नागरिकों के व्यवस्थागत दमन से नहीं, स्वतंत्रता से मजबूत होता है लोकतंत्र / आकार पटेल

ऐसे लोकतंत्र का कोई उदाहरण नहीं मिलता जो व्यवस्थागत दमन के तहत पनपता हो। लोकतंत्र के अच्छे नतीजे स्वतंत्रता की मजबूती के माध्यम से प्राप्त होते हैं न कि दमन के माध्यम से। मान्यता यह है कि स्वतंत्र व्यक्ति अधिक उत्पादक, अधिक रचनात्मक और अधिक सक्षम होगा।

जब सीएए-एनआरसी के खिलाफ महिलाओं ने दिल्ली के शाहीन बाग में संभाली थी विरोध की कमान (फोटो : Getty Images)
जब सीएए-एनआरसी के खिलाफ महिलाओं ने दिल्ली के शाहीन बाग में संभाली थी विरोध की कमान (फोटो : Getty Images)
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आकार पटेल

लोकतंत्र बुनियादी तौर पर  अनिवार्य रूप से व्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा है। हालांकि सामाजिक रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक मूल्यों का पालन किसी भी प्रकार की सरकार के तहत किया जा सकता है।

लोकतंत्र, इसकी संस्कृति, इसका पालन, इसकी भावना को सही मायनों में एक राष्ट्र के उत्थान में तभी अपनाया जा सकता है जब कोई राष्ट्र अपने नागरिकों का सशक्तीकरण करे। लोकतंत्र का यही उद्देश्य है।

अपने एक निबंध में, सी एस लुईस हमें बताते हैं कि 'किसी भी कदम को आंकने की पहली योग्यता यह जानना है कि आखिर यह क्या है - इसका उद्देश्य क्या है और इसका उपयोग कैसे किया जाना है। यह पता चलने के बाद कोई भी संयम सुधारक यह निर्णय ले सकता है कि कोई कदम किसी किसी बुरे उद्देश्य के लिए उठाया गया है या नहीं, और वामपंथी किसी चर्चके बारे में भी यही सोच सकता है। लेकिन ऐसे सवाल बाद में आते हैं। पहली बात तो यह है कि आपके सामने जो कुछ है उसे समझें: जब तक आप सोचते हैं कि कॉर्कस्क्रू का इस्तेमाल सिर्फ कैन खोलने के लिए था या चर्च सर्फ वहां आने वालों के मनोरंजन के लिए था, तब तक आप किसी कदम के असली उद्देश्य के बारे में कुछ नहीं कह सकते।'

लोकतंत्र को सिर्फ एक के बाद एक चुनाव कराना या इसके मूल का सार समझना एक भूल है। यह उत्तराधिकार के लिए जनजातीय संघर्षों से कहीं अधिक अहम है। एक तानाशाही और एक निर्वाचित निरंकुशता के बीच कोई अंतर नहीं है, अगर यह समझ लिया जाए कि दोनों स्थितियों में सरकार नागरिकों को दबाती है, उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाती है, उनकी राय और उनकी स्वायत्तता को सीमित करती है और विचारों की एकरूपता को लागू करती है।

लोकतंत्र में राज्य या सरकार के खिलाफ फैसला सुनाने वाले न्यायाधीश की असहमति महत्वपूर्ण है क्योंकि न्यायाधीश को राज्य के खिलाफ खड़े होने और व्यक्ति की रक्षा करने का अधिकार है। यह अतिशयोक्ति लग सकती है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में न्यायाधीश का काम नागरिक या व्यक्ति को राज्य के अत्याचार से मुक्त करना चाहिए। यह बात उस धारणा से निकलती है कि राज्य के सभी रूप व्यक्ति पर अंकुश लगाने की कोशिश करते हैं क्योंकि वह सिस्टम के सुचारू संचालन में बाधा डालता है।

आप हमारे देश में किसी भी घटना में ऊपर दिए गए शब्दों का अर्थ पढ़ सकते हैं और किसी विशेष घटना के बारे में बात करना शायद ध्यान भटकाने वाला होगा। एक लेखक के रूप में व्यक्ति दिशा और परिवर्तन, बशर्ते कोई हो, की संभावनाओं में रुचि रखता है।  व्यक्ति यह भी देखता है कि राज्य द्वारा किए गए बदलावों पर आम जनता किस तरह प्रतिक्रिया करती है।


इन बदलावों के बारे में विस्तार से बताना न तो उपयोगी है और न ही ज़रूरी। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये सबकुछ काफी समय से हमारे आसपास हो रहा है (हम इस व्यवस्था के 12वें साल में हैं) और चुनावों के ज़रिए इन पर मुहर लगती रही है। लेकिन सुर्खियों को पढ़ना शिक्षाप्रद होता है और, अगर पाठक की दिलचस्पी हो, तो वे विवरण में जा सकते हैं और आकलन कर सकते हैं कि जो हो रहा है, क्या वह व्यक्ति का सशक्तिकरण और लोकतंत्र को मजबूत करना है या इसके विपरीत।

राज्य या सरकार हमें एक खास दिशा में ले जा रही है और मौजूदा शासन व्यवस्था के तहत ऐसा करने के लिए सरकार को लंबा वक्त मिल गया है, और हम इसकी शिथिलता से को पीछे छोड़ चुके हैं। कई कानूनों के जरिए हमें यह दिशा दिखाई देती है।

इसी किस्म के कुछ कानून यह हैं:

उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2018, हिमाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2019, उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिबंध अध्यादेश 2020, मध्य प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2021, गुजरात धार्मिक स्वतंत्रता (संशोधन) अधिनियम 2021, कर्नाटक धार्मिक स्वतंत्रता अधिकार संरक्षण 2022, हरियाणा धर्म के गैरकानूनी धर्म परिवर्तन की रोकथाम अधिनियम 2022

ऐसे ही अन्य कानून इस प्रकार हैं:

महाराष्ट्र पशु संरक्षण अधिनियम 2015, हरियाणा गौवंश संरक्षण और गौसंवर्धन अधिनियम 2015, गुजरात पशु संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2017, कर्नाटक पशु वध निवारण और संरक्षण अधिनियम 2017।

तीसरे किस्म के कानून इस तरह हैं:

गैरकानूनी क्रियाकलाप (रोकथाम) संशोधन अधिनियम 2019, सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम 2019, उत्तर प्रदेश सार्वजनिक एवं निजी संपत्ति क्षति वसूली अधिनियम 2020, दूरसंचार सेवाओं का अस्थायी निलंबन (लोक आपातकाल या लोक सुरक्षा) नियम 2017, आधार और अन्य कानून (संशोधन) अधिनियम 2019

इन कानूनों में उल्लिखित वर्ष महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इससे हमें ऐसे कानूनों को लागू करने की प्रगति और गति पता चलती है। इन कानूनों के जरिए ही हमें आज ऐसे मोड़ पर ले आया गया है। खबरों में आने वाली घटनाओं के पीछे यह संरचना है जो अब कानून के माध्यम से लागू है, जिसमें प्रत्येक में नुकीलें नजर आते हैं।


आपके पास एक अच्छी तरह से प्रबंधित तानाशाही हो सकती है, और दुनिया भर में इसके उदाहरण भी हैं, खासकर हमारे पड़ोस में। लेकिन हमारे यहां प्रबंधन पूरी तरह से आर्थिक प्रकृति का है और व्यक्ति को अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता को छोड़ना पड़ता है, चाहे वह चाहे या न चाहे।

दुर्भाग्य से, ऐसे लोकतंत्र का कोई उदाहरण नहीं मिलता जो व्यवस्थागत दमन के तहत पनपता हो। लोकतंत्र के अच्छे नतीजे स्वतंत्रता की मजबूती के माध्यम से प्राप्त होते हैं न कि दमन के माध्यम से। मान्यता यह है कि स्वतंत्र व्यक्ति अधिक उत्पादक, अधिक रचनात्मक और अधिक सक्षम होगा।

इससे दूर जाने वाला रास्ता सफलता की ओर नहीं ले जाता। बशर्ते सफलता को व्यक्तियों और समूहों के व्यवस्थित और अनावश्यक रूप से अपंग बनाने और ऐसा करने से मिलने वाले आनंद के रूप में परिभाषित नहीं किया जाता हो।

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