकि यह एक अनिवार्य शर्त थी।
पूरी सिंगरौली में कोयले की परत-सी जमी मिलती है। पहले से मौजूद कोयला खदानों एवं डंपिंग यार्ड के कारण प्रदूषण की स्थिति इतनी गंभीर है कि यदि समुचित अध्ययन किया जाए, तो यह दिल्ली से भी अधिक विषैला वातावरण सिद्ध होगा। खेतों की मिट्टी में कोयले के कण स्पष्ट दिखाई देते हैं। बच्चों के मध्याह्न भोजन तथा पीने के पानी में भी ये कण जमा हो रहे हैं।
यह क्षेत्र हाथी कॉरिडोर का भी हिस्सा रहा है। जंगल की कटाई का प्रभाव वन्यजीवों पर भी पड़ेगा। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 का भी उल्लंघन हुआ है ।
स्टेटाट्रेक अडानी कंपनी की परियोजना क्षेत्र को स्पेशल टास्क फोर्स तथा लगभग 2,000 पुलिसकर्मियों की तैनाती के माध्यम से एक छावनी में परिवर्तित कर दिया गया है। बिना अनुमति के कोई भी व्यक्ति वहां प्रवेश नहीं कर सकता। भारी पुलिस तैनाती के कारण स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जनसुनवाई संभव नहीं हो सकी।
जब पूर्व जन-प्रतिनिधि, जन-प्रतिनिधि प्रभावित क्षेत्र का अध्ययन करने पहुंचे, तो उन्हें छिपते-छिपाते पहुंचना पड़ा। तमाम प्रयास के बाद प्रशासन ने पांच लोगों को अनुमति दी। यह स्पष्ट तौर पर संविधान की धारा 19(1) डी में लिखित आवाजाही के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
परियोजना से प्रभावित 18 लोगों पर प्रकरण दर्ज किए गए है जिन्होंने अपने आधिकारों की बात की या जबरन स्वीकारोक्ति का विरोध किया। बासिबेरदा गांव की सोनमती खैरवाल कहती हैं कि वह तो अपने जल जंगल जमीन के हक के लिए लड़ती हैं। उनके चार माह का बच्चा है। उसे तो शायद बड़ा होने पर ऑक्सीजन राशन की दुकान से लेना पड़ेगा। उनकी स्थिति मवेशियों जैसी हो गई है।
कलेक्टर द्वारा आहूत बैठकों में स्थानीय जनप्रतिनिधियों को आमंत्रित नहीं किया जाता, ग्रामवासी नहीं बुलाए जाते जबकि कंपनी के प्रतिनिधियों को शासकीय बैठकों में सम्मिलित किया जाता है।
विस्थापित परिवारों के पुनर्वास की कोई विस्तृत योजना सार्वजनिक नहीं की गई है। असंख्य परिवारों के विस्थापित होने की संभावना, जिनमें अधिकांश आदिवासी परिवार हैं। इनकी संपूर्ण आजीविका जंगलों से मिलने संसाधन पर ही निर्भर है। इसके अलावा, आस-पास के जंगलों के महुआ, तेंदू आदि परंपरागत वन संसाधन पर निर्भर हज़ारों आदिवासी जनजीवन के गंभीर रूप से प्रभावित होने की आशंका है।
मुआवजे की राशि में भारी भेदभाव है। कुछ परिवारों को मात्र 4 लाख रुपये के आसपास मुआवजा दिया जा रहा है, जबकि कुछ अन्य परिवारों को लगभग 16 लाख रुपये तक दिए जाने का प्रावधान बताया गया है। जिला प्रशासन द्वारा आयोजित मूल्य निर्धारण समिति में कंपनी के प्रतिनिधित्व को शामिल किया गया। यह तो सिरे से संवैधानिक धोखा है।
यह एक पर्यावरणीय त्रासदी और स्थानीय आदिवासी जनजातियों के लिए एक सामाजिक और आर्थिक आपदा है। अन्य कंपनियों के प्रभावित क्षेत्रों में कम-से-कम संवाद की गुंजाइश रहती है, किंतु यहां ऐसा नहीं है। यह केवल धिरौली कोयला खनन तक सीमित मुद्दा नहीं है। यह पूरा प्रांत खनिज पदार्थों से भरपूर है। यह भी जानकारी प्राप्त हुई है कि भूमिगत उत्खनन की प्रक्रिया भी जारी है। आशंका व्यक्त की गई है कि सोने का उत्खनन भी किया जा सकता है और इसे भी इसी कंपनी को सौंपा जाना प्रस्तावित है। विस्थापन, पुनर्वास, और जबरन बेदख़ली ऐसा मुद्दा है जो मध्य प्रदेश के 21.1 प्रतिशत आदिवासी आबादी से जुड़ा है।
हसदेव अरण्य के बाद यह दूसरा स्थान है जहां एक कंपनी चौकी स्थापित की गई है। लगता है कि हम दो सदी पहले पहुंच चुके हैं। 1858 के पहले की ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर-सा महसूस होता है। कंपनी की लूट, दोहन, शोषण जमीन पर लगाए लगान की ऊंची दरों के खिलाफ सन्यासी-फकीर विद्रोह हुआ था। मजनूं शाह और देवी चौधरानी जैसे मुखर लोगों ने नेतृत्व किया। कंपनी की जबरदस्ती के आगे वे नहीं झुके, पर विद्रोह बलपूर्वक कुचला गया। बंकिमचंद्र जी ने वंदे मातरम् लिखा, टैगोर ने पहली बार गाया। संन्यासी-फकीर विद्रोह पर आधारित लिखे उपन्यास आनंद मठ में बंकिमचंद्र ने कुछ और पंक्तियां जोड़ीं। आज उसको भेद के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। मां को सलाम करें या वंदन, असल व्यवहार क्या दर्शाता है। द्रुमों को उखाड़कर, शीतलता को नष्ट करके केवल जुबानी वंदन फरेब है। मां भारती को शस्य श्यामल रहने तो दें। अन्यथा आने वाली पीढ़ी पूछेगी की इस धरती को गा रहे हैं। यह तो उजाड़ और तपन, श्वसन योग्य नहीं रही।