नेपाल में कसौटी पर लोकतंत्र: मूकदर्शक बनकर क्यों नहीं रह सकता भारत!
नेपाल में लोकतंत्र की नई कसौटी भारत के लिए सिर्फ तमाशा भर नहीं है। खुली सीमा, गहरे सांस्कृतिक संबंध और भारत में बड़ी संख्या में नेपाली प्रवासी, नेपाल में अस्थिरता को नई दिल्ली के लिए तत्काल चिंता का विषय बनाते हैं।

नेपाल अपनी उथल-पुथल भरी लोकतांत्रिक यात्रा के एक नए और नाज़ुक दौर में प्रवेश कर चुका है। सुशीला कार्की की अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्ति जहां एक प्रतीकात्मक पड़ाव है, वहीं एक व्यवहारिक दांव भी है। वैसे कार्की नेपाल की पहली महिला प्रधानमंत्री बनी हैं। अपनी स्वतंत्रता और ईमानदारी के लिए जानी जाने वाली नेपाल की पूर्व मुख्य न्यायाधीश, कार्की को अब युवाओं के विरोध प्रदर्शनों से पैदा तख्ता पलट, राजनीति के पतन और सुलगती अशांति के तूफ़ान से एक घायल एक देश को बाहर निकालने की जिम्मेदारी निभानी है।
पद संभालते ही उन्होंने एक प्रभावशाली कदम उठाते हुए "जेन-ज़ी क्रांति" के दौरान मारे गए 72 लोगों को शहीद का दर्जा घोषित कर दिया। साथ ही मृतकों के परिवारों को दस-दस लाख नेपाली रुपये देने और घायल प्रदर्शनकारियों और पुलिस अधिकारियों को मुफ्त चिकित्सा सेवा देने का वादा किया गया है। राजनीतिक अभिजात वर्ग पर भरोसा खो चुके देश में कार्की का यह ऐलान सहानुभूति और प्रदर्शन को वैधता देने का संकेत है।
फिर भी, उनके सामने बड़ी चुनौतियां हैं। उन्हें एक ऐसे देश की कमान मिली है जिसकी संसद का निचला सदन हाल ही में भंग हुआ है, जिसका राजनीतिक वर्ग अमान्य हो चुका है, और जिसके बेचैन युवा सबकुछ चलता है जैसी स्थिति को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।
जेन-ज़ी का विरोध और वैधता का सवाल
नेपाल की उथल-पुथल के मूल में उसके युवा नागरिकों की हताशा है। काठमांडू और प्रांतीय शहरों की सड़कें बदलाव की मांग कर रहे प्रदर्शनकारियों से भरी हुई थी। उनकी शिकायतें स्पष्ट थीं: राजनेता भ्रष्टाचार, भाईचारा और जड़ता के पर्याय बन गए हैं। उनके लिए, एक संघीय गणतांत्रिक संविधान के वादे की जगह एक ऐसी गतिहीन संसद ने ले ली थी जो सुधार लाने में असमर्थ साबित हुआ। विरोध प्रदर्शन हिंसक हो उठा और सरकारी इमारतों को आग के हवाले कर दिया गया। सुरक्षा बलों ने क्रूर बल का इस्तेमाल किया। जिसमें 50 प्रदर्शनकारियों, 10 कैदियों और तीन पुलिसवालों की मौत हुई। जब तक ये सबकुछ थमता, नेपाल एक ऐतिहासिक मोड़ पर पहुंच चुका था।
कार्की की सलाह पर अमल करते हुए, राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने संसद के निचले सदन को भंग कर दिया और मार्च 2026 के लिए नए चुनावों की घोषणा की। उन्होंने इसे लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक "कठिन लेकिन ज़रूरी कदम" बताया। लेकिन विपक्षी दलों ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए एक खतरनाक मिसाल करार दिया है। इस तरह, लड़ाई अब एक अलग रूप ले चुकी है: एक तरफ़ वे है जो इसे देश को संभालने के लिए एक जरूरी कदम मानते हैं और दूसरी तरफ़ वे जो इसे लोकतांत्रिक ध्वंस मानते हैं।
महज़ केयरटेकर की भूमिका नहीं है सुशीला कार्की की
सुशीला कार्की का कार्यकाल सिर्फ एक अस्थाई और औपचारिक व्यवस्था है, लेकिन उनकी भूमिका कहीं बढ़कर है। उन्हें एक साथ कानून-व्यवस्था बहाल करनी है, प्रदर्शनकारियों के बलिदान का सम्मान करना है, चुनावी प्रक्रिया की निगरानी करनी है और यह सुनिश्चित करना है कि नेपाल फिर से सत्तावादी प्रलोभनों में न फंस जाए।
उनकी न्यायिक पृष्ठभूमि इस सबमें मददगार साबित हो सकती है। उनकी प्रतिष्ठा इसी में है कि 2016-17 में नेपाल की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश के रूप में, कार्की ने राजनीतिक हस्तक्षेप के आगे न झुकने का फैसला लिया था। इससे उन्हें एक अलग नैतिक प्रतिष्ठा हासिल है। लेकिन सरकार की मुखिया के रूप में, उन्हें एक और भी खतरनाक वास्तविकता का सामना करना पड़ेगा। ये हैं आपस में स्पर्धा करते गुट, आशंकित युवा, और नेपाल की दिशा तय करने को आतुर बाहरी शक्तियां।
भारत के लिए एक नया मौका
इस सबके बीच नेपाल के लोकतांत्रिक दांव को भारत सिर्फ तमाशबीन बनकर नहीं देख सकता। खुली सीमा, गहरे सांस्कृतिक संबंध और भारत में बड़ी संख्या में नेपाली प्रवासी, नेपाल में अस्थिरता को नई दिल्ली के लिए तत्काल चिंता का विषय बनाते हैं। फिर भी, हाल के वर्षों में, नेपाल के प्रति भारत का रवैया उदासीनता और हस्तक्षेप के बीच झूलता रहा है, जिससे चीन को नेपाल में अपना प्रभाव बढ़ाने का मौका मिला।
2015 में नेपाल के संविधान की घोषणा के साथ हुई "अनौपचारिक नाकेबंदी" ने नेपालियों के बीच भारत को लेकर गहरी कड़वाहट पैदा कर दी थी, क्योंकि वे भारत को एक दबंगे पड़ोसी मानने लगे थे। इसके बाद से, चीन ने लगातार नेपाल में अपनी पैठ बढ़ाई है, बुनियादी ढांचे में निवेश किया है और राजनीतिक संबंध विकसित किए हैं। कई युवा नेपालियों के लिए, बीजिंग अपनी घरेलू राजनीति और वैश्विक छवि निर्माण में व्यस्त भारत की तुलना में अधिक विश्वसनीय साझेदार प्रतीत होता है।
सुशीला कार्की के हाथों में नेपाल की कमान और जेन-ज़ी का विरोध के बीच भारत को अपनी भूमिका फिर से स्थापित करने का एक दुर्लभ मौका मिला है। नेपाल की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के साथ जुड़कर, भारत एक दबंग पड़ोसी के बजाय एक ज़िम्मेदार पड़ोसी की अपनी भूमिका फिर से हासिल कर सकता है।
श्रीलंका और बांग्लादेश से मिला सबक
नेपाल के संकट को दूसरे देशों में हो रहे हालात से अलग करके नहीं देखा जा सकता। पूरे दक्षिण एशिया में एक पैटर्न उभर रहा है: जड़ जमाए बैठे अभिजात वर्ग को निराश नागरिकों के विद्रोह का सामना करना पड़ रहा है, जिसका नेतृत्व अक्सर ऐसे युवा करते हैं जो लोकतंत्र को दिखावा समझते हैं। श्रीलंका में 2022 में इसी कारण राजपक्षे राजवंश को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया गया। बांग्लादेश हिंसक सत्ता संघर्षों से जूझ रहा है, उसका लोकतंत्र बस नाम मात्र रह गया है। नेपाल अब इस क्षेत्रीय कहानी में तीसरा मोर्चा बना है।
इन सबमें भारत की प्रतिक्रिया असमान रही हैं। उसने श्रीलंका को स्थिर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, कोलंबो में ईंधन और खाद्यान्न की कमी को दूर किया। लेकिन बांग्लादेश में, राजनीतिक दमन के दौरान उसकी चुप्पी ने उसकी विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया। अब नेपाल में, भारत को संतुलन बनाना होगा—सिद्धांतों का त्याग किए बिना स्थिरता का समर्थन करना होगा।
दांव पर न केवल नेपाल का भविष्य है, बल्कि इस क्षेत्र में लोकतांत्रिक आधार के रूप में भारत की स्थिति भी कसौटी पर है। अगर नई दिल्ली ने मुँह मोड़ लिया, तो उसे एक और पड़ोसी को चीन की गिरफ्त में और गहराई तक जाते देखने का जोखिम है।
सिर्फ तमाशबीन नहीं, बल्कि एक साझीदार
आलोचकों का तर्क है कि वर्तमान दौर में भारत की विदेश नीति ने अक्सर क्षेत्रीय नेतृत्व के बजाय वैश्विक दिखावे को प्राथमिकता दी है। जहां एक ओर नेता भारत को "विश्वगुरु" के रूप में प्रचारित करते हुए व्यापक यात्राएं करते हैं, वहीं श्रीलंका से लेकर म्यांमार और नेपाल तक, निकटवर्ती पड़ोस में संकटों का सामना करने में झिझक दिखती है। एक "प्रधान मूकदर्शक" (प्रमुख दर्शक) की छवि जड़ जमा चुकी है।
फिर भी इतिहास में एक अलग मिसाल मौजूद है। अटल बिहारी वाजपेयी की "पड़ोसी पहले" कूटनीति और मनमोहन सिंह की शांत लेकिन स्थिर भागीदारी ने यह साबित किया कि दक्षिण एशिया की स्थिरता भारत की सुरक्षा की पहली पंक्ति है। उनकी सोच विश्वास को पोषित करने की थी, न कि नाज़ुक हालात का फ़ायदा उठाने की।
नेपाल में, भारत के सामने अब एक विकल्प है। वह या तो घटनाओं को घटते हुए देख सकता है और बाहरी ताकतों को इस शून्य का फायदा उठाने दे सकता है। या फिर वह नेपाल के परिवर्तन को शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक बनाने के लिए मानवीय, आर्थिक और नैतिक समर्थन दे सकता है।
भारत के पास विकल्प
भारत को नेपाल के मामले में संयम और सहभागिता का इस्तेमाल करना होगा। उसे बिना किसी शर्त के मानवीय सहायता देनी चाहिए और घायलों का इलाज कर रहे अस्पतालों को तत्काल सहायता प्रदान कर सद्भावना दिखानी होगी। साथ ही स्वतंत्र चुनावों का समर्थन करते हुए उसकी मदद करनी चाहिए। इसके अलावा नेपाल के विभिन्न गुटों के बीच संवाद को प्रेरित करते हुए बहुत ज्यादा प्रबंधन से बचना होगा। वहीं पड़ोस में सत्तावादी प्रवृत्ति का विरोध करने के लिए श्रीलंका से लेकर भूटान तक समान विचारधारा वाले लोकतंत्रों को साथ लेना होगा।
महिला के हाथों में कमान- प्रतीकात्मक या वास्तविक
भू-राजनीति से परे, कार्की के हाथों में नेपाल की कमान दक्षिण एशिया में लैंगिक समानता के लिए एक मील का पत्थर है। हालांकि इस क्षेत्र ने पहले भी महिला नेताओं को देखा है—इंदिरा गांधी और बेनज़ीर भुट्टो से लेकर शेख हसीना और सिरीमावो भंडारनायके तक। ऐसे में कार्की का नेतृत्व दोगुना महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वंशवादी विशेषाधिकार से नहीं, बल्कि पेशेवर योग्यता से उपजा है। उनका न्यायिक जीवन स्वतंत्रता और सिद्धांतों से परिभाषित था। यदि वह इस संकट से नेपाल का मार्गदर्शन करने में सफल होती हैं, तो वह उस क्षेत्र में महिला नेतृत्व के अर्थ को नए सिरे से परिभाषित कर सकती हैं जहां इसे अक्सर राजनीतिक विरासत से जोड़ा जाता रहा है।
उम्मीदें और आशंका
नेपाल एक दोराहे पर खड़ा है। संसद भंग होने से नवीनीकरण की गुंजाइश तो खुली है, लेकिन विभाजन के गहराने का भी खतरा है। काठमांडू की सड़कों पर उमड़े जेन-ज़ी के प्रदर्शनकारी जवाबदेह शासन चाहते हैं, लेकिन संस्थागत सुधारों के बिना, उनकी ऊर्जा किसी अन्य दिशा में जा सकती है।
नेपाल का दांव, भारत की परीक्षा
नेपाल का भविष्य अंततः नेपालियों को ही तय करना है। लेकिन इस क्षेत्र का सबसे बड़ा लोकतंत्र और निकटतम पड़ोसी होने के नाते, भारत अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता। विकल्प दोतरफा है: एक मूकदर्शक बने रहें या नेपाल के लोकतांत्रिक नवीनीकरण में एक सच्चे भागीदार की भूमिका निभाएं। भारत के लिए यह विदेश नीति से कहीं बढ़कर होगा। यह इस बात की परीक्षा है कि क्या भारत अब भी खुद को दक्षिण एशियाई स्थिरता का आधार मानता है या सिर्फ़ एक ऐसी शक्ति जो अपने पड़ोस की उपेक्षा करते हुए वैश्विक मान्यता पाने की कोशिश कर रही है।
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia