राम पुनियानी का लेखः मांग-आधारित मनरेगा की जगह आवंटन-आधारित जी-राम-जी, बीजेपी का असली चेहरा उजागर
गांधीजी का नाम हटाया जाना भी नई योजना का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिसमें भाषायी कलाबाजी के जरिए राम का नाम ठूंस दिया गया है। यह हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा की करतूत है, जिसने समाज में नफरत फैलाई जिसके कारण हमें (पटेल के अनुसार) राष्ट्रपिता को खोना पड़ा था।

रामजन्मभूमि रथयात्रा के साथ ही बीजेपी की ताकत में इजाफा होना शुरू हुआ। तभी से उसने अपनी छवि 'पार्टी विथ ए डिफरेंस' (एक अलग किस्म की पार्टी) की बनाना शुरू कर दी। धीरे-धीरे पार्टी की चुनावी सफलताओं का ग्राफ बढ़ता गया। मगर कई विचारकों और लेखकों को यह अधिक चिंताजनक नहीं लगा क्योंकि उस समय उन्हें बीजेपी और सत्तारूढ़ कांग्रेस में कोई खास फर्क नजर नहीं आ रहा था।
बीजेपी का असली चेहरा तब सामने आना शुरू हुआ जब वह अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए का प्रमुख दल बनी। वह पहले 13 दिन और फिर 13 महीने के दो छोटे कार्यकालों के लिए सत्ता में आई और उसके बाद उसने लगभग छः साल तक सरकार चलाई, जिसके प्रधानमंत्री वाजपेयी थे। इस दौरान इन लेखकों में कई को यह समझ में आने लगा कि बीजेपी एक ‘अलग तरह' की पार्टी है क्योंकि उस दौर में भी लोकतांत्रिक मूल्यों और मानकों का गला घोंटने का काम शुरू हो गया था।
यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान ऐसी कई योजनाएं लागू की गईं जो ‘अधिकार' की अवधारणा पर आधारित थीं। सूचना, स्वास्थ्य, भोजन और शिक्षा के अधिकार इनमें शामिल थे। संभवतः यह भारतीय लोकतंत्र का सर्वोत्तम समय था जब साधारण और निर्धन नागरिकों के अधिकारों को प्रमुखता मिली। सामाजिक आंदोलनों के खासे दबाव से यह सुनिश्चित हुआ कि सरकार न केवल अपने संवैधानिक कर्तव्यों को पूरा करे और अधिकारों की अवधारणा पर आधारित योजनाएं प्रारंभ करे वरन यह भी सुनिश्चित करे कि वंचित वर्गों का सशक्तिकरण हो।
नरेन्द्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में सांप्रदायिक राजनीति का मुख्य एजेंडा एकदम साफ-साफ़ नजर आने लगा है। राष्ट्रवाद को हिंदू पहचान के इर्द-गिर्द गढ़ा जा रहा है और सत्ता केन्द्र सरकार के हाथों में केन्द्रित होती जा रही है। इससे संघीय राज्य की अवधारणा को चोट पहुंची है। ज्ञातव्य है कि हमारे संविधान का पहला अनुच्छेद कहता है ‘भारत राज्यों का संघ' है। अधिकारों पर आधारित योजनाओं की जगह ऐसी योजनाएं लागू की जा रही हैं जिनसे तानाशाही की बू आती है जिनमें शासन जनता में रेवड़ियां बांटता है। ये योजनाएं ऐसी हैं जिनके प्रावधान विकेन्द्रीकरण की भावना के विपरीत हैं।
आम तौर पर यह माना जाता है कि बीजेपी-आरएसएस केवल मुसलमानों के खिलाफ हैं। सच यह है कि वे समाज के हाशिएग्रस्त और श्रमिक वर्गों के यानि दलितों, मजदूरों, आदिवासियों और विशेषकर महिलाओं के भी खिलाफ हैं। हम देख चुके हैं कि ‘कृषि कानून', जिनका किसानों ने विरोध किया, कितनी हठधर्मिता से लाए गए थे। इन्हें वापिस करवाने के लिए करीब 600 किसानों को अपनी जान गंवानी पड़ी, जिसके बाद इन्हें रद्द किया गया। हाल में हमने नए श्रम कोडों को लागू होते देखा जिनके जरिए श्रमिक वर्ग द्वारा कड़े संघर्ष के बाद हासिल किए गए अधिकारों को छीन लिया गया। और हम अब वही कृषि मजदूरों के मामले में होता देख रहे हैं क्योंकि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को हटाकर वीबी-जी-राम-जी को लागू किया जा रहा है।
केन्द्र सरकार मनरेगा को खत्म कर विकसित भारत-रोजगार एवं आजीविका गारंटी मिशन (ग्रामीण) विधेयक 2025 (वीबी-जी राम जी) लाई है। इसके नाम में अत्यंत चतुराई से अंग्रेजी और हिन्दी/उर्दू के शब्दों का घालमेल कर यह सुनिश्चित किया गया कि इसके नाम के संक्षिप्त रूप में राम शब्द आ सके। भगवान राम बीजेपी की पहचान की राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं जिनके इर्द-गिर्द बीजेपी की बांटने वाली राजनीति को खड़ा किया गया है।
नई योजना के मुख्य प्रावधानों में शामिल हैं रोजगार दिवसों की संख्या 100 से बढ़ाकर 125 करना। यह पहली नजर में मनरेगा के 100 दिनों की तुलना में एक सुधार नजर आता है। किंतु मनरेगा बेरोजगार नागरिक की मांग पर आधारित है। मनरेगा संघर्ष मोर्चा के अनुसार ‘‘मनरेगा ने लोगों को एक वैधानिक अधिकार दिया जो मांग-आधारित और सार्वभौमिक था अर्थात किसी भी व्यक्ति को, जो ग्रामीण क्षेत्र में रहता हो और अकुशल मानव श्रम का कार्य करने को इच्छुक हो, अनिवार्यतः काम उपलब्ध करवाया जाएगा। किंतु वीबी-जी राम जी विधेयक की धारा 5(1) के अनुसार ‘‘राज्य सरकार, केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचित राज्य के उन ग्रामीण क्षेत्रों में, हर परिवार को, जिसके सदस्य अकुशल मानवीय श्रम पर आधारित कार्य करने के इच्छुक हों, 125 दिन के रोजगार की गारंटी देगी''।
इसे पढ़ने पर हकीकत सामने आ जाती है। केन्द्र सरकार उन क्षेत्रों को अधिसूचित करेगी जहां यह अधिनियम लागू होगा। इससे योजना का सार्वभौमिक स्वरूप समाप्त हो जाता है क्योंकि यह प्रावधान योजना को केन्द्र सरकार द्वारा अधिसूचित क्षेत्रों तक सीमित कर देता है। वीबी-जी राम-जी विधेयक की धारा 4(5) में प्रावधान है कि ‘‘केन्द्र सरकार, स्वयं द्वारा निर्धारित वस्तुनिष्ठ मानदंडों के आधार पर प्रत्येक वित्त वर्ष हेतु राज्यवार धनराशि का आवंटन करेगी''। वहीं धारा 4(6) में प्रावधान है कि ‘‘राज्य सरकार द्वारा उसे आवंटित धनराशि के अतिरिक्त यदि कोई व्यय किया जाता है, तो उसका भार राज्य सरकार उस प्रकार से और उस प्रक्रिया द्वारा स्वयं वहन करेगी जैसा केन्द्र सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा''।
इस तरह मनरेगा के लक्ष्य को नई योजना में पूरी तरह तहस-नहस कर दिया गया है क्योंकि मनरेगा की मांग-आधारित कार्यप्रणाली के स्थान पर अब प्रदाय-आधारित प्रणाली लागू की जा रही है। जी-राम-जी योजना में मांग की पूर्ति केवल पूर्व-निर्धारित बजट की सीमा तक ही हो सकेगी।
मनरेगा में 90 फीसदी राशि केन्द्र सरकार देती थी। वहीं जी-राम-जी के अंतर्गत ज्यादातर राज्यों में केन्द्र सरकार केवल 60 प्रतिशत तक की राशि देगी और शेष 40 प्रतिशत की व्यवस्था राज्यों को करनी होगी, जो पहले से ही वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं। राज्य धनराशि की कमी के चलते कई नागरिकों की रोजगार की मांग को पंजीकृत ही नहीं करेंगे।
पहले ग्राम सभाएं स्थानीय स्तर पर कार्ययोजनाएं बनाती थीं। इसके विपरीत जी-राम-जी में इसे पूरी तरह पलटते हुए अधिनियम की अनुसूची 1 की उपधारा 6(4) में कहा गया है कि ‘‘विकसित भारत राष्ट्रीय अधोसंरचना के प्रावधानों के अनुसार राज्य, जिला एवं पंचायती राज संस्थाएं अधोसंरचना परियोजनाओं की प्राथमिकता तय करेंगीं, कार्ययोजनाओं की डिजाइनों का मानकीकरण करेंगीं और यह सुनिश्चित करेंगीं कि सार्वजनिक निवेश से ग्राम पंचायत, ब्लाक और जिला स्तरों पर सभी मूलभूत सेवाओं की पूर्ण उपलब्धता हो।" यह पंचायती राज की अवधारणा पर गंभीर प्रहार है जिसे अब तक लोकतांत्रिक बदलावों के उद्धेश्य से बनाया एवं लागू किया गया था।
वीबी-जी राम जी विधेयक की धारा 6(2) में कहा गया है कि ‘‘राज्य सरकारें हर वित्तीय वर्ष के प्रारंभ होने के पूर्व वर्ष के उन 60 दिवसों की कुल अवधि को अधिसूचित करेंगीं, जो फसलों की बुआई और कटाई का व्यस्ततम समय होगा जिसके दौरान इस अधिनियम के अंतर्गत कार्य बंद रहेंगे''। यह मनरेगा के प्रावधानों के एकदम विपरीत है।
गांधीजी का नाम हटाया जाना भी नई योजना का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिसमें भाषायी कलाबाजी के जरिए राम का नाम ठूंस दिया गया है। यह हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा की करतूत है, जिसने समाज में नफरत फैलाई जिसके कारण हमें (सरदार पटेल के अनुसार) राष्ट्रपिता को खोना पड़ा था। गांधी एक ऐसी वैश्विक हस्ती हैं जिन्हें नजरअंदाज करना असंभव है। इसलिए उन्हें केवल स्वच्छ भारत अभियान के संदेशवाहक की भूमिका तक सीमित कर दिया गया है। इस रोजगार योजना से उनका नाम विलोपित कर बीजेपी यह राजनैतिक संकेत दे रही है कि वह गांधी की विचारधारा का अनुसरण नहीं करती।
यह बदलाव कुछ हद तक बीजेपी के एजेंडे को दर्शाता है। वह गांधी की विचारधारा से दूर है, संघवाद और अधिकारों की अवधारणा के खिलाफ है और उसे हाशिए पर पड़े लोगों की जरा सी भी परवाह नहीं है!
(लेख का अंग्रेजी से हिंदी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)