सत्ता की अनदेखी के बावजूद वंचित समुदाय में महामारी से मौत कम, सुविधाओं के बगैर बचने का इतिहास दिलचस्प

दिलचस्प है कि सामान्य दिनों में दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों की भले अन्य भारतीय नागरिकों के मुकाबले औसत आयु कम हो, लेकिन महामारी के समय यह स्थिति उलट जाती है। ऊंची जातियों के मुकाबले स्वास्थ्य सुविधाएं कम मिलने के बावजूद उनके बीच मौत की दर कम होती है।

फोटोः सोशल मीडिया
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अनिल चमड़िया

सत्ता द्वारा जो वंचित जातियां स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में भी वंचित रह जाती हैं, वे महामारी के दौरान कैसे अपने को सुरक्षित रख पाती हैं, यह अध्ययन दिलचस्प हो सकता है।

पहली बात तो भारतीय समाज के बारे में कई ऐसे अध्ययन हैं, जिसमें यह तथ्य सामने आए हैं कि समाज के दलितों, मुस्लिमों, महिलाओं और अन्य जाति समूहों की औसत आयु सामान्य औसत आयु से कितनी कम होती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार दलित जाति समूह की महिलाएं, गैर दलित जातियों की महिलाओं के मुकाबले कम उम्र तक जिंदा रह पाती हैं।

अध्ययन के मुताबिक दलित महिलाएं, अन्य महिलाओं के मुकाबले 14.6 वर्ष कम जीती हैं। दलित महिलाओं की औसत उम्र महज 39.5 वर्ष है, तो सवर्ण जाति की महिलाओं की औसत आयु 54.1 वर्ष है। अर्थशास्त्री वाणी कांत बरुआ ने अपने एक शोध अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला है कि आदिवासियों की औसत उम्र 43 वर्ष पहुंच गई है, जबकि 2004 में औसत उम्र 45 वर्ष थी। आदिवासियों के बाद दलितों और मुसलमानों की औसत आयु अन्य भारतीय नागरिकों के मुकाबले कम है।

इसीलिए यह माना जाता है कि भारत में ‘जाति’ शब्द के मुकाबले दुनिया भर में शायद कोई और दूसरा शब्द नहीं है, जहां कि एक शब्द से अनेक अर्थ निकलता हो। भारत में जाति का नाम भर बता देने से सुनने वाले के कानों में कई अर्थ पहुंच जाते हैं। भारत की समाज व्यवस्था में जाति का नाम भर ले लेने से उस जाति के सदस्यों की जिंदगी की हर तरह की परिस्थियों की कहानी सामने आ जाती है।

लेकिन यह बेहद दिलचस्प है कि सामान्य दिनों में दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों की अन्य भारतीय नागरिकों के मुकाबले औसत आयु कम हो, लेकिन महामारी के समय यह स्थिति उलटी पड़ जाती है। बावजूद इसके कि महामारी के दौरान दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के सदस्यों को स्वास्थ्य की सुविधाएं अपेक्षाकृत कम मिल पाती हैं, लेकिन इसके बावजूद उनके बीच मौत की दर कम होती है।

दरअसल भारत की समाज व्यवस्था की तरह ही स्वास्थ्य सुविधाओं और रोग प्रतिरोधक क्षमताओं का ढांचा बना हुआ है। स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा जहां राजनीतिक, सामजिक और आर्थिक व्यवस्थाएं विकसित करती हैं, वहीं प्रतिरोधक क्षमता का ढांचा दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों में उनकी जीवन शैली की वजह से विकसित हो गया है। भारत में समाज व्यवस्था के अनुसार दलितों पर श्रम करने के कठोर नियम लागू रहे हैं। आदिवासियों के हिस्से शहरों से दूर जंगली इलाकों में रहने की जगह होती है और गरीबी के कारण मुसलमानों के बीच मांस खाने की मजबूरी होती है।

दिलचस्प तथ्य है कि किसी महामारी के दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा नाकाफी साबित होता है, लेकिन प्रतिरोधक क्षमता आबादी के बड़े हिस्से को सुरक्षित रखने में कामयाब होती है। 120 वर्ष पहले भारतीय समाज में प्लेग के दौरान जातियों की जो स्थिति थी, उसका एक अध्ययन सामने आया है।

भारत सरकार के गृह विभाग के आईसीएस अधिकारी आर. नाथन द्वारा संकलित एक दस्तावेज (वॉल्टर चार्ल्स रैंड, प्लेग कमिश्नर पुणे- द प्लेग इन इंडिया 1896, भाग- एक, 1898; शिमला, अध्याय-7 पेज-207) के अनुसार महाराष्ट्र के पुणे में हिन्दू प्लेग अस्पताल ब्राह्मणों की एक समिति द्वारा संचालित था और सभी हिन्दुओं के लिए खुला था- सिवाय निचली जाति के हिन्दुओं के।

चार्ल्स रैंड ने अपनी रिपोर्ट में साफ तौर पर ये लिखा कि हिन्दू प्लेग अस्पताल ब्राह्मणों और उच्च जाति के लोगों के लिए था, निम्न जाति के लिए नहीं। उन्होंने यह भी लिखा कि अस्पताल में दाखिल 157 मरीजों में से 98 ब्राह्मण थे और 59 अन्य ऊंची जातियों के थे। अस्पताल खुलने के पहले साल में ब्राह्मण मरीज 62.2% थे।

इस अध्ययन में एक और दिलचस्प तथ्य सामने आया कि जिनके लिए स्वास्थ्य सुविधाएं विकसित की जाती हैं, उनके लिए उनकी जीवन शैली और सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचने के लिए एक बाधक के रुप में सक्रिय हो जाती है। भारत में कोरोना के दौरान भी यह देखा गया कि इस वायरस से प्रभावित लोग घरों में ही छुपे रहना पसंद करते हैं। प्लेग की महामारी के दौरान स्थिति यह थी कि पुणे में घर-घर जाकर मरीजों तक पहुंचने की बड़ी कवायद हुई।

हालांकि, आमतौर पर पुणे की जनता ने प्लेग समिति के कार्यकलाप का समर्थन किया। चार्ल्स रैंड लिखते हैं कि “अधिकतर लोगों का व्यवहार मैत्रीपूर्ण था, किन्तु लोग बीमारी छुपाने की कोशिश करते थे। केवल ब्राह्मण समुदाय ने प्लेग समिति का विरोध किया। उनका सैनिकों के प्रति व्यव्हार द्वेषपूर्ण था। ब्राह्मण बस्तियों में प्लेग समिति को खासे विरोध का सामना करना पड़ा। उनका प्रतिरोध काफी प्रबल था।”

प्लेग कमिश्नर के अनुसार मुसलमानों के अस्पताल काफी अच्छी तरह काम कर पा रहे थे। इसका सबसे बड़ा कारण था सभी मुसलमानों का सामान रूप से अस्पतालों पर विश्वास। ‘इन अस्पतालों में दाखिल मरीज ज्यादातर गरीब मुसलमान थे। और तो और, ज्यादातर मरीज उनके परिवार द्वारा खुद अस्पताल लाए गए थे। जहां एक ओर इन अस्पतालों में मरीज अच्छा इलाज और विश्वास पा रहे थे, वहीं हिन्दू मरीजों को मानो जबरदस्ती ही अस्पताल लाना पड़ रहा था।’

लेकिन 22 जून 1897 के दिन चार्ल्स रैंड पर जानलेवा हमला हो गया, जिसमें रैंड के साथी लेफ्टिनेंट आयर्स्ट ने मौके पर दम तोड़ दिया और चार्ल्स रैंड ने दस दिनों बाद 3 जुलाई को दम तोड़ दिया। चार्ल्स रैंड के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने 2 माह (19 फरवरी से अप्रैल तक ) से भी कम समय में पुणे को प्लेग मुक्त कर दिया था। 19 फरवरी 1897 को पुणे के युवा उप जिलाधिकारी वॉल्टर चार्ल्स रैंड को प्लेग नियंत्रण का अतिरिक्त कार्यभार दिया गया था।

कार्यभार मिलने के बाद रैंड ने पाया कि पुणे प्लेग का गढ़ बन चुका था, जो कि राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर की राजनीतिक गतिविधियों का स्थानीय केंद्र था। तिलक ने 25 अप्रैल, 1897 के दिन मराठा में संपादकीय लिखा, जिसका शीर्षक था- लार्ड सैंड्हर्स्ट से एक निवेदन। उन्होंने लिखा: “चार्ल्स रैंड की प्लेग कमिश्नर के तौर पर नियुक्ति दुर्भाग्यपूर्ण है।”

प्रो. परिमला वी. राव ने चार्ल्स रैंड के प्रति बाल गंगाधर तिलक के इस नफरत की पृष्ठभूमि पर गहन शोध किया है। 1894 में चार्ल्स रैंड सतारा में खोटी समझौता अधिकारी के पद पर तैनात थे। बाल गंगाधर तिलक के बारे में यह कहा जाता है कि कैसे उन्होंने गणेश चतुर्थी के उत्सव को राजनीतिक रंग दिया था। सतारा में अपनी तैनाती के दौरान रैंड ने गणेश उत्सव में राष्ट्रवादियों के राजनीतिक संगीत बजाने पर रोक लगा दी थी। यही नहीं उन्होंने 11 ब्राह्मणों को आदेश का उल्लंघन करने पर सजा भी दिलवाई थी।

भारत में राजनीति का आधार जाति रहा है और महामारी में जातीय पृष्ठभूमि भी सक्रिय रहती है। लिहाजा महामारी तो राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पाता, लेकिन महामारी के दौरान जातीय भावना मुद्दा बन जाती है। दिसंबर 1897 में पुणे के करीब महाराष्ट्र के ही शहर अमरावती में इंडियन नेशनल कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, लेकिन प्लेग को लेकर उसमें कोई प्रस्ताव नहीं लाया गया।

यही नहीं चार्ल्स रैंड की हत्या के आरोप में जिन हिन्दूत्ववादी विचारधारा के दामोदर चापेकर, उसके दो भाई बालकृष्ण व वासुदेव और महादेव विनायक रानाडे के खिलाफ फांसी की सजा सुनाई गई थी, उनमें से चापेकर की 120वीं पुण्य तिथि पर 8 जुलाई 2018 को भारतीय डाक विभाग द्वारा एक डाक टिकट जारी कर दिया गया। यह भी तथ्य है कि हिन्दूत्ववाद के सबसे बड़े संगठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक का जन्म एक सौ पच्चीस वर्ष पहले महाराष्ट्र में ही हुआ था और 2014 के बाद नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश में उसकी विचारधारा के प्रभुत्व वाली सरकार है।

लेकिन जाति और उसकी जीवन शैली का रिश्ता स्वस्थ रहने के शारीरिक और मानसिक ढांचे से भारत के हर हिस्से में जुड़ा रहा है। पुणे के अलावे दूसरे हिस्से में भी प्लेग की महामारी के दौरान पुणे जैसी परिस्थितियां देखी गईं। शोधकर्ता डा. ए के विस्वास ने प्लेग पर अपने अध्ययन में पंजाब प्रान्त की अधिकारिक रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि प्लेग किसी कि जाति, वर्ग, सामाजिक स्थिति, श्रेणी या वंश नहीं देखता।

लेकिन पंजाब के सबसे पुराने रेलवे जंक्शन अंबाला के उप कमिश्नर, मेनार्ड ने लाहौर (1947 के बाद पाकिस्तान का हिस्सा) में सरकार को सौंपी प्लेग के मृत्यु दर से संबंधित अपनी रिपोर्ट में लिखा- यदि ब्राह्मणों में प्लेग फैल जाए तो वह मक्खियों की तरह मरते हैं। ब्राह्मण और बनिये अक्सर बच नहीं पाते, क्योंकि वे सबसे अधिक समय कम कपड़ों और बिना जूतों के गुजारते हैं। उनका शरीर अधिकांशतः निर्वस्त्र रहता है, जिससे संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है।

दूसरी ओर पंजाब सरकार के मुख्य चिकित्सा अधिकारी के अनुसार- मुसलमानों, चमारों और भंगियों (दोनों दलित जातियां) में प्लेग से होने वाली मृत्यु की दर सामान पाई गई, क्योंकि यह सभी समुदाय मांस का अधिक सेवन करते हैं। मृत्यु दर के हिसाब से देखें तो सबसे ज्यादा मौतें ऊंची जातियों के हिन्दुओं की हुई, जैसे कि ब्राह्मण, राजपूत, खत्री आदि। यह दर 72.27 % थी। इससे यह साफ हो गया कि चमारों की प्रतिरोधक क्षमता सबसे बेहतर थी। प्लेग से ठीक होने वालों में सबसे अधिक दर चमारों की 36% और मुसलमानों की 34% थी। वहीं ब्राह्मणों, राजपूतों और खत्रियों में यह दर मात्र 28% थी।

भारत में कोरोना महामारी के दौरान जाति और धर्म की भूमिका पर भी इन दिनों काफी लिखा जा रहा है, लेकिन उसे प्लेग की तरह एक शोध का दस्तावेज बनने में अभी थोड़ा वक्त लग सकता है।

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