बिहार चुनाव के हैरान कर देने वाले नतीजों के निहितार्थ / दीपांकर भट्टाचार्य
असामान्य रूप से उच्च बहुमत वाली सरकारें अक्सर बहुत तेजी से बिखर जाती हैं। लेकिन बिहार में अपनी सरकार बरकरार रखने के बाद संघ-बीजेपी का गठजोड़ अब अपनी नजरें असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल पर लगाएगा जहां मई 2026 तक चुनाव होने हैं।

आम उम्मीदों और अधिकांश एग्जिट पोल्स के अनुमानों के उलट, बिहार चुनाव के नतीजे महाराष्ट्र जैसे ही चौंकाने वाले रहे हैं। एक स्तर पर, यह 2010 के विधानसभा चुनाव नतीजों की को दोहराने वाले लगते हैं, जब नीतीश कुमार के एनडीए ने 243 सदस्यीय विधानसभा में अविश्वसनीय रूप से 206 सीटें जीती थीं। तब मुख्य विपक्षी दल आरजेडी सिर्फ 22 सीटों पर सिमट गया था। लेकिन वह तब की बात है जब नीतीश कुमार अपने चरम पर थे और दिल्ली में मोदी युग अभी शुरू नहीं हुआ था। 10 साल बाद 2020 के चुनाव में सरकार बाल-बाल बची थी। 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के भी अपना स्वतंत्र बहुमत गंवाने के बाद एकजुट विपक्ष के सिर्फ 35 सीटों पर सिमटने के साथ 2010 के नतीजों की पुनरावृत्ति बेहद अस्वाभाविक ही कही जा सकती है।
इस नतीजे को दो अभूतपूर्व सरकारी हस्तक्षेपों की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए जो लगातार कमजोर और अलोकप्रिय होती जा रही सरकार की घटती चुनावी संभावनाओं को मजबूत करने के लिए किए गए थे। मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) अभियान चलाया गया जिसमें लगभग 69 लाख मतदाताओं के नाम काटे गए और 25 लाख से ज्यादा नए मतदाता शामिल किए गए; साथ ही 3 लाख से ज्यादा मतदाता एसआईआर पूरा होने और चुनावों की घोषणा के बाद रहस्यमय तरीके से जोड़े गए।
इस तरह राज्य में चुनावी संतुलन को पूरी तरह बदल दिया गया। एसआईआर में मतदाताओं को हटाने और नए मतदाता जोड़ने से हुए बदलाव अधिकतर निर्वाचन क्षेत्रों में 2020 में विपक्ष की बढ़त से कहीं अधिक थे। एसआईआर के बाद नाम जोड़े जाने की वजह से लगभग एक दर्जन सीमांत निर्वाचन क्षेत्रों में संतुलन और बिगड़ गया।
एसआईआर ने न केवल वोट, बल्कि नागरिकता और विभिन्न संबद्ध अधिकारों तथा लाभों के खोने की व्यापक चिंता और भय को भी जन्म दिया। बिहार ने अपने चुनावी इतिहास में इस बार सर्वाधिक मतदान देखा जिसमें बाहर रहने वाले मतदाताओं के संगठित तौर पर आने (उदाहरण के लिए, एनडीए समर्थक मतदाताओं को बिहार लाने के लिए विशेष ट्रेनों की व्यवस्था) से मदद मिली। प्रशासन ने भी अपने खुले पूर्वाग्रह के साथ व्यापक रूप से संगठित तौर पर हुए सरकार-समर्थक गलत मतदान को अनुमति दी। अतिरिक्त वोट- चाहे कृत्रिम हों या स्वाभाविक- ने एनडीए के वोट शेयर को बढ़ा दिया और असंगत ‘पहले आओ पहले पाओ’ प्रणाली (फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम) ने इसे अनुपातहीन रूप से बड़ी सीटों की संख्या में बदल दिया। नतीजतन, सत्तारूढ़ गठबंधन को अविश्वसनीय 202 सीटें मिली हैं जिसने अधिकांश एग्जिट पोल को भी शर्मसार कर दिया।
दूसरा सरकारी हस्तक्षेप चुनावों की पूर्व संध्या पर और चुनावों के दौरान भी, अभूतपूर्व मात्रा में प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण के रूप में सामने आया। एक निर्दयी, निष्क्रिय सरकार के खिलाफ लोगों के बढ़ते गुस्से को कम करने के लिए तीन विशेष उपाय किए गएः वृद्धावस्था और विकलांगता पेंशन 400 रुपये से बढ़ाकर 1,100 रुपये प्रति माह कर दिया गया; प्रति माह 125 यूनिट तक बिजली का मुफ्त वितरण किया जाने लगा; और सबसे महत्वपूर्ण, जीविका के नाम से जाने जाने वाले ग्रामीण आजीविका मिशन द्वारा संचालित स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी लगभग 1.5 करोड़ महिलाओं को 10,000 रुपये एकमुश्त दे दिए गए।
एक नई योजना जिसे हास्यास्पद रूप से मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना नाम दिया गया है (जिसे वास्तव में महिला कर्जदार योजना कहा जाना चाहिए), बिहार में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से कुछ दिन पहले ही शुरू की गई और चुनाव के दौरान भी इसके तहत पैसों का वितरण जारी रहा। एक इंटरव्यू में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने आने वाले दिनों में संभावित रूप से बड़े कर्ज के लिए 10,000 रुपये दिए जाने को बीज धन बताया था। यह जानते हुए कि बिहार में महिलाएं जबरन माइक्रोफाइनेंस ऋण वसूली अभियान से नाराज हैं, परेशान नीतीश कुमार ने स्पष्ट किया कि 10,000 रुपये की किस्त ऋण नहीं है और इसे वापस नहीं करना होगा- यह सुनिश्चित करने के लिए कि पैसे दिए जाने से वास्तव में वोट मिलें और चुनावी फसल को सही ढंग से काटा जाए। इसे कैसे सुनिश्चित किया गया, इसे भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव के बाद जारी प्रेस नोट में इस उल्लेख से समझा जा सकता है कि 1,80,000 जीविका ‘स्वयंसेवकों’ को चुनाव ड्यूटी में तैनात किया गया था।
तीसरा बड़ा संकेत, जिस पर मीडिया का ध्यान कम गया, वह था पीरपैंती अडानी बिजली सौदे की घोषणा। इसके तहत अडानी को मात्र 1 रुपया के सांकेतिक वार्षिक पट्टे मूल्य पर 1,050 एकड़ जमीन मिली और 6 रुपये प्रति यूनिट से ज्यादा की दर पर बिजली खरीदने का आश्वासन भी मिला। मोदी सरकार के पूर्व ऊर्जा मंत्री और आरा से दो बार के भाजपा सांसद आरके सिंह ने 620 रुपये अरब के घोटाले का आरोप लगाया और सीबीआई जांच की मांग की, लेकिन उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। ध्यान रहे कि चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी कॉरपोरेट दानदाताओं और राजनीतिक प्राप्तकर्ताओं के बीच लेन-देन का मुद्दा उठाया था।
तो फिर पीरपैंती सौदे के बदले बिहार चुनाव में अडानी समूह की क्या भूमिका रही है? प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी के नेतृत्व में कॉरपोरेट द्वारा वित्तपोषित राजनीतिक अभियान और इन चुनावों में भाजपा तथा उसके सहयोगियों द्वारा धनबल के व्यापक प्रयोग से हमें शायद इसके कुछ संकेत मिले हों। आने वाले दिनों में बिहार को न केवल नए सामंती दबाव और तीव्र सांप्रदायिक घृणा तथा हिंसा से, बल्कि बढ़ती कॉरपोरेट लूट से भी जूझना होगा। बिहार में विकास का विमर्श, जो अब तक नौकरियों, कमाई, सुविधाओं और मेहनतकश लोगों के अधिकारों से कटा हुआ रहा है, बिहार में अडानी की बढ़ती पैठ के साथ और भी बुनियादी ढांचे पर केन्द्रित हो जाएगा।
कई मायनों में, 2025 के बिहार के नतीजे नवंबर 2024 में महाराष्ट्र चुनाव के पैटर्न और पैमाने के ही रहे हैं। महाराष्ट्र में एमवीए 288 में से 50 सीटों पर सिमट गई। बिहार के 243 सदस्यीय सदन में ‘इंडिया’ गठबंधन के पास केवल 35 सीटें हैं। मतदाता सूची अद्यतन करने की प्रक्रिया को व्यवस्थित देशव्यापी चुनावी सफाई अभियान के रूप में हथियार बनाया गया है। चुनावी इंजीनियरिंग के नकद हस्तांतरण के हथकंडे को अगले स्तर पर ले जाया गया है। बिहार में जन सुराज पार्टी के रूप में सत्ता-विरोधी जनाक्रोश को एकजुट होने से रोकने के लिए कॉरपोरेट-वित्त पोषित अति-प्रचारित प्रयास के तौर पर भी देखा गया, जो अंततः बुरी तरह विफल रहा, लेकिन यह चुनाव से पहले मीडिया में छाया रहा।
चुनाव मैदान में मुसलमानों का कम प्रतिनिधित्व और प्रस्तावित उपमुख्यमंत्री के रूप में किसी भी मुस्लिम नाम की घोषणा न होने से मुस्लिम राय काफी हद तक परेशान हो गई और एआईएमआईएम एक बार फिर मुस्लिम राजनीति का प्रमुख केन्द्र बनकर उभरी। उसने 2020 में जीती सभी पांच सीटें जीत लीं। लेकिन एनडीए की भारी जीत का मतलब स्पष्ट रूप से विधानसभा में अब तक का सबसे कम मुस्लिम प्रतिनिधित्व है जो निवर्तमान सदन में 19 से घटकर अब 11 हो गया है। 2010 में जब एनडीए के पास 206 सीटें थीं, तब जेडी(यू) के सात मुस्लिम विधायक थे और यहां तक कि भाजपा के पास भी एक था। लेकिन
इस बार एनडीए में जेडी(यू) का एकमात्र मुस्लिम विधायक है, जबकि शेष 10 मुस्लिम विधायक एआईएमआईएम, आरजेडी और कांग्रेस से आते हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है कि भाजपा की 101 उम्मीदवारों की सूची में 16 प्रतिशत मुस्लिम आबादी से एक भी नाम नहीं था, जबकि 10.7 प्रतिशत हिन्दू उच्च जाति की आबादी से 49 प्रतिनिधि थे। एक अन्य खास उलटफेर यह हुआ है कि एनडीए खेमे में अब उच्च/सामान्य जाति के विधायकों (69) की संख्या ओबीसी विधायकों (66) से अधिक है।
सीपीआई (एमएल) ने इन चुनावों में बीस सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन पांच साल पहले जीती गई 12 सीटों के मुकाबले वह केवल दो सीटें ही जीत सकी, हालांकि पार्टी का वोट शेयर मामूली रूप से गिरा। पार्टी ने तीन हजार से भी कम वोटों के मामूली अंतर से चार सीटें गंवा दीं, जिनमें से एक पर केवल 95 वोटों से हार हुई। पार्टी और ‘इंडिया’ गठबंधन को निश्चित रूप से परिणामों की बारीकी से समीक्षा करनी होगी, आवश्यक सबक सीखने होंगे और सुधारात्मक उपाय करने होंगे।
नीतीश कुमार सरकार के पांचवें कार्यकाल में भाजपा का दबदबा पहले से कहीं ज्यादा रहने वाला है और संघ ब्रिगेड ने बिहार को बुलडोजर राज की प्रयोगशाला बनाने की अपनी योजना को किसी से छुपाया नहीं है। असामान्य रूप से उच्च बहुमत वाली सरकारें अक्सर बहुत तेजी से बिखर जाती हैं। लेकिन बिहार में अपनी सरकार बरकरार रखने के बाद संघ-भाजपा प्रतिष्ठान अब अपनी नजरें असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरला पर लगाएगा जहां मई 2026 तक चुनाव होने हैं। उसकी निगाह उत्तर प्रदेश पर भी रहेगी जहां फरवरी 2027 तक चुनाव होने हैं।
(सीपीआई (माले) लिब्रेशन के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य की की फेसबुक पोस्ट से साभार)
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia