लोकतंत्र और विपक्ष- चौथी कड़ी: कांग्रेस, वाम और क्षेत्रीय दलों में एकजुटता वक्त की जरूरत

जब तक हम ऐसी राजनीतिक रणनीतियां नहीं बनाते जो एक मजबूत वैकल्पिक विकास मॉडल और सामाजिक नैतिकता का आश्वासन देता हो, तब तक केवल गठबंधन करने से अनुकूल चुनावी नतीजे नहीं आएंगे। बीजेपी-आरएसएस, राष्ट्रीय एकता की आड़ में कमजोर सामाजिक समूहों की कीमत पर आगे बढ़े हैं।

फाइल फोटो
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नवजीवन डेस्क

लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। हमने अपने साप्ताहिक अखबार ‘संडे नवजीवन’ के ताजा अंक में इस पर खास तौर पर विचार किया है। दरअसल बात सिर्फ संसद या विधानसभाओं की नहीं है। समाज के हर वर्ग से किस तरह अपेक्षाएं बढ़ गई हैं, यह जानना जरूरी होता गया है। सिविल सोसाइटी आखिर किस तरह की भूमिका निभा सकती है, यह भी हमने जानने की कोशिश की है। कांग्रेस की आने वाले दिनों में क्या भूमिका हो सकती है, इस पर भी हमने बात की है। इस प्रयोजन की चौथी कड़ी में हम जेएनयू के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर अजय गुदावर्थी के विचार आपके सामने रख रहे हैं।

हाल के चुनावों को लेकर बड़ी तल्ख प्रतिक्रियाएं हुई हैं। कुछ लोग तो यह भी कहने लगे हैं कि`कांग्रेस का अंत हो जाना चाहिए`।

लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस की हालिया हार के साथ संगठन से जुड़े मुद्दे और तमाम ऐसे आसन्न संकट कांग्रेस के उन राजनीतिक मूल्यों के लिए चुनौती हैं, जिनके लिए पार्टी बरसों से प्रतिबद्ध रही। इसके अलावा, यह एक ऐसा संकट है, जिसका कांग्रेस ही नहीं बल्कि दुनियाभर में सामाजिक लोकतांत्रिक चरित्र वाले लगभग सभी दल सामना कर रहे हैं।

हम राजनीतिक इतिहास के ऐसे विडंबनापूर्ण दौर से गुजर रहे हैं, जहां लोग असमानताओं पर नाराजगी तो जता रहे हैं, लेकिन ऐसी पार्टियों को वोट दे रहे हैं जो आक्रामक तरीके से इस तरह की नीतियों पर चल रही हैं जो सामाजिक संघर्ष और सड़कों पर हिंसा पैदा कर रही हैं। यह संदर्भ जरूरी है क्योंकि यह वक्त परस्पर आलोचना और एक-दूसरे को खारिज करने की जगह इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए व्यापक एकजुटता का है।

यह नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी और आरएसएस आज भी कांग्रेस को ही अपने सबसे बड़े राजनीतिक और वैचारिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखते हैं। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक की कांग्रेसी विरासत को खारिज करने में मोदी सबसे आगे रहे। इस कारण, हमें कांग्रेस के ऐतिहासिक योगदान को महसूस करना चाहिए। हां, यह सही है कि इसके बावजूद ईमानदार आत्मनिरीक्षण जरूरी है। दुनिया तेजी से बदल रही है, और आज इतिहास को छोड़ने नहीं बल्कि उसे साथ लेकर चलने की जरूरत है।

भारत को एक बहुसंख्यक तानाशाही वाला देश बनने से रोकने के लिए कांग्रेस को ऐतिहासिक भूमिका निभानी है। आज भी कांग्रेस ही अकेली राष्ट्रीय पार्टी है जिसकी संगठनात्मक उपस्थिति पूरे देश में है और देश में आरएसएस के आक्रामक विस्तार को रोकने के लिए यह जरूरी है। कांग्रेस को अगर सीन से हटा दें तो लड़ाई अपने-अपने राज्यों तक सीमित क्षेत्रीय दलों और पूरे देश में सक्रिय बीजेपी और आरएसएस की सामाजिक लामबंदी के बीच होगी।

इसकी शुरुआत आपातकाल के विरोध के दौरान जनसंघ और जनता पार्टी के बीच नजदीकियों के साथ शुरू हुआ। ऐसा माना जाता है कि बीजेपी ने यहां तक कहा कि “अगर आरएसएस सांप्रदायिक है तो मैं भी सांप्रदायिक हूं।” वीपी सिंह के कार्यकाल के दौरान तो बीजेपी भी गठबंधन का हिस्सा थी।

तमाम क्षेत्रीय दल खत्म होने के कगार पर हैं। ठीक बीएसपी की तरह, जिसने कांग्रेस का सामाजिक आधार मिटाने के लिए उत्तर प्रदेश में एक बार बीजेपी के साथ गठबंधन किया था। हाल-फिलहाल अन्ना हजारे और आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल थे, जो इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन में आरएसएस के ध्वजवाहक बने हुए थे। बीजेपी और आरएसएस ने कांग्रेस को हटाकर अपने लिए जगह बनाई।


भारत में गैर-कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष इतिहास के विभिन्न रंग रहे हैं और बीजेपी-आरएसएस गठबंधन के उदय के लिए अकेले कांग्रेस को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। वास्तव में, यह बीजेपी के कांग्रेस मुक्त भारत अभियान से स्पष्ट है कि वे हिंदू राष्ट्र के गठन में सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस को ही मानते हैं।

आज वक्त की जरूरत है कि कांग्रेस, क्षेत्रीय दल और वाम दलों में एकजुटता हो। यह एकजुटता केवल राजनीतिक गठजोड़ की शक्ल में न हो। उनका साथ-साथ काम करने का दायरा चुनाव से ठीक पहले सीट साझा करने से लेकर चुनाव बाद चुनावी अंकगणित तक सीमित नहीं रह सकता। आज नितांत आवश्यकता इस बात की है कि एक ऐसा नया राजनीतिक नजरिया विकसित किया जाए जो सामाजिक कार्य को एक राजनीतिक कार्यक्रम की तरह लेकर चले।

हाल के चुनावों से यह साफ होता है कि कांग्रेस के कमजोर होने से क्षेत्रीय दलों के किले में सेंध लगाना संभव हो सका और चंद्रबाबू नायडू से लेकर ममता बनर्जी तक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव में बाधा पहुंचाने और हिंसा भड़काने में आरएसएस की भूमिका की शिकायत कर रहे हैं। गैर-एनडीए राजनीतिक दलों के सामने आज यह बहुत बड़ी चुनौती है। मैं तो यहां तक कहूंगा कि विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों, वाम दलों और कांग्रेस को मिल-बैठकर विलय की संभावनाओं पर विचार करना चाहिए।

सिर्फ विलय से ही इन दलों को अपने-अपने अलग सामाजिक आधार को संभावित नुकसान से बचाने में मिलेगी। जब तक हम ऐसी राजनीतिक रणनीतियां नहीं बनाते जो एक मजबूत वैकल्पिक विकास मॉडल और सामाजिक नैतिकता का आश्वासन देता हो, तब तक केवल गठबंधन करने से अनुकूल चुनावी नतीजे नहीं आएंगे। धर्मनिरपेक्ष सोच वाले राजनीतिक दलों के बीच राजनीतिक गठजोड़ और संभावित विलय का आधार धार्मिक समुदायों और जातियों के बीच के अंतर को कम करना होना चाहिए। बीजेपी और आरएसएस, राष्ट्रीय एकता की बात की आड़ में कमजोर सामाजिक समूहों की कीमत पर आगे बढ़े हैं।

हमने 2014 के बाद सामाजिक संघर्षों और पूर्वाग्रहों की आग में सड़कों पर अभूतपूर्व हिंसा होते देखी है, नियमित बातचीत और भारत जिन सामूहिक मूल्यों के लिए दुनिया भर में जाना जाता है, उनके बूते ऐसी घटनाओं को रोकना होगा। आरएसएस की ताकत के मुकाबले के लिए एक मजबूत संगठनात्मक ढांचे की जरूरत है। आरएसएस के पास आज 50 लाख ऐसे स्वयंसेवक हैं जो साल भर लोगों के बीच काम करते हैं, न कि केवल चुनावी मौसम में। वामपंथी दलों के पास अब भी कैडर है और क्षेत्रीय दलों का अपने-अपने क्षेत्र में मजबूत आधार है, अगर इन्हें साथ ले आया जाए तो यह विकल्प कहीं अधिक विश्वसनीय होगा।

2004 से 2014 तक कांग्रेस, वामदलों और क्षेत्रीय दलों के बीच गठजोड़ इसी दिशा में बढ़ रहा था और कांग्रेस के नेतृत्व में बढ़िया विकास हो रहा था, लेकिन तभी मोदी आए और उन्होंने आकांक्षाओं से भरी नई पीढ़ी की सोच को अपनी ओर मोड़ लिया। हाल के आम चुनाव में भी राहुल गांधी ने न्याय योजना, घृणा का मुकाबला प्रेम से करने और आरएसएस की भूमिका पर खुलकर हमला करके उसी भाव को स्थापित करने की कोशिश की। कांग्रेस पार्टी के लिए जरूरी है कि वह सिर्फ एक राजनीतिक पार्टी न रहकर वापस आंदोलन की राह पर जाए। अगर भारत को समावेशी, धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील बने रहना है तो इस तरह के विचारों को एक ठोस आकार लेना होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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