खरी-खरी: मोदी-शाह की खतरनाक रणनीति, सत्ता केंद्र से हिंदी भाषी राज्यों को दूर करने के लिए बुज़ुर्गों पर वार

नरेंद्र मोदी ने बहुत सोच समझकर केवल बीजेपी ही नहीं बल्कि सारे देश का ‘बैलेंस ऑफ पावर’ उत्तरी भारत से पश्चिम भारत की ओर मोड़ दिया है। अब देश की सत्ता का केंद्र पश्चिम भारतीय राज्य गुजरात बन गया है और हिंदी भाषी नेताओं और राज्यों की सत्ता में अब पकड़ नहीं रही।

फोटोः सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

बुजुर्गों का अपमान करना कोई बीजेपी से सीखे। कल तक ‘आदरणीय’ कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज को पार्टी ने घर बिठा दिया। और वही अकेले नहीं, अरे मोदी-शाह ने तो शांता कुमार और करिया मुंडा की भी छुट्टी कर दी। और तो और बेचारी उमा भारती ने भी घोषणा कर दी कि वह चुनाव नहीं लड़ेंगी। अंततः मुरली मनोहर जोशी का नाम भी ‘रिटायर्ड’ लिस्ट में शामिल हो गया।

एक-एक कर बीजेपी के सारे बुजर्ग चुनावी राजनीति से बाहर हो रहे हैं। संपूर्ण संघ परिवार में हर किसी के मुंह पर ताला पड़ा है। भला कोई बोले तो बोले कैसे। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पूरे हिंदुत्व परिवार पर ऐसा कब्जा किया है कि किसी की चूं करने की भी हिम्मत नहीं। अरे स्वयं आडवाणीजी की जुबान पर ऐसा ताला पड़ा है कि किसी ने पिछले पांच वर्षों में उनकी आवाज नहीं सुनी। बेचारे बस हाथ मरोड़ते हैं और बेबसी से मोदी को हसरत भरी निगाह से देखते हैं और चुप रहते हैं।

यह कौन आडवाणी हैं! जी हां, वही लालकृष्ण आडवाणी जिनकी तूती केवल संघ परिवार में ही नहीं पूरे भारत में 1990 के दशक में गूंजती थी। बीजेपी में तो एक अटल बिहारी वाजपेयी के सिवाय किसी की मजाल न थी कि आडवाणी के सामने आंखें उठाकर देख सके। और कोई देखता भी तो कैसे देखता। आखिर लालकृष्ण आडवाणी ने ही अपने खून-पसीने से बीजेपी को सींचा था। वरना कौन था 1984 के चुनाव के बाद लोकसभा में केवल दो सीट की हैसियत वाली बीजेपी को पूछने वाला।

वह तो आडवाणी का कलेजा था कि उन्होंने फिर से मुर्दा बीजेपी को बीजेपी बनाया। पहले वीपी सिंह के कंधों पर सवार होकर आडवाणी ने 1989 के चुनाव में बीजेपी को लोकसभा में दो सीटों से लगभग 80 सीटों पर पहुंचाया। फिर उनकी छत्रछाया में बीजेपी वहां से आज कहां पहुंच गई, सब जानते और समझते हैं।

यह सब कुछ ऐसे ही नहीं हो गया। याद है जब 1985 में शाहबानो मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और शाहबानो मुकदमा जीत गईं। उस समय कांग्रेस सरकार ने ‘मुस्लिम वीमन बिल’ के जरिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल कर ‘मुसलमान औरतों’ को तलाक के बाद ‘गुजर बसर’ मुआवजे से वचिंत कर दिया। बस क्या था, आडवाणी ने उस ‘तीन तलाक’, जो उस समय तक सबको मान्य था, के मुद्दे पर सारे देश में तहलका मचा दिया। आडवाणी ने इस पूरे मुद्दे को बहुत चतुराई से ‘सेकुलरवाद’ बनाम ‘छद्म सेकुलरवाद’ में बदल दिया।

यही नहीं, इस प्रकार आडवाणी ने सारे देश को चतुराई से यह संदेश भी दिया कि इस देश में मुसलमान जो चाहे वह उसको मिलेगा। इस प्रकार उन्होंने पहली बार हिंदू समाज में अपने प्रति एक ‘विक्टिमहुड’ का एहसास भी पैदा कर दिया। यह आडवाणी की एक चतुर रणनीति थी। सत्य कुछ और था, परंतु इस प्रकार कम से कम पहली बार इस देश के मिडिल क्लास में ‘सेकुलरवाद’ के प्रति शंका उत्पन्न हो ही गई और उधर बीजेपी को भी पहली बार मिडिल क्लास वर्ग में सम्मान प्राप्त हो गया।

फिर 1990 के दशक में उन्हीं लालकृष्ण आडवाणी पर भगवान राम की मानो स्वयं कृपा हो गई। इधर वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की घोषणा की, तो उधर आडवाणी ने कमंडल उठा लिया और रथ पर सवार होकर राम मंदिर बनवाने के अभियान में उतर पड़े। भला कौन भारतीय राजनीति के उस ऐतिहासिक दौर को भूल सकता है। सत्य तो यह है कि वह आडवाणी का दौर था।

बस यूं समझिए कि बाबरी मस्जिद-राम मंदिर समस्या के समय केवल एक आवाज थी जो सुनाई पड़ती थी। और वह आवाज थी लालकृष्ण आडवाणी की। रथ पर सवार आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या के लिए क्या निकले मानो स्वयं भगवान राम अपनी जन्मभूमि की ओर चल पड़े हों। हाथों में वह तीर कमान पकड़ और माथे पर तिलक लगाए आडवाणी इस देश पर छा गए। यह एक रणनीति थी जिसकी मंशा हिंदू समाज में बाबरी मस्जिद की रक्षा करने वाले मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करवानी थी ताकि वह रातों रात राम भक्त से बीजेपी भक्त बन जाएं। और हुआ भी यही।

साल 1996 आते-आते रामभक्ति बीजेपी भक्ति में ऐसी बदली की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली बीजेपी सरकार बन गई। भले ही वह सरकार 13 दिन की रही हो। परंतु राम मंदिर आंदोलन के कंधों पर सवार बीजेपी अब आम जनता में पहुंचकर भारतीय राजनीति का एक अहम छोर बन गई। यह कमाल किसी और का नहीं स्वयं लालकृष्ण आडवाणी का था।

लेकिन आज वही बीजेपी जिसे आडवाणी ने खुद अपने खून से सींचा था, उनकी बेटी को गांधीनगर से टिकट देने को तैयार नहीं है। अरे एक आडवाणी ही नहीं जिनको सत्ता के नशे में मोदी और शाह जलील कर रहे हैं। एक-एक व्यक्ति जिसने बीजेपी को बीजेपी बनाया उसे अब जलील किया जा रहा है। हिमाचल प्रदेश के दिग्गज बीजेपी नेता शांता कुमार कोई मामूली नेता नहीं हैं। उन्होंने हिमाचल में जनसंघ के दिनों में 1977 में पहली बार पार्टी को सत्ता में पहुंचाया और स्वयं मुख्यमंत्री बने।

केवल यही नहीं, शांता कुमार ने हिमाचल में बीजेपी को कांग्रेस के टक्कर की पार्टी बनाकर उसको कांग्रेस के मुकाबले खड़ा कर दिया। यह शांता कुमार की ही मेहनत थी जिसका फल बीजेपी को यह मिला कि अब अगर एक बार कांग्रेस , तो दूसरी बार बीजेपी प्रदेश पर राज करती है। वही शांता कुमार अब चुनावी सत्ता से बाहर कर दिए गए।

इसी प्रकार उमा भारती वह उमा भारती हैं जिन्होंने अपने भड़काऊ भाषणों से 1990 के दशक में राम मंदिर मुद्दे को आम जनता का मुद्दा बनाया। बेचारी उमा अब यह कह रही हैं कि चुनाव नहीं लडूंगी। भला कौन नेता चुनाव की दौड़ से बाहर जाना चाहता है। स्पष्ट है कि बीजेपी नेतृत्व ने उनका हाथ मरोड़ा और वह चुपचाप किनारे हो गईं।

किसका, किसका नाम गिनाइएगा आप। यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी कभी अटलजी के चहेते मंत्री होते थे। उनकी ऐसी दुर्गति की गई कि वे नेतृत्व के खिलाफ चीख उठे। शत्रुघ्न सिन्हा को पार्टी छोड़ने पर मजबूर किया गया। केवल इसलिए कि उनके आडवाणी से मधुर संबंध थे।

अरे, केवल पार्टी ही क्या सरकार तक में दिग्गजों की दुर्गति है। सुषमा स्वराज कहने को विदेश मंत्री हैं, परंतु हर विदेशी मामले का फैसला पीएमओ में होता है। राजनाथ सिंह कहने को देश के सुरक्षा मामलों के मंत्री हैं। परंतु सुरक्षा मामलों पर राय केवल मोदी जी के चहेते अजीत डोभाल की चलती है।

जरा एक बार फिर इन सारे नामों पर निगाह डालिए तो आपको इन सब नामों में एक बात ‘कॉमन’ दिखाई पड़ेगी। यह सब केवल बुजुर्ग ही नहीं यह सबके सब हिंदी भाषी क्षेत्र के नेता हैं। चौंकिए मत आडवाणी, जोशी, शांता कुमार, करिया मुंडा, उमा भारती, सुषमा स्वराज, राजनाथ आदि सब ही हिंदी राज्यों के नेता हैं। बस यही कारण है कि मोदी-शाह नेतृत्व जानबूझ कर उनको हाशिये पर बिठा रहा है।

दरअसल, नरेंद्र मोदी ने बहुत सोच समझकर केवल बीजेपी ही नहीं अपितु सारे देश का ‘बैलेंस ऑफ पावर’ उत्तरी भारत से पश्चिमी भारत की ओर मोड़ दिया है। स्वयं नरेंद्र मोदी गुजरात के हैं जो एक पश्चिमी प्रदेश है। वह इस समय पूरी सत्ता के सर्वेसर्वा हैं। उनके चहेते अमित शाह भी पश्चिमी प्रदेश गुजरात से पार्टी पर अपनी पूरी जकड़ बनाए हुए हैं। फिर सत्ता के शीर्ष केंद्र पीएमओ पर गुजराती बाबुओं का कब्जा है। जाहिर है कि सत्ता का संपूर्ण केंद्र सिमट कर पश्चिमी भारतीय गुजरात राज्य बन गया है, जबकि हिंदी भाषी नेताओं और राज्यों की सत्ता में अब पकड़ खत्म है।

लेकिन आप अगर इतिहास पर निगाह डालें तो आपको यह स्पष्ट दिखाई पड़ेगा कि महाभारत काल से अभी पांच वर्ष पूर्व तक सत्ता का केंद्र गंगा-जमुना के तट के किनारे बसा हिंदी भाषी क्षेत्र ही रहा है। नरेंद्र मोदी ने भारत का वह इतिहास बदल दिया है। अब सत्ता का केंद्र पूर्णतया गुजरात और वहां भी मोदी और शाह बन गए हैं। यह बात भारत जैसी लोकतांत्रिक परंपरा वाले रंगारंग देश के हित में नहीं है। साल 2019 के चुनाव में हिंदी भाषी प्रदेशों में इसके खिलाफ प्रतिक्रिया हो सकती है जो बीजेपी को महंगी पड़ सकती है।

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