सत्ता मशीनरी का दुरुपयोग कर दलित-आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वालों को बनाया जा रहा है निशाना

भीमाजी कोरेगांव में जमा हुए दलितों के खिलाफ हिंसा हुई थी। लेकिन हिंसक वारदातों में लिप्त संगठनों के लोगों को गिरफ्तार करने की बजाय 6 मई को उन्हें गिरफ्तार गया है जो 31 दिसंबर 2017 को दलितों को भीमाजी कोरेगांव में महार रेजिंमेट द्वारा पेशवाई सेना को हराने की याद ताजा कराने में सक्रिय थे।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया
user

अनिल चमड़िया

2018 का वर्ष सत्ता की मशीनरी द्वारा दलितों और उनके बीच सक्रिय कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों से निपटने के लिए शायद निश्चित किया गया है। 1 जनवरी को भीमाजी कोरेगांव में दलितों के खिलाफ हिंसा की घटना से लेकर 2 अप्रैल को दलित संगठनों के भारत बंद के बाद जागरुक दलितों और सक्रिय कार्यकर्ताओं की बेरोकटोक गिरफ्तारी की जा रही है। हजारों की संख्या में बीजेपी शासित राज्यों में ये गिरफ्तारियां हुई है। याद किया जा सकता है कि भीमाजी कोरेगांव में जमा हुए दलितों के खिलाफ हिंसा हुई थी। लेकिन हिंसक वारदातों में लिप्त संगठनों के लोगों को गिरफ्तार नहीं किया जा सका है। इसके बजाय 6 मई को उन्हें गिरफ्तार गया है जो 31 दिसंबर 2017 को दलितों की चेतना में भीमाजी कोरेगांव में महार रेजिमेंट द्वारा पेशवाई सेना को हराने की याद ताजा कराने में सक्रिय हुए थे।

भीमाजी कोरेगांव हमले के खिलाफ जब महाराष्ट्र बंद का कार्यक्रम सफल हो गया तो सत्ता की मशीनरी ने दलितों की संगठित ताकत को एक खतरे के रूप में भांपकर अपनी कार्रवाई शुरू कर दी। पुणे में 8 जनवरी को एक एफआईआर लिखवाई गई कि 1 जनवरी की हिंसा को अल्गार परिषद के उन लोगों ने उकसाया जिन्होंने भीमा कोरेगांव में महार रेजिमेंट की जीत के 200 वर्ष पूरे होने के मौके पर दलितों की विजय दिवस के लिए 31 दिसंबर 2017 को बैठक की थी।

इसी मुकदमे को पुणे पुलिस ने मार्च 2018 में आंतरिक सुरक्षा के लिए षड़यंत्र के रूप में बदल दिया और उस षड़यंत्र में शामिल होने के लिए मशहूर वकील सुरेन्द्र गाडलिंग, नागपुर में अंग्रेजी की प्रोफेसर शोमा सेन, मशहूर मराठी कवि और संपादक सुधीर धावले, राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए दिल्ली में सक्रिय रोमा विल्सन और प्रधानमंत्री फेलोशिप हासिल करने वाले महेश राउत को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी से पहले दलित-अदिवासी संगठनों और कार्यकर्ताओं की तरफ से लंबे समय से कोर्ट-कचहरी में मुकदमे लड़ने वाले वकील सुरेन्द्र गाडलिंग के घर और दफ्तर में अप्रैल 2018 को पुलिस ने छापेमारी की थी। पुलिस ने उनके खिलाफ यूएपीए की धाराएं भी लगा दी हैं, ताकि ये लोग लंबे समय तक जेल की सलाखों के पीछे रहें और अदालतें इन्हें जमानत देने की हिम्मत नहीं कर सके।

सत्ता मशीनरी का यह एक नया तरीका है कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं को लंबे समय तक जेल में रखने के लिए उनके खिलाफ उन कानूनों की धाराओं का इस्तेमाल किया जाए, जिससे उन्हें जमानत नहीं मिल सके। ग्रामीण स्तर पर सक्रिय रहने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं से हमेशा के लिए निपटाने में कोई दिक्कत अब पेश नहीं आती है। लेकिन शहरी इलाकों में सक्रिय कार्यकर्ताओं से निपटने के लिए कानूनी हथियारों का ही इस्तेमाल किया जाता है। जिन पांच लोगों को गिरफ्तार किया गया है उन्हें शहरी इलाके में सक्रिय नक्सली कनेक्शन का नाम दिया गया है। शहरी नक्सली के आरोप का प्रचार सबसे पहले गिरफ्तार होने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को जनतांत्रिक और चेतना संपन्न लोगों से काट देता है, जिनके दिमाग में नक्सल आंदोलन के अपराधी होने का प्रचार पूरी तरह से भर गया है।

इतिहास पर नजर डालें तो दलितों के बीच सक्रिय बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं को किसी न किसी तरह के आरोप से घेर लिया जाता है। जिन्हें भीमाजी कोरेगांव में हिंसा के लिए उकसाने के बहाने गिरफ्तार किया गया है उन्हें माओवादी संगठनों से जुड़ा बताया जा रहा है। इस तरह से उस आरोप को भी पुष्ट करने की कोशिश की जा रही है जब महाराष्ट्र बंद के कार्यक्रम को माओवादी समर्थन मिलने का प्रचार कर दलितों के आह्वान को कमजोर करने की कोशिश की गई थी। 2 अप्रैल 2018 को जब सुप्रीम कोर्ट के एससी-एसटी उत्पीड़न विरोधी कानून की धाराओं को कमजोर करने के फैसले के खिलाफ भारत बंद का आह्वान किया गया तो उस कार्यक्रम में हिंसक वारदातें हुईं। उस दिन दलितों के खिलाफ हमले हुए और बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों का जो सिलसिला शुरू हुआ वह उत्तर भारत के बीजेपी शासित राज्यों में बिना रोक-टोक चल रहा है।

इससे पहले भीम आर्मी के चन्द्रशेखर को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की धाराएं लगाकर जेल में लंबे समय से रखा जा रहा है। पुलिस ने चन्द्रशेखर को पहले जिन धाराओं के तहत गिरफ्तार किया था, उस मामले में उन्हें इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत मिल गई थी। लेकिन पुलिस ने पहले ही यह तय कर लिया था कि चन्द्रशेखर को जेल से बाहर नहीं आने देना है। दरअसल पुलिस ही अदालत हो गई है। पुलिस की अदालतों में यह तय करके गिरफ्तारी की जाती है कि किस तरह के राजनीतिक कार्यकर्ता को कितने समय तक के लिए निपटाना है। वैचारिक रूप से जो जितना ताकतवर होता है उतने ही लंबे समय के लिए सलाखों के पीछे रखा जाता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के दावेदार देश की पुलिसिया अदालत को यह अघोषित अधिकार मिल गया है कि वह किसी भी सत्ता विरोधी को मनचाहे समय के लिए जेल में डाल सकता है।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia