दिल्ली हिंसाः जाफराबाद-मौजपुर में वो हुआ, जिसकी ताक में बैठी थीं फिरकापरस्त ताकतें

शाहीन बाग के आंदोलन को जो लोकप्रियता मिली उससे जहां धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूती मिली, वहीं सांप्रदायिक ताकतों की नींद उड़ गई। ऐसा होना लाजिमी था क्योंकि पहली बार देश की आधी आबादी यानी महिलाएं इस आंदोलन की पहली कतार में दिखीं।

फोटोः बिपिन
फोटोः बिपिन

पिछले ढाई महीने से नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में हर उम्र की महिलाएं विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। इन महिलाओं ने अपने घर के आराम को कुर्बान कर दिया, सख्त सर्दी और बारिश को बरदाश्त किया, पांच सौ रुपए और बिरयानी जैसे बेहूदा आरोप झेले, गोलियां चलाने वालों का मुकाबला किया और कोर्ट द्वारा नियुक्त वार्ताकारों के सामने अपना दुखड़ा रोया।

लेकिन, इन तमाम परेशानियों के बावजूद, उन्होंने अपने विरोध प्रदर्शन को रुकने नहीं दिया और शायद यही वजह थी कि शाहीन बाग देश भर में सीएए के विरोध का मॉडल बन कर उभरा। पूरी दुनिया में शाहीन बाग की तर्ज पर हो रहे विरोध प्रदर्शन की तारीफ हो रही है और उन ताकतों के लिए यह विरोध आंदोलन सर दर्र बन गया, जिनके खिलाफ यह विरोध प्रदर्शन हो रहा है। लेकिन अहंकार और अपने एजेंडे के कारण इन ताकतों ने कभी आंदोलनकारियों से बात करने की कोशिश नहीं की और आंदोलन के खिलाफ एक जिद सी पाले रखी।

शाहीन बाग के आंदोलन को जो लोकप्रियता मिली उससे जहां धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूती हासिल हुई, वहीं सांप्रदायिक ताकतों की नींद उड़ा दी। ऐसा होना लाजिमी था क्योंकि पहली बार देश की आधी आबादी यानी महिलाओं और यहां तक कि ऐसी महिलाएं, जिनके पति ने उन्हें कभी घर से बाहर नहीं जाने दिया, वे भी इस आंदोलन की पहली कतार में दिखीं। शाहीन बाग में धरना देने वाली महिलाएं या तो अल्पसंख्यक तबके से हैं, या दलित हैं या फिर उदारवादी शिक्षित महिलाएं हैं।

जिस समझदारी के साथ इन महिलाओं ने अपनी बात पूरी दुनिया के सामने रखी, उससे सांप्रदायिक ताकतें इतना बौखला गईं कि उन्होंने बेतुके आरोप लगाना शुरु कर दिए। पहले आरोप लगाया कि महिलाएं 500 रुपए में धरना देने आ रही हैं, फिर आरोप लगाया कि बिरयानी के लालच में वहां प्रदर्शनकारी आ रहे हैं। इस सब के बावजूद, शाहीन बाग में बैठी महिला प्रदर्शनकारियों ने धैर्य नहीं खोया और अपना शांतिपूर्ण विरोध जारी रखा। और जब आतंक प्रेमियों ने डराने के लिए गोलियां चलाईं, तब भी वे डिगी नहीं और शांति बरकरार रखी।

शाहीन बाग में धरने पर बैठी महिलाओं ने जब अपने विरोधियों को कोई मौका नहीं दिया, तो यह अल्पसंख्यकों ने विरोधियों को मौका दे दिया। विरोधी तो मौके का इंतजार ही कर रहे थे और उन्होंने फौरन इस मौके का फायदा उठाया और न सिर्फ सीएए विरोधी आंदोलन को बदनाम किया बल्कि पूरी दिल्ली को आग में झोंक दिया।

अल्पसंख्यकों ने विरोधियों को मौका दिया है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में, शाहीन बाग की तर्ज पर प्रदर्शन चल रहे थे जो शांतिपूर्ण भी थे और प्रभावी भी। लेकिन 22 फरवरी की रात को अचानक जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे वाली सड़क पर कोई अल्पसंख्यक महिलाओं को लेकर धरने पर बैठ गया, जिससे सड़क के एक साइड पर यातायात पूरी तरह रुक गया। यह सब कुछ मौजपुर और जाफराबाद के मुट्ठी भर लोगों ने किया था।

शाहीन बाग पर पहले ही यह आरोप लग रहा है कि उन्होंने सड़क बंद कर दी है, जिसके चलते लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। इसके बाद नई दुश्वारी सामने आ गई। सुबह होने पर चांद बाग की भी एक सड़क को बंद कर दिया गया। इन दो रास्तों के बंद होने से शाहीन बाग में सीएए विरोधी आंदोलन का विरोध करने वालों को अपनी आवाज उठाने का मौका मिल गया। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि शाहीन बाग प्रदर्शन में शामिल लोग शिक्षित हैं और उत्तर-पूर्वी दिल्ली के इन इलाकों की आबादी लगभग शिक्षा से दूर।

जैसे ही यह खबर फैली कि उत्तर पूर्वी दिल्ली में दो और सड़कें बंद हो गई हैं, बीजेपी नेता कपिल मिश्रा ने मैदान में कदम रखा और पुलिस और प्रदर्शनकारियों को अल्टीमेटम देना शुरू कर दिया। कपिल मिश्रा के अल्टीमेटम के बाद, माहौल इतना गर्म हो गया कि कई हिस्सों में देखते ही देखते हिंसा भड़क उठी और पूरे मामले ने सांप्रदायिक रंग ले लिया। और, न जाने कब से साथ-साथ रहने वाले लोग अचानक से हिंदू और मुसलमान बन गए। हिंसा के दौरान कई लोगों की जान चली गई, बेशुमार जख्मी हो गए, और दर्जनों दुकानों और मकानों को आग लगा दी गई।

दिल्ली में हुई इस हिंसा के बाद, शाहीन बाग के आंदोलन की चमक फीकी पड़ गई है। संविधान के लिए हो रही लड़ाई एक सांप्रदायिक युद्ध में बदल गई है। आखिर इस सब के लिए जिम्मेदार कौन है? हम में से लाखों लोग कहते हैं कि कपिल मिश्रा और केंद्र की बीजेपी सरकार इस हिंसा के लिए जिम्मेदार है, लेकिन उन्हें यह मौका किसने दिया?

तथ्य यह है कि अल्पसंख्यकों ने खुद इसे एक मौका दिया और मुख्य कारण यह था कि कोई भी प्रदर्शन का नेतृत्व किसी एक हाथ में नहीं था। जिसको समझ आ रहा था वह अपने तौर पर कहीं भी प्रदर्शन शुरु कर रहा था। जबकि शाहीन बाग के आंदोलन को सेक्युलर रखने और लड़ाई को संविधान तक सीमित रखने के लिए कई गंभीर और शिक्षित लोग सामने आए थे।

लेकिन मौजपुर -जाफराबाद में खुद अल्पसंख्यकों ने कपिल मिश्रा एंड कंपनी को यह मौका दिया है और अब ऐसा लगता है कि शाहीन बाग प्रदर्शन और दिल्ली की शांति दोनों पर सवालिया निशान लग गया है।

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