खरी-खरीः मोदी के बावजूद सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा...

कटु सत्य यही है कि 23 मई की शाम से हर भारतीय मुस्लिम के मन को इसी सवाल ने विचलित कर रखा है कि इस देश में उसका अब कोई स्थान बचा है कि नहीं। और केवल मुसलमान ही क्यों, स्वयं करोड़ों उदार हिंदू भी इसी विचार से चिंतित है कि बस अब सब खत्म हुआ।

फोटोः सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

यह 24 मई का जिक्र है, लगभग चुनावी नतीजे आने के 24 घंटों के पश्चात। क्या दिन था 23 मई कि जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को 300 से भी अधिक सांसदों की ऐतिहासिक विजय प्राप्त हुई। दूसरे दिन सुबह नौ बजे मेरे पाकिस्तानी मित्र मुजम्मिल सुहरावर्दी की कॉल थी। मैंने जानबूझकर उनकी कॉल नहीं ली। परंतु मुजम्मिल एक बड़े पत्रकार हैं। वह अपने देश में कॉलम भी लिखते हैं और टीवी शो भी करते हैं।

मैं समझ रहा था कि वह भारतीय चुनाव पर बात करने को बेचैन हैं और यही हुआ भी। लगभग 11 बजे फिर मेरे फोन की घंटी बजी। मैं फिर टाल गया। सोचा वह भारत में हिंदू प्रतिक्रियावादी ताकतों की विजय पर छींटाकशी करेंगे। हमारे जैसे तमाम हिंदू-मुस्लिम उदारवादी मोदी की विजय पर यूं ही हताश थे। सोचा कौन मुजम्मिल के कटाक्ष सुने।

परंतु पत्रकार आखिर पत्रकार ही होता है।मुजम्मिल मुझे छोड़ने को तैयार ही नहीं थे। लगभग एक बजे दिन में फोन की घंटी के साथ उनका नाम फिर चमका। मैंने सोचा कब तक टालें और उनका फोन उठा ही लिया। मेरा जो अनुमान था वह सोलह आने सच निकला। मेरे फोन उठाते ही मुजम्मिल ने ताना कसा। “क्यों आगा जी आप आज हमसे क्यों कतरा रहे हैं। अरे, घबराइए मत, हमने पाकिस्तान में आपके राजनीतिक ‘असायलम’ का पूरा इंतजाम कर लिया है। लाहौर में आपके लिए घर भी देख लिया है।”

मैं झुंझला गया और थोड़ा तेज लहजे में बोला- “मैंने जिस पाकिस्तान में आज तक कदम नहीं रखे, भला मैं उस पाकिस्तान को अपना घर कैसे बना लूं।” मुजम्मिल ने भी मुझ पर पलटवार किया और अब उनका लहजा भी कुछ ऊंचा था। “देखिए, हमने तो सन् 1947 में ही इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान की स्थापना कर ली थी और उसका ऐलान भी किया। पर आपने उस वक्त से सेकुलरिजम का ढकोसला किया और उसका खूब ढोल भी पीटा। लेकिन, अब आप भी बाकायदा हिंदू रिपब्लिक ऑफ इंडिया हैं। आप इस बात से कितना ही मुंह चुराएं। हकीकत यही है।”


मुजम्मिल के इस वाक्य से ऐसा लगा मानो मेरी पीठ में किसी ने छुरा घोंप दिया। बस इसके बाद जल्द ही हमारी बातचीत खत्म हो गई। मैंने फोन रखा और बस मेरी आंखों से आंसू बह निकले। क्योंकि 24 मई को मुजम्मिल ने फोन पर जो कहा वह बात कहीं न कहीं हर भारतीय मुसलमान को मन ही मन विचलित कर रही थी। इस बात से कतई मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि लगभग हर भारतीय मुस्लिम चुनावी नतीजों से चिंतित ही नहीं घबराया हुआ था। उसको यह प्रतीत हो रहा था कि जैसे आज एक दूसरा बंटवारा हो गया।

हालांकि, 1947 में बंटवारे के बावजूद अधिकतर मुस्लिम जनसंख्या भारत को ही अपना वतन मानकर यहीं टिकी रही। स्वयं मेरे पिता ने सन् 1947 में पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया। वह कट्टर गांधीवादी थे। उनके कमरे में मरते दम तक गांधीजी की फोटो टंगी रही। उन्होंने हमको सांझा भारतीय विरासत की तालीम दी और हमको उन्हीं मूल्यों में पाला पोसा। आज 60 वर्षों से थोड़ा अधिक जीवन व्यतीत करने के पश्चात एक पाकिस्तानी से यह सुनकर कि मुसलमान का अब ‘हिंदू रिपब्लिक ऑफ इंडिया’ में कोई स्थान नहीं, ऐसा लगा मानो जैसे सब कुछ बिखर गया और बस आंसू निकल पड़े। यकायक मन में यह विचार कौंधा क्या वाकई सब कुछ खत्म!

कटु सत्य यही है कि 23 मई की शाम से हर भारतीय मुस्लिम के मन को इसी विचार ने विचलित कर रखा है कि बस अब सब खत्म हुआ। और केवल मुसलमान ही क्यों, स्वयं करोड़ों उदार हिंदू भी इसी विचार से चिंतित हैं। परंतु मुसलमान की तो चिंता एक कदम आगे ही है। वह घबराया है और इस चिंता में है कि क्या इस देश में उसका अब कोई स्थान बचा है कि नहीं। क्योंकि नरेंद्र मोदी कोई अटल बिहारी वाजपेयी की भांति के एक हिंदू लीडर नहीं है। वह स्वयं को हिंदुत्व का एक सिपाही मानते हैं और माधव सदाशिव गोलवलकर और विनायक दामोदर सावरकर के विचारों पर आधारित हिंदू राष्ट्र बनाने पर प्रतिबद्ध हैं। और ऐसे भारतवर्ष में तमाम अल्पसंख्यकों, विशेषतया मुसलमान, के लिए केवल दूसरे दर्जे के शहरी का ही स्थान बचता है।

दूसरे शब्दों में अगर यह कहा जाए कि उसके लिए अब आगे एक गुलाम भविष्य ही बचा है, तो कदापि अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसी अवस्था में वह छोटे-मोटे काम कर, स्लम में रहकर अपने सारे अधिकारों को भुलाकर ही अपना जीवन व्यतीत कर सकता है। उसको चुपचाप अपनी आवाज उठाए बिना अपना जीवन ऐसे ही व्यतीत करना होगा।


ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में 23 मई, 2019, भारतीय मुसलमान के लिए सन् 1857 की गदर जैसी ही एक घटना थी। उस समय दिल्ली में अंग्रेजों ने मुगल शासन बदलकर केवल सत्ता परिवर्तन ही नहीं किया था, बल्किउसके साथ ही उस समय भी मुसलमानों का संपूर्ण ‘वर्ल्ड व्यू’ एवं उनकी बनाई सारी संस्थाएं ही बिखर गईं थीं। सन् 1857 की हार के साथ संपूर्ण मुस्लिम जगत का ही पतन हो गया था। पुराना सब कुछ बिखर गया था और आगे बढ़ने का कोई नया रास्ता दिखता नहीं था। ऐसी मानसिक परिस्थिति को उर्दू के मशहूर कवि और स्वयं गदर को भुगतने वाले मिर्ज़ा ग़ालिब ने कुछ इस प्रकार बयान कियाः

ईमां मुझे रोके है तो खीचें है मुझे कुफ्र

काबा मेरे पीछे है, कलिसा मेरे आगे।

(सब कुछ बिखरने के पश्चात अब कोई पक्का यकीन नहीं बचा बस एक अविश्वास की अवस्था है जिसने मुझे घेर रखा है।)

कुछ ऐसी ही इस समय गांधी और नेहरू का ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ बिखरा हुआ है। नरेंद्र मोदी अपनी अविश्वसनीय सफलता के साथ भारत वर्ष को हिंदुत्व विचारधारा पर आधारित हिंदू राष्ट्र बनाने पर कमर कसे हैं। नेहरू के पुराने भारत और मोदी के ‘नया भारत’ के बीच केवल एक सेकुलर शब्द का अंतर बचा है। आडवाणी जी पहले ही कहते थे कि यह शब्द इंदिरा गांधी ने अपने काल में संविधान में जोड़ा था। बीजेपी उचित समय पर इस शब्द को हटा देगी। वह समय बस अब आ गया और यह काम भी हो जाएगा।

फिर इस देश में मुसलमान की वही दुर्दशा होगी जो पाकिस्तान में हिंदुओं की सन् 1947 के बाद हुई। बहुत से मुसलमानों का अभी भी यह विचार है कि 1947 के पश्चात यूं भी भारतीय मुसलमान को मिला ही क्या। उसकी झोली में केवल दंगों की कतार, 2002 जैसी गुजरात की मुस्लिम नस्लकुशी, कुछ नाम की सरकारी नौकरियां और मुस्लिम कोटे में कुछ मंत्री पद एवं कुछ सजाने वाले पद के अतिरिक्त और कुछ उसे मिला ही क्या। परंतु इसके बावजूद इस देश के मुसलमानों ने कभी आशा का दामन नहीं छोड़ा।

6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के पश्चात भी उसने हार नहीं मानी। फिर भी एक उम्मीद थी जो साथ थी। परंतु मोदी के भारत में मॉब-लिंचिंग, नमाज और अजान पर कटाक्ष और टोपी पहनकर निकलने पर खुलेआम पिटाई, खुलकर पाकिस्तान जाने के तानों के बाद, अब बचा ही क्या है? जो कुछ पर्दा था वह भी अब हट गया है। बस अब केवल एक अविश्वसनीयता और असुरक्षा की दशा है जो उसको अब खदेड़ रही है।

इस दुर्दशा के लिए स्वयं मुसलमानों को भी अपने दामन में झांककर देखना होगा। यह कौम जैसे गहरी नींद में हो। स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने और अपनी तरक्की की कोई चिंता ही नहीं। एक सर सैयद अहमद खां के पश्चात कहीं कोई दूसरा नाम ही नहीं दिखाई पड़ता जिसने भारतीय मुसलमान को आधुनिक जगत से जोड़ने की चेष्टा की हो। केवल अपने अतीत के सहारे कोई कौम तरक्की नहीं कर सकती। तरक्की के लिए एक विजन भी चाहिए। केवल सरकारों के सहारे पूरी कौम की तरक्की नहीं हो सकती।


दरअसल, सरकारें कौमों का भविष्य नहीं बनाती हैं। अपितु समझदार कौमें सरकारों को बना और बिगाड़कर अपना भविष्य स्वयं बनाती हैं। भारतीय मुसलमानों ने अपना भविष्य सेकुलर पार्टियों को सौंपकर सोचा कि बस अब सब ठीक हो जाएगा, ऐसा नहीं होता। फिर कट्टरवादी मुस्लिम मुल्लाओं पर आधारित मुस्लिम नेतृत्व ने मुसलमान को कहीं का नहीं छोड़ा। पर्सनल लॉ, बाबरी मस्जिद और उर्दू जैसे मुद्दों पर बगैर सोचे-समझे जज्बाती मुस्लिम रैलियों ने हिंदू प्रतिक्रिया उत्पन्न कर केवल बीजेपी को मजबूत बनाया। हालांकि पिछले पांच सालों में मॉब लिचिंग जैसी समस्या झेलकर और हर जिल्लत उठाकर भी वह चुपचाप सब्र से बैठा रहा। फिर भी चुनावी नतीजे उसके लिए हिंदू राष्ट्र का तोहफा लेकर आए। ऐसी दशा में वह हताश न हो, तो फिर कब निराश होगा।

लेकिन घबराने से काम तो चलता नहीं। इतिहास साक्षी है कि अच्छा-बुरा समय कट ही जाता है। सन् 1857 का अंधेरा और 1947 के बंटवारे का जुनून भी गुजर ही गया। हमेशा समय एक जैसा नहीं होता और फिर एक नया दौर शुरू होता है। तो यह वक्त भी कट जाएगा। जहां तक मेरा व्यक्तिगत सवाल है तो मेरे मित्र मुजम्मिल साहब मुझे पाकिस्तान का क्या ख्वाब दिखाएंगे। मुझे तो स्वयं मेरे पिता जो पाठ पढ़ा गए, बस वह सुन लीजिए।

जब हम 1960 के दशक में कुछ बड़े हुए तो उन्होंने हमको एक आप बीती सुनाई। उन्होंने कहा कि 1947 में बंटवारे के समय एक सिख बुजुर्ग मेरे पिता के पास आए और उन्होंने उनको लाहौर में अपने दो बंगलों की फोटो दिखाकर यह ऑफर दिया कि हमारे पिता अपने इलाहाबाद के दो बंगलों के एवज में लाहौर के बंगले ले लें और लाहौर चले जाएं। हमने जब अपने पिता से पूछा कि उस अंधकारी समय में वह पाकिस्तान क्यों नहीं गए, तो उन्होंने बहुत इतमीनान से जवाब दिया- “बेटा यहां हमारे पुरखे दफन हैं। फिर सदियों से यह हमारा वतन है। भला दो बंगलों की खातिर कोई अपना वतन छोड़ता है। वतन छूटा तो फिर वापसी थोड़ी ही मिलती है।”

हमारे पिता के समय 1947 के बंटवारे के पश्चात् करोड़ों मुसलमानों ने मोहम्मद अली जिन्ना का ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान’ ठुकरा दिया था। भला अब हमारे मित्र मुजम्मिल हमारे जैसे करोड़ों मुसलमानों को क्या ललचाएंगे। आखिर इकबाल ने यूं ही नहीं कहा था: ‘सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा।’

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