घटता पोषण, बढ़ती कैलोरी, तापमान वृद्धि के गंभीर परिणाम, भारत सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में

वैज्ञानिकों के अनुसार भूख और कुपोषण की समस्या तापमान वृद्धि के प्रभाव से बढ़ती जा रही है और भारत उन देशों में शामिल है जहां इसके घातक प्रभाव सबसे अधिक पड़ेंगे।

घटता पोषण, बढ़ती कैलोरी, तापमान वृद्धि के गंभीर परिणाम, भारत सबसे ज्यादा प्रभावित देशों में
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महेन्द्र पांडे

जब जनता से जुड़ी कोई भी समस्या गंभीर स्वरुप धारण कर लेती है और सत्ता इसे अनदेखा करती रहती है तब जनता का ध्यान भटकाने के लिए एक दूसरी समस्या खड़ी कर देती है। हमारे देश में भूख और कुपोषण की समस्या जब विस्फोटक स्थिति तक पहुंच गयी तब सत्ता ने ओबेसिटी यानि मोटापे को सबसे गंभीर समस्या बताना शुरू कर दिया है, इसे महामारी की तरह पेश करने लगी है। इस बीच में भूख और कुपोषण की समस्या लगातार गंभीर होती जा रही है, दुनिया में भूख और कुपोषण के संबंध में सबसे बड़ी आबादी भारत में ही बसती है और सत्ता बड़ी अर्थव्यवस्था और विकसित भारत का नारा बुलंद करने में तल्लीन है। वैज्ञानिकों के अनुसार भूख और कुपोषण की समस्या तापमान वृद्धि के प्रभाव से बढ़ती जा रही है और भारत उन देशों में शामिल है जहां इसके घातक प्रभाव सबसे अधिक पड़ेंगे।

वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों, विशेष तौर पर कार्बन डाइऑक्साइड, की बढ़ती सांद्रता जलवायु और तापमान पर लगातार प्रभाव डाल रही है। एक दशक पहले तक वैज्ञानिक इसके भयानक प्रभावों का अनुमान लगा रहे थे, पर अब यह प्रभाव हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन गए हैं।कुछ प्रभाव ऐसे भी हैं जो वैज्ञानिक आकलन का हिस्सा नहीं रहे हैं पर नये प्रभाव अब सामने आ रहे हैं। ऐसा ही एक प्रभाव वैज्ञानिकों ने हाल में ही बताया है- हमारे भोजन में कैलोरी बढ़ रही है पर पोषण कम हो रहा है, भोजन में हानिकारक पदार्थों की मात्रा बढ़ रही है और पोषक पदार्थों का संतुलन बिगड़ रहा है। अब तक यही माना जाता था कि बढ़ते तापमान से कृषि उत्पादन कम होगा पर अब तो पोषण पर भी इसका प्रभाव सामने आने लगा है।

इस अध्ययन को नीदरलैंड की लेडन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने किये हैं और इसे ग्लोबल चेंज बायोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित किया है। इस अध्ययन के लिए पहले किये गए ऐसे अनेक अध्ययनों का आकलन किया गया जो वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता का वनस्पतियों, विशेष तौर पर अनाजों पर, प्रभाव बताते हों। अधिकतर अध्ययनों के अनुसार कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता से अनाजों का उत्पादन बढ़ता है पर उनमें पोषक तत्वों की, विशेष तौर पर जिंक की, सांद्रता कम हो जाती है। दूसरी तरफ हानिकारक लीड की सांद्रता बढ़ जाती है। यह असर हरेक फसल में अलग रहता है। जिंक पोषण का आवश्यक अवयव है- शरीर के 100 से अधिक एंजाइम के लिए यह आवश्यक है।

ऐसे अध्ययनों के परिणामों की एक-दुसरे से तुलना कठिन है क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड की वायुमंडल में सांद्रता साल-दर-साल बढ़ती जा रही है, और अधिकतर अध्ययन छोटे पैमाने पर किये गए हैं। पूर्व-औद्योगिक काल में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता 350 पीपीएम थी, वर्ष 2024 के अंत तक यह 425.2 पीपीएम तक पहुंच गई और अनुमान है कि वर्ष 2065 तक सांद्रता 550 पीपीएम तक पहुंच जाएगी। इस वृहद अध्ययन के लिए 43 फसलों के 32 पोषक पदार्थों पर 60000 से अधिक प्रयोग किये गए हैं।


कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता के कारण पोषक पदार्थों में औसतन 3.2 प्रतिशत की कमी आ चुकी है, पर फसलों और विभिन्न पोषक तत्वों में यह कमी अलग-अलग है। चने में जिंक की सांद्रता में 37.5 प्रतिशत की कमी आ गयी है, प्रोटीन और आयरन में भी सामान्य से अधिक कमी देखी गयी है। इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि पोषण के बारे में हमें नए सिरे से सोचने की जरूरत है क्योंकि पोषण का आकलन अब केवल कैलोरी से नहीं किया जा सकता है- केवल कैलोरी के आकलन से कुपोषण बढ़ सकता है।

हमारे देश में कुपोषण की स्थिति इतनी भयावह है कि अब तो सरकारी आंकड़े भी इसे छुपा नहीं पाते हैं। जुलाई 2025 में राज्यसभा में महिला और बाल कल्याण राज्य मंत्री सावित्री ठाकुर ने बताया था कि 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में से 37 प्रतिशत की ऊंचाई अपनी उम्र के हिसाब से कम है, 16 प्रतिशत में उम्र के हिसाब से वजन कम है जबकि 5.46 प्रतिशत बच्चों में ऊंचाई के अनुसार वजन कम है। इसका सबसे बड़ा कारण कुपोषण है। कुपोषण के कारण गर्भावस्था में शिशु मृत्यु दर प्रति हजार गर्भधारण में 19 है और 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर 30 प्रति हजार है। प्रधानमंत्री मोदी के विकसित भारत की संकल्पना में ऐसे आंकड़े उनके झूठे वादों की पोल खोलने के लिए काफी हैं।

वर्ष 2023 में संयुक्त राष्ट्र के वैशिक मरुभुमिकरण अधिवेशन में भी यह कहा गया था कि पेरिस समझौते के तहत 1.5 डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि भी वैश्विक स्तर पर भूख और कुपोषण के विरुद्ध युद्ध को बड़े पैमाने पर पटरी से उतार सकती है। जलवायु परिवर्तन, तापमान वृद्धि, पानी की कमी और कृषि के आधुनिक तरीके- सभी कृषि उत्पादकता को प्रभावित कर रहे हैं।कृषि के अभूतपूर्व विस्तार के बाद भी भूखे लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। जलवायु परिवर्तन को एक महामारी मानकर उससे निपटने की योजना बनाने की जरूरत है। भूमि का विनाश बढ़ता जा रहा है और सूखे की तीव्रता और दायरा भी बढ़ रहा है।

नेचर रीव्यू अर्थ एंड एनवायरनमेंट नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बढ़ते तापमान से कृषि के सन्दर्भ में हानिकारक कीटों का दायरा और प्रहार बढ़ता जा रहा है। बढ़ते तापमान के कारण कीट तेजी से विकसित हो रहे हैं, हरेक वर्ष उनकी प्रजनन दर बढ़ती जा रही है और सर्दी का समय कम होने के कारण उनके सक्रिय रहने की अवधि बढ़ रही है। अनुमान है कि तापमान वृद्धि के 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने की दशा में गेहूं के उत्पादन में 46 प्रतिशत, चावल में 19 प्रतिशत और मक्के में 31 प्रतिशत तक की कमी आ जायेगी।


तापमान बढ़ने के कारण कीटों का भौगोलिक दायरा तेजी से बढ़ रहा है और जंगलों को काटकर उनपर खेती से नए कीट भी प्रभावी हो रहे हैं। वर्तमान में भी वैश्विक स्तर पर कुल कृषि उत्पादन का 40 प्रतिशत हिस्सा कीटों द्वारा बर्बाद किया जाता है। हरेक 1 डिग्री तापमान वृद्धि के कारण गेहूं, चावल और मक्के जैसी फसलों की उत्पादकता में 6 से 10  प्रतिशत तक कमी का अनुमान है।

पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिक लगातार खाद्यानों के संकट का अंदेशा जता रहे हैं, पर तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने की सार्थक पहल कहीं नजर नहीं आ रही है। कृषि के क्षेत्र में तापमान वृद्धि के नाम पर पूंजीपतियों का कब्जा हो गया है और जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा जा रहा है। दुनिया में गरीबी बढ़ती जा रही है और साथ ही भूखे और कुपोषित लोगों की संख्या भी।

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