देश में बड़े पैमाने पर हो रहा वेटलैंड का विनाश, लेकिन तालियां बजाने वाले कभी नहीं जानेंगे इनकी हकीकत

मोदी सरकार में पर्यावरण के नाम पर केवल वही किया जा सकता है, जिसे अन्तराष्ट्रीय मंचों से सुनाकर वाहवाही बटोरी जा सके। वेटलैंड के सन्दर्भ में भी ऐसा ही है। देश में 54 वेटलैंड रामसर सूचि में शामिल हैं, यह तालियों बाली बात है, पर तालियां बजाने वाले इन वेटलैंड की हालत कभी जानना नहीं चाहेंगें।

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महेन्द्र पांडे

हाल में ही भारत में 5 वेटलैंड को रामसर समझौते के तहत संरक्षित घोषित किया गया है, इसके बाद अबतक देश में ऐसे संरक्षित वेटलैंड की कुल संख्या 54 तक पहुंच गयी है। वेटलैंड दरअसल भूमि और पानी के मिलने का स्थान होता है, जिसे हम दलदली भूमि, नम-भूमि या आर्द्र भूमि के नाम से भी जानते हैं। वेटलैंड को प्रायः व्यर्थ भूमि या परती भूमि समझा जाता है, पर पर्यावरण में इनका विशेष योगदान है। इनका पारिस्थितिकी तंत्र बिलकुल अलग होता है, और भूमि पर रहने वाले 40 प्रतिशत से अधिक जंतुओं में प्रजनन वेटलैंड में ही होता है। जिन पांच वेटलैंड को हाल में ही संरक्षित दर्जा देकर रामसर सूचि में डाला गया है, वे है- तमिलनाडु का करिकिली पक्षी विहार, तमिलनाडु का पल्लिकरानाई मार्श रिज़र्व फारेस्ट, तमिलनाडु का ही पिछावरम मंग्रोव्, मिजोरम का पला वेटलैंड और मध्य प्रदेश का संख्या सागर। इससे पहले, इसी वर्ष फरवरी में भी 2 वेटलैंड को- गुजरात का खिजादिया वाइल्डलाइफ सैंक्चुयरी और उत्तर प्रदेश के बखिरा वाइल्डलाइफ सैंक्चुयरी को इस सूचि में शामिल किया गया था।

वर्ष 1971 में ईरान के रामसर शहर में वेटलैंड को संरक्षित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समझौता किया गया था, जिसपर वर्ष 1988 में भारत ने हस्ताक्षर किये थे। रामसर सूचि में भारत का पहला वेटलैंड जिसे शामिल किया गया था, वह था ओडिशा का चिल्का लेक। इसके बाद से 53 अन्य वेटलैंड इस सूचि में शामिल हो चुके हैं। हमारे देश 2 लाख से अधिक वेटलैंड हैं, जिनका कुल क्षेत्र लगभग 1.53 करोड़ हेक्टेयर है और यह क्षेत्र देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 4.7 प्रतिशत है। हमारे देश में वेटलैंड की मुख्य समस्या इनकी उपेक्षा, शहरीकरण, भूमि-उपयोग में परिवर्तन, इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं और प्रदूषण है। हाल में ही केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने कहा है कि सरकार वेटलैंड के विनाश को रोकने के लिए योजनाओं में समाज और नागरिक को शरीक करने जैसे सकारात्मक कदम उठा रही है। मंत्री जी के इस वक्तव्य से यह आशा तो नहीं जगती कि वेटलैंड बचाने के लिए कोई सार्थक कदम उठाये जायेंगें, पर इतना तो स्पष्ट होता है कि वेटलैंड का बड़े पैमाने पर विनाश हो रहा है।

वेटलैंड पर हमारी उदासीनता के उदाहरण तो दिल्ली को देख कर ही समझ आ जाता है। यमुना नदी का क्षेत्र पानी की कमी और प्रदूषण की मार झेल रहा है। सरकार इसे साफ़ करने के दावे करती है, और यमुना और प्रदूषित हो जाती है। हालत यह है कि बहुत से पर्यावरणविद अब इसे मृत नदी कहने लगे हैं। यमुना में मिलने वाले नजफगढ़ नाले का बड़ा क्षेत्र वेटलैंड बनाता है, पर पूरी तरह उपेक्षा का शिकार है, और दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित जल संसाधनों में शुमार है। दिल्ली में वजीराबाद के पास अनेक बड़े तालाब थे, जिनका उपयोग गंदे पानी को साफ़ करने के लिए लम्बे समय तक किया जाता था। अब इन तालाबों को समतल कर वहां अनेक इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं शुरू हो गयी हैं। लगभग तीन दशक पहले तक जहांगीरपुरी के पास का बड़ा क्षेत्र सक्रिय वेटलैंड था, पर अब इसपर अनेकों कंस्ट्रक्शन परियोजनाएं शुरू की गईं और अब ये वेटलैंड पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। दिल्ली जल बोर्ड के अधीन ये वेटलैंड थे, पर दिल्ली जल बोर्ड अब वेटलैंड को समतल कर यहां पार्क का विकास कर रहा है। इससे समझा जा सकता है कि किस तरह से वेटलैंड का लगातार विनाश किया जा रहा है। जहांगीरपुरी के वेटलैंड से वायु प्रदूषण का सम्बन्ध समझा जा सकता है। जबतक इस क्षेत्र में वेटलैंड बचे रहे तबतक यह क्षेत्र वायु प्रदूषण के संदर्भ में दिल्ली का सबसे कम प्रदूषित क्षेत्र रहा, पर इसके नष्ट होते ही यह दिल्ली का सबसे अधिक प्रदूषित क्षेत्र बन गया।

देश के अधिकतर वेटलैंड खतरे में हैं, पर सरकार संरक्षित वेटलैंड की संख्या बढ़ाकर खुश है, और दुनिया को गुमराह कर रही है। देश के अधिकतर वेटलैंड का वैज्ञानिक अध्ययन भी नहीं किया गया है, जाहिर है इनके बारे में, इनकी विशेषताओं के बारे में, इनके स्थानीय आबादी से सम्बन्ध के बारे में और इनके जीव-जंतुओं के बारे में जानकारी नहीं है। वेटलैंड की देश में चर्चा तभी होती है, जब कभी स्थानीय आबादी इसके संरक्षण के लिए संघर्ष करती है, या फिर बड़ी तादात में मरी मछलियां सतह पर तैरने लगती हैं।

ऐतिहासिक तौर पर हमारा देश तालाबों और पोखरों के सन्दर्भ में बहुत समृद्ध था। इन पोखरों पर स्थानीय आबादी निर्भर करती थी। यहां तक कि सिंचाई के लिए भी इनके पानी का उपयोग किया जाता था। इनमें हमेशा पानी भी रहता था क्योंकि बड़े तालाब हमेशा भूजल से जुड़े होते हैं। इसके बाद, जब सरकारों ने सिंचाई के लिए भूजल को सीधे निकालने की अनुमति दे दी, और किसान सीधे पंप लगाकर भूमि के नीचे से पानी खींचने लगे, तब उनके लिए तालाब बेकार हो गए। इसी दौरान सार्वजनिक स्थानों पर हैण्डपंप लगाए जाने लगे, जिससे तालाबों की उपयोगिता आबादी के लिए लगभग समाप्त हो गयी। जाहिर है, जब तालाबों की उपयोगिता समाप्त होने लगी तब ये आबादी द्वारा उत्सर्जित गंदे पानी को मिलाने के काम आने लगे और कचरे के ढेर इनके किनारों पर जमा किये जाने लगे।

खेतों के बीच के तालाब धीरे धीरे पाट कर खेतों में मिला लिए गए और आबादी के बीच के तालाबों पर घरों का निर्माण किया जाने लगा। हमारे देश में वेटलैंड के नाम पर केवल उन्हीं संसाधनों को आंशिक तौर पर सुरक्षित रखा गया है, जिनका पर्यटन के लिए महत्व है, दूसरी तरफ निर्बाध पर्यटन के कारण अनेक झीलें विनाश के कगार पर भी पहुंच गयी हैं।

हमारे देश में भले ही पर्यावरण संरक्षण पर खूब प्रवचन दिए जाते हों, वेदों के श्लोक सुनाये जाते हों और एक अंतहीन परंपरा का हवाला दिया जाता हो, पर सच यही है कि हमारा पर्यावरण केवल मनुष्य के लाभ पर आधारित है। हरेक प्राकृतिक संसाधनों का आकलन इसी आधार पर किया जाता है, हम यह पूरी तरह से भूल जाते हैं कि हरेक प्राकृतिक संसाधन पर मनुष्य जितना अधिकार दूसरे जंतुओं और वनस्पतियों का भी है। हमारे प्रधानमंत्री जी अन्तरराष्ट्रीय मंचों से बार-बार वसुधैव कुटम्बकम का जाप करते हैं, पर वे केवल धरती के मानवों की बात करते हैं, जबकि वसुधा यानि धरती पर मनुष्यों के अलावा सभी जीव-जंतु भी हैं।

मोदी सरकार में पर्यावरण के नाम पर केवल वही किया जा सकता है, जिसे अन्तराष्ट्रीय मंचों से सुनाकर वाहवाही बटोरी जा सके। वेटलैंड के सन्दर्भ में भी ऐसा ही है।

देश में 54 वेटलैंड रामसर सूचि में शामिल हैं, यह तालियों बाली बात है, पर तालियां बजाने वाले इन वेटलैंड की हालत कभी जानना नहीं चाहेंगें।

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