खरी-खरी: अब भी अपराजेय नहीं है बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति, बशर्ते...

चुनाव परिणामों का एकमात्र संदेश यह है कि हिन्दुत्व जीवित ही नहीं, फल-फूल रहा है और नरेंद्र मोदी अधिकांश तो नहीं, पर चुनाव जिताऊ नेता के रूप में भारतीयों के दिलों में राज कर रहे हैं।

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ज़फ़र आग़ा

आप पसंद करें या नहीं, हम ’न्यू इंडिया’ में हैं, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिन्दुत्व की मार्केटिंग सफलतापूर्वक की और भारतीय समाज के सबसे गरीब वर्ग को बदल दिया। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड तथा गोवा में बीजेपी की इस तरह की जीत को और आप किस तरह समझेंगे? इन तीन राज्यों, खास तौर से यूपी में बीजेपी की जीत का कोई कारण तो है नहीं। इन दिनों पूरा देश ही अभूतपूर्व आर्थिक संकट और बेरोजगारी से जूझ रहा है, कोविड महामारी में खास तौर से दवाओं, अस्पताल और ऑक्सीजन की कमी से लोगों की मृत्यु हुई, उसके बाद तो सामान्य परिस्थितियां रहतीं, तो योगी आदित्यनाथ सरकार की वापसी नहीं ही होनी चाहिए थी। लेकिन चुनाव परिणामों ने चुनावी पंडितों को झूठा ठहरा दिया है और योगी सरकार की विश्वसनीय बहुमत के साथ सत्ता में वापसी हुई है।

इस अनोखे राजनीतिक घटनाक्रम की कोई किस तरह व्याख्या करे? लगता है कि फ्री राशनऔर बाद में फ्री नमक-तेल के साथ हिन्दुत्व का तड़का यूपी और उत्तराखंड में बीजेपी के पक्ष में गया। इसमें गोवा को भी जोड़ ले सकता हैं क्योंकि वहां भी एंटी-इन्कम्बेंसी की तेज लहर थी। चुनाव परिणामों का एकमात्र संदेश यह है कि हिन्दुत्व जीवित ही नहीं, फल-फूल रहा है और नरेंद्र मोदी अधिकांश तो नहीं, पर चुनाव जिताऊ नेता के रूप में भारतीयों के दिलों में राज कर रहे हैं।

2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले विपक्षी दलों को एक साथ आकर इन सबका मुकाबला करने के लिए अब बहुत ज्यादा समय नहीं बचा है। विपक्ष निश्चित तौर पर उधेड़बुन में है। इन चुनाव परिणामों ने विपक्ष में निचले स्तर तक के कार्यकर्ताओं को और अधिक निरुत्साहित कर दिया है। लेकिन सांप्रदायिक राजनीति के खतरों से देश को बचाने के लिए जूझने वाली राजनीतिक पार्टियां एक-दू सरे की गलतियां तथा कमियां ढूंढने में वक्त जाया नहीं कर सकतीं।

जब हम विपक्ष की बात करते हैं, तो विपक्ष का नेतृत्व करने का प्राथमिक दारोमदार कांग्रेस पर आ जाता है। इस सबसे पुरानी पार्टी को लेकर भले ही कुछेक नेताओं में कुछ संकोच हो, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस के बिना किसी राष्ट्रीय विकल्प के बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन यह भी सच है कि अकेले कांग्रेस भी इस चुनौती का राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला नहीं कर सकती। कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को मिल-जुलकर 2024 में बीजेपी का मुकाबला करना होगा।

कांग्रेस को यूपीए की तरह उसे एक छतरी के नीचे सभी दलों का गठबंधन बनाना होगा जैसा उसने 2004 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में बनाया था और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार को हराया था।


बीजेपी से मुकाबले के लिए विपक्ष को एक मंच पर आने में अभी ही काफी देर हो चुकी है। स्वाभाविक तौर पर इसकी पहल कांग्रेस की ओर से की जानी होगी। क्षेत्रीय नेताओं ने अपने लिए राष्ट्रीय भूमिका निभाने की कोशिश तो की है लेकिन अपने संबंधित क्षेत्रों से बाहर वोटरों को प्रभावित करने में वे सक्षम नहीं हो पाए हैं। कांग्रेस को क्षेत्रीय नेताओं को उनका अपेक्षित सम्मान तो देना ही होगा, एकता और सर्वसम्मति बनाने का उत्तरदायित्व भी उसे निभाना होगा। इसका साफ मतलब है कि पार्टीको कई नेताओं के अहं को संतुष्ट करना होगा और निश्चित तौर पर यह काफी कठिन काम है। लेकिन सोनिया गांधी ने 2004 में इसका एक उदाहरण पेश किया था जब वह अपने ठीक बगल में रह रहे रामविलास पासवान के घर पर चली गई थीं और फिर, पासवान यूपीए में शामिल हो गए थे। हाल में पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव परिणाम आने के बाद पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ट्वीट कर ही चुके हैं कि पार्टी गलतियों से सीखने को तैयार है।

एक अन्य चुनौती जो कांग्रेस के सामने है, वह है अपनी एकता को बचाए रखना। नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत हासिल करने के लिए लगातार काम कर रहे हैं। वह कांग्रेस नेताओं के बीच फूट डालने की कोशिश करेंगे और संभव हो, तो पार्टी के विभाजन का प्रयास भी करेंगे। पार्टी में अब भी कई समूह हैं जो नेतृत्व के साथ मतभेदों को प्रकट कर रहे हैं। कुछ के खयाली मुद्दे होंगे जबकि कुछ के औचित्यपूर्ण मतभेद होंगे। पार्टी नेतृत्व को विस्तृत राष्ट्रीय हित में ऐसे तत्वों को मजबूती से अपने साथ रखने के लिए यथाशीघ्र खुली बातचीत करनी चाहिए। पार्टी के भीतर भिन्न मत रखने वालों का भी समान दायित्व है कि वे अपने मतभेदों को भुलाएं और वैसी पार्टी के साथ खड़े हों जिसने इतने वक्त उन्हें आगे बढ़ते रहने का अवसर दिया। कांग्रेस में कोई भी विभाजन अगर होता है, तो वह मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के लक्ष्य को पूरा करने में सहायक ही होगा। और इसे किसी कीमत पर सफल होने का अवसर नहीं दिया जा सकता।


यह कहना कम बयानी है कि भारत चौराहे पर है। हमारे संवैधानिक मूल्य खतरे में हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने अपने लाभ के लिए वस्तुतः हर संवैधानिक संस्था पर कब्जा कर लिया है। वास्तव में, यह पूरी तरह असंगत लड़ाई है। लेकिन कांग्रेस ने स्वतंत्रता आंदोलन की जब शुरुआत की थी, तो उस समय प्रबल ताकतवर ब्रिटिश साम्राज्य से उसने लड़ाई लड़ी थी और वह भी असमान लड़ाई थी। कांग्रेस को हिन्दुत्व के खिलाफ अपनी सारी शक्ति एकत्र करनी होगी और दूसरे विपक्षी दलों के साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा। चुनाव परिणामों ने बीजेपी के कवच में कमजोर इलाके भी दिखाए हैं। वह अपराजेय नहीं है और 2024 में बीजेपी को हराने का लक्ष्य उतना कठिन भी नहीं है जितना वह दिखता है।

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