सहूलत से 'वणक्कम' तो खुद बोल रहा है नेतृत्व, लेकिन दक्षिण के सार्वजनिक स्थलों के नामपट्टों में हिंदी धुकाना खतरनाक

आयुष मंत्रालय की बैठक से अहिंदी भाषियों को निकाले जाने से माहौल गर्मा गया है। बहस फिर से शुरु हो गई है। हालांकि खुद नेतृत्व क्षेत्रीय चुनावों में इलाकाई भाषाओं के चुनिंदा वाक्य बोल रहा है, पर विदेश नीति बैंकों से बातचीत तो अंग्रेजी में ही हो रही है।

फाइल फोटो : सोशल मीडिया
फाइल फोटो : सोशल मीडिया
user

मृणाल पाण्डे

बात पुरानी है। जून का महीना शुरू ही हुआ था। हम चार भारतीय भाषाओं के लेखक- कन्नड़ लेखक यू आर अनंतमूर्ति, असमिया के वरिष्ठ लेखक बीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य, उर्दू के लेखक समालोचक गोपीचंद नारंग और यह लेखिका, बांग्लाभाषी साहित्य अकादमी सचिव सहित बीजिंग हवाई अड्डे पर उतरे। उतरते ही हमको लेने आए चीनी दुभाषिये की मार्फत और अधिकारियों के तेवरों से जाहिर हुआ कि उनकी सरकार ने हमको सादर न्योता तो था लेकिन बीजिंग में यकायक फूटे भारी नागरिक विद्रोह के कारण हमारा आना उनको न उगलते बन रहा था, न निगलते। हमको संगीनों के सायों से घिरी वीरान सड़कों से सीधे हमारे भव्य होटल ले जाया गया और हमारी सुचारू व्यवस्था के साथ ही ताकीद की गई कि किसी भी कीमत पर हमें होटल से बाहर पैर नहीं रखने। मरते, क्या न करते? अगले दो सप्ताह के उस क्वारंटाइन में हमने वही किया जो लेखक कर सकते हैं: साहित्य, समाज और भाषा के रिश्तों पर बहस। हमारा होटल ठीक थ्येनआनमन चौक से सटा हुआ था और वहां के डाइनिंग हॉल से हमें भीमाकार टी-59 चीनी टैंक और धरने पर बैठे हजारों युवा हमें खिड़कियों से साफ नजर आते थे।

कई-कई तरह की सुस्वादु डिशेज के बीच भाषा के मसले पर बातचीत गरमा चली। शिष्ट शांत मिजाज के अनंतमूर्ति और बीरेनदा के सुर भी हिन्दी की राष्ट्र भाषा बनने की जिद और सरकारी हिंदी के औपनिवेशक इरादों पर तल्ख हुए। सचिव महोदय सरकारी मुलाजिम थे, पर बंगाल का गुस्सा उनकी बातों से भी साफ झलकता था। गोपीचंद नारंग तो ठहरे गर्म मिजाज पंजाबी भाई! उनको हिंदी द्वारा उर्दू की राजनैतिक मदद से बार-बार हुई बेदखली और उसे सिर्फ मुसलमानों की भाषा कहकर सांप्रदायिक रंगत देने वाले दक्षिणपंथी प्रचारकों से बेपनाह नफरत थी जो वह काफी रंगीन विशेषणों से व्यक्त कर रहे थे। हिंदी के पक्ष को सुर देने का सारा दारोमदार मुझ पर आन पड़ा तो मैंने यह कहकर बात शांत करने की कोशिश की कि हिंदी एक भाषा नहीं, एक विराट् सरोवर है जिसमें उर्दू और अनगिनत बोलियों की धाराएं मिलजुल कर हमारी समन्वयवादी संस्कृति को स्वर देती हैं। हिंदी न होती तो क्या बादल सरकार के नाटक, अनंतमूर्ति और बीरेनदा-जैसे ज्ञानपीठ विजेता लेखकों की कृतियां, पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, मलयालम और तमिल की कई-कई कालजयी कृतियों को करोड़ों नए दर्शक पाठक मिल पाते? शायद नहीं।


अहिंदी भाषी लेखकों का कहना थाः लेकिन क्या यह नकारा जा सकता है कि गैर हिंदी इलाके के भारतीयों को हिंदी के जबरिया सरकारी प्रचार और उसके स्कूली पाठ्यक्रमों में लादे जाने से हुई पीड़ा का किसी को अंदाज़ है? दाक्षिणात्य लोगों की तुलना में खुद हिंदी पट्टी के कितने लोग दक्षिणी भाषाएं जानते हैं? क्या हिंदी वालों या बॉलीवुड के लिए औसतन विंध्य के दक्षिणी क्षेत्र का हर आदमी मदरासी नहीं? क्या तमिल संस्कृत से कहीं पुरानी और कहीं बड़ा साहित्य भंडार नहीं रखती? क्या उर्दू से लगातार नागरी लिपि अपनाकर हिंदी में विलीन होने और सेकुलर माने जाने का आग्रह एक अनधिकार चेष्टा नहीं?

सच कहूं तो इन तीखे सवालों को सिरे से खारिज करना सही नहीं था। नैतिक तौर से भी और लोकतांत्रिकता के तहत भी। बीरेनदा का यह कहना भी असत्य नहीं था कि लगातार दिल्ली की शह पाकर बांग्लाभाषी, या बिहारी कामगारों तथा शरणार्थियों के आकर असम में बसते जाने से उनकी क्षेत्रीय संस्कृति और भाषा अल्पसंख्यकों के दर्जे की तरफ लुढकती जा रही हैं। जैसे-तैसे दो सप्ताह बीते लेकिन बोरियत का कोई क्षण नहीं रहा। इन संवेदनशील लेखकों की मार्फत मेरी निजी संवेदना का दायरा बहुत बढ़ गया और उस यात्रा की स्मृतियों की डोर से बंधे हम लोग आजीवन मित्र बने। पर राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे सघन वार्तालाप कहां संभव हैं जो मनोमालिन्य मिटा दें? यही नहीं, जब तक हम वापस रवाना हुए, हमें अपनी अनेकता में एकता साफ महसूस होने लगी थी।


होटल की कसकर बंद लॉबी से बाहर लहूलुहान छात्रों की भीड़ को निर्ममता से धकेले जाते देखकर अनंतमूर्ति ने क्रौंचवध से विचलित वाल्मीकि की तरह हमसे और खुद से पूछा: ‘ऐसे तानाशाह शासन, ऐसी लीडरशिप के लिए क्या विशेषण इस्तेमाल करें?’ अचानक हम सबके मुख से एक ही शब्द फूटा, ‘राक्षस’ (यह बात और है कि अपने बीरेनदा उसे राक्खोस कहते रहे!)। हमारे शब्दों में हमारे देश की कालातीत करुणा मानो एक साथ बोल रही थी। उस क्षण मुझे लगा कि राजनेता अपने स्वार्थों के लिए भाषा के सवाल को चाहे जितनी निर्ममता और चतुराई से हांकें, हमारी तमाम भाषाओं के लेखकों-कलाकारों के बीच एक अंत: सलिला की तरह हमारी समग्र संस्कृति की इस धारा को वे अवरुद्ध नहीं कर सकते। मन में तब उठी यह बात अब तलक कई मौकों पर मन को मथती आ रही है।

गत 22 अगस्त को आयुष मंत्रालय के सचिव द्वारा कथित तौर से अहिंदी भाषियों को मीटिंग छोड़ने का आदेश देने की खबर पढ़ी। मंत्रालय की एक ऑनलाइन मीटिंग के दौरान कुछ तमिल भागीदारों द्वारा हिंदी में की जा रही कार्रवाई के दौरान आपत्ति व्यक्त कर बातचीत अंग्रेजी में करने की मांग की गई। उनके अनुसार, सुनवाई की बजाय उनको सीधे कह दिया गया कि वे हिंदी नहीं जानते तो बाहर जा सकते हैं।

इस बात पर आजादी के बाद से हिंदी ‘थोपने के खिलाफ’ एक खदकते लावे की तरह देश के अहिंदीभाषी राज्यों में भीतर ही भीतर उफनाता गुस्से का प्रवाह भलभला कर बाहर आना शुरू हो गया। हमेशा की तरह यह होते ही राजनीति ने इसे भुनाना शुरू कर दिया। विपक्षी द्रमुक की नेत्री सांसद कनिमोझी ने ट्विटर पर हिंदी के औपनिवेशिक मंसूबों का आरोप जड़कर कटु प्रतिक्रिया दी, तो मंत्रालय और भाजपा से जुड़े तमाम हिंदी के पक्षधर भी मैदान में उतर पड़े। होते-होते गोष्ठी का मूल विषय- राज्यों में योग के शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था, तो ताख पर धरा रहा और हिंदी-हिंदू- हिंदुस्तान का पुराना बवंडर क्षितिज पर छा गया। दक्षिण भारत से मांग उठने लगी कि दाक्षिणात्यों का अपमान करने वाले सचिव को तुरत निलंबित किया जाए।

1968 में भारत सरकार ने राज्यों से लंबी उदारमना बातचीत के बाद शिक्षा माध्यम और भारत की एकसूत्रता के लिए एक ईमानदार त्रिसूत्री फार्मूला बनाया था। इसके तहत प्राइमरी स्तर तक क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा दी जानी थी और मिडिल स्कूल से उसके साथ-साथ हर छात्र को अंग्रेजी और एक अपने क्षेत्र से बाहर की भारतीय भाषा सीखना अनिवार्य बनाया गया था। नीयत यह थी कि शिक्षण संस्थानों में बेल्जियम या स्विट्ज़रलैंड- जैसे बहुभाषा भाषी देशों की तरह छात्रों को एकाधिक भाषाएं सीखने को मिलें। उत्तर के छात्र दक्षिण की भाषाओं से परिचित हों और दक्षिण उत्तर की भाषा से। दक्षिणी राज्यों को लगा कि किसी राज्य की भाषा के साथ चतुराई से संस्कृत का विकल्प डालकर हिंदी पट्टी ने उत्तर की हिंदी या अन्य कोई भाषा सीखने को राजी दक्षिण के साथ विश्वासघात किया है। बात इतनी बिगड़ी कि तेलुगु के सवाल पर पोत्तिरामुलु ने आत्मदाह कर लिया। तय अंत में यही हुआ कि जब तक दक्षिण के राज्य औपचारिक स्वीकृति न दें, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का सवाल इकतरफा तय नहीं किया जाएगा।

इस सबके बाद जाने किस जिद के तहत हर बरस सितंबर में राजकीय हिंदी दिवस मनाया जाना चालू रहा जिसकी सालों तक दक्षिण भारत में वार्षिक परिणति हिंदी बोर्डों पर तारकोल पोतने और हिंदी फिल्मों के पोस्टर जलाने के रूप में होती रही। जयललिता के समय हुई तरक्की और शेष दाक्षिणात्य राज्यों के सुथरे विकास ने मनोमालिन्य काफी हद तक कम कर दिया था, पर तभी भाजपा बहुमत से आई और हिंदी पट्टी में अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए उसकी खुली हिंदीपरस्त योजनाओं ने भाषा का माहौल फिर गर्मा दिया।

आज भाजपानीत एनडीए ने उत्तर भारत में राजनीतिक विमर्श की भाषा को लगभग पूरी तरह से हिंदीमय बना दिया है। अंग्रेजी चैनलों में भी दलीय प्रवक्ता अब अंग्रेजी से शुरू कर तुरत हिंदी पर उतर आते हैं। कर्नाटक फतह के बाद दक्षिण भारत के सभी सार्वजनिक स्थलों पर अंग्रेजी तथा लोकल भाषा के नामपट्टों में हिंदी का अनिवार्य प्रयोग धुकाया जाने लगा है। पर मजे की बात यह कि इसी के साथ शिक्षा के निजीकरण की बाढ़ को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है जबकि सबको पता है कि इसका मतलब है अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा। चूंकि भली नौकरियों से लेकर शादी के रिश्तों तक की राह अब अंग्रेजी पकड़कर ही तय की जा सकती है, हिंदी पट्टी के मध्यवर्गीय अभिभावक भी पेट काटकर बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं। कॉलेज तक पहुंचते-पहुंचते छात्र तीन तो दूर, दो भाषाएं भी नहीं लिख-पढ़ सकते। खुद नेतृत्व भी घरेलू चुनावों में हिंदी को प्रधानता देकर क्षेत्रीय चुनावों के लिए कुछेक चुनिंदा इलाकाई भाषा के वाक्य बोल रहा है और विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय बैंकों से बातचीत तो पूरी तरह अंग्रेजी से ही चलाई जा रही है।

स्व.अरुणा आसफ अली ने एक बार मुझे एक मजेदार कहानी सुनाई थी। आजादी से ठीक पहले दिल्ली में भारतीय महिला कांग्रेस की मीटिंग चल रही थी। भारत के सभी राज्यों से आईं पढी-लिखी कई कम उम्र माताएं भी इसमें शामिल थीं। उनके साथ आए उनके बच्चे मीटिंग के दौरान पीछे के किसी कमरे में परिचारिकाओं की देखभाल में बिठा दिए गए थे। राष्ट्रभाषा का सवाल उठते ही महिलाओं के बीच भी तलवारें खिंच गईं। गहमागहमी इतनी बढ़ी कि शोर मच गया। तभी भीतर से एक परिचारिका भागती हुई आई और बोली, मेमसाब जी किसी का एक बच्चा हल्ला सुनकर जोर से रोने लगा है। संभल ही नहीं रहा है। उसकी मां को आना होगा। अब महिलाएं परस्पर मुंह देखने लगीं। तभी अध्यक्षा सरोजिनी नायडू ने मुस्कुरा कर कहा, ‘अब बच्चा तो किसी का भी हो सकता है बहन, सो जरा जाकर देख आओ कि बच्चा हिंदी में रो रहा है कि अंग्रेजी में?’

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia


/* */