कोरोना की दस्तक: बच्चों के वैक्सीनेशन के फैसले में देरी कहीं साबित न हो खतरनाक

बच्चों के टीके और बूस्टर डोज पर कोई फैसला नहीं हुआ है। बताया गया कि बूस्टर की जरूरत और मूल्य का पता लगाने के लिए अध्ययन की आवश्यकता है। भारत में स्कूल खुल गए हैं। ऐसे में बच्चों के टीके को लेकर भी फैसला होना चाहिए। इसमें देरी खतरनाक साबित हो सकती है।

प्रतीकात्मक फोटो
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प्रमोद जोशी

कोविड महामारी की एक और लहर के साथ यूरोप के देश प्रतिबंधों और टीकाकरण के खिलाफ आंदोलनों की लहर का सामना भी कर रहे हैं। दक्षिण अफ्रीका में कोरोना की चौथी लहर चल रही है। वैसे, तमाम नकारात्मक खबरों के बावजूद विशेषज्ञों को भरोसा है कि अगले साल महामारी पर नियंत्रण पाना संभव है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य विशेषज्ञ मारिया वान करखोव ने भी हाल में पत्रकारों से कहा था, महामारी को रोकने के औजार हमारे ही हाथों में हैं। जरूरत है कि 2022 में हम ऐसे पड़ाव पर पहुंचें जहां से कह सकें कि संक्रमण पर नियंत्रण पा लिया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि अब तक हम ऐसा कर भी सकते थे, पर कर नहीं पाए।

सवाल है कि क्यों नहीं कर पाए? टीकों को बाजार में आए एक साल हो चुका है और अभी तक दुनिया भर में करीब 8.18 अरब खुराकें दी जा सकी हैं। अगले साल जून तक करीब 24 अरब खुराकें बन कर तैयार होने की संभावना है। इतना दुनिया की पूरी आबादी के लिए काफी है। लेकिन गरीब देशों में टीकों की भारी कमी और अमीर देशों में टीके के विरोध की वजह से कई जगह हालत खराब हैं।

ऊंची आय वाले देशों में करीब 65 प्रतिशत लोगों को और कम आय वाले देशों में सात प्रतिशत को टीके की कम-से-कम एक खुराक मिली है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस असंतुलन को अनैतिक और अत्याचार बताया है। कुछ जगहों पर कोरोना बगैर रोक-टोक के फैल रहा है जिसके कारण नए और पहले से ज्यादा खतरनाक वेरिएंटों के उभरने का खतरा बढ़ गया है।

यूरोप में कड़े कदम

विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड पूरी तरह से गायब तो नहीं होगा लेकिन यह नियंत्रित एंडेमिक या स्थानिक रोग बन जाएगा जिसके साथ हम फ्लू की तरह रहना सीख लेंगे। पर यह तभी होगा, जब दुनिया के ज्यादातर इलाकों से इसका सफाया होगा। जर्मन चांसलर अंगेला मर्केल ने टीका नहीं लगवाने वाले लोगों के लिए लॉकडाउन की घोषणा की है। बिना टीके वाले लोग सार्वजनिक स्थानों पर नहीं जा सकेंगे। यहां तक कि जरूरी सामान की खरीद भी नहीं कर पाएंगे। अंगेला मर्केल ने कार्यकाल पूरा होने पर पद छोड़ने से पहले यह घोषणा की। अब नए चांसलर ओलाफ शॉल्त्स को समस्या का सामना करना है। जर्मनी में आगामी फरवरी से सभी पात्र लोगों के लिए वैक्सीन को अनिवार्य कर दिया गया है।

जर्मनी के पड़ोसी देश ऑस्ट्रिया में भी फरवरी से अनिवार्य टीकाकरण की योजना है। ग्रीस ने घोषणा की है कि जनवरी के मध्य से 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों के लिए टीके अनिवार्य होंगे। इनकार करने वालों को हर महीने 100 यूरो का जुर्माना भरना होगा। यूरोपीय यूनियन के देशों के लिए टीके की सप्लाई की समस्या नहीं है, उसका विरोध ज्यादा बड़ी समस्या है। इस वजह से टीकाकरण की रफ्तार धीमी पड़ गई है।


पॉपुलिस्ट राजनीति

यूरोप में प्रतिबंधों के विरोध ने लोकलुभावन राजनीति की शक्ल ले ली है। खासतौर से मध्य और पूर्वी यूरोप में यह प्रवृत्ति ज्यादा है। बल्गारिया और रोमानिया-जैसे देशों में भी वैक्सीन का भारी विरोध है। यूगव-कैम्ब्रिज ग्लोबलिज्म की नवंबर महीने में हुई एक स्टडी से पता लगा था कि पिछले तीन साल में यूरोप के दस देशों में पॉपुलिस्ट राजनीति कमजोर हुई थी, पर अब लग रहा है कि राजनीतिक दल जनता की नाराजगी का लाभ उठाना चाहते हैं।

विरोध करने वालों में युवाओं की भागीदारी है। इन ज्यादातर देशों में दक्षिणपंथी पार्टियों को लगता है कि विरोध का लाभ उन्हें चुनावों में मिलेगा। वियना की सड़कों पर 40,000 और ब्रसेल्स में 35,000 लोगों ने प्रदर्शन किया। ऐसे ही प्रदर्शन नीदरलैंड्स में हुए हैं। रोटरडैम और हेग में दंगे भी भड़के और दर्जनों गिरफ्तारियां भी हुईं। चेक गणराज्य, स्विट्जरलैंड और जर्मनी में भी रैलियां हुईं हैं। अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी यह काम पहले से कर रही है। पिछले 28 नवंबर को स्विट्जरलैंड की सरकार ने वैक्सीन और कोविड टेस्ट सर्टिफिकेट की आवश्यकता को लेकर एक जनमत संग्रह कराया जिसमें सरकार को विजय मिली, पर इसके खिलाफ 38 प्रतिशत वोट पड़े। स्विट्ज़रलैंड अपेक्षाकृत समृद्ध देश है और वहां की स्वास्थ्य सेवा काफी अच्छी है जिसके कारण कोविड-19 से वहां बहुत कम मौतें हुईं हैं। फिर भी वहां वैक्सीनेशन और कोविड प्रतिबंधों का विरोध हो रहा है।

वैक्सीनेशन का विरोध एक तरफ, दूसरी तरफ बूस्टर डोज की मांग भी बढ़ रही है। मेडिकल जरनल ‘लैंसेट’ में गत 2 दिसंबर को प्रकाशित रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, ब्रिटेन में 2,878 लोगों पर हुए एक अध्ययन से पता लगा है कि बूस्टर ने डेल्टा वेरिएंट के जोखिम को कम कर दिया। साउथम्पटन विश्वविद्यालय के सॉल फाउस्ट के नेतृत्व में हुए इस अध्ययन में सात वैक्सीनों का इस्तेमाल किया गया जिनमें से फायज़र- बायोएनटेक और मॉडर्ना की एमआरएनए वैक्सीन के परिणाम सबसे अच्छे पाए गए। ऐसा ही एक अध्ययन इज़रायल में हुआ है जहां 7,28,000 लोगों को बूस्टर दिया गया जिससे अस्पताल में भरती किए जाने की जरूरत 93 फीसदी कम पाई गई। फायज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना अब ओमीक्रोन केंद्रित वैक्सीन तैयार करने में लग गए हैं जो 100 दिन के भीतर आ जाएगी।


बूस्टर डोज की मांग भारत में भी हो रही है। हाल में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने ड्रग रेगुलेटर से बूस्टर डोज के रूप में कोवीशील्ड के लिए मंजूरी मांगी है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कर्मियों के लिए कोविड-19 वैक्सीन के बूस्टर डोज की मांग की है। टीकाकरण पर राष्ट्रीय तकनीकी सलाहकार समूह (एनटीएजीआई) की बैठक में बच्चों के टीके और बूस्टर डोज पर कोई फैसला नहीं हुआ। बताया गया कि बूस्टर का मुद्दा इस बैठक के एजेंडे में नहीं था क्योंकि इसकी आवश्यकता और मूल्य का पता लगाने के लिए अध्ययन की आवश्यकता है। भारत में स्कूल खुल गए हैं। ऐसे में बच्चों के टीके को लेकर भी फैसला होना चाहिए। इसमें देरी खतरनाक साबित हो सकती है।

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