संकट में धाम: उत्तराखंड को मोदी के रूप में मिला ऐसा 'भक्त', जिसकी सरकार ने देवभूमि के सत्यानाश की जमीन कर दी तैयार!

चारधाम से जुड़ी परियोजनाएं सीधे मोदी की देखरेख में चल रही हैं। पिछले चार महीनों के दौरान उत्तराखंड और हिमाचल में बड़ी संख्या में भूस्खलन हुए। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने संसद को एक रिपोर्ट सौंपी है जिसके मुताबिक अकेले भागीरथी घाटी में 235 भूस्खलन क्षेत्र हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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रश्मि सहगल

हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों में स्थित पवित्र चार धाम हिन्दुत्व के सपने को साकार करने का अहम पड़ाव है। पिछले आठ वर्षों के दौरान नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार का पूरा ध्यान चार धाम, खास तौर पर केदारनाथ और बद्रीनाथ को विकसित करने और इस तरह हिंदुत्व का परचम बुलंद करने का रहा है। हर साल करोड़ों तीर्थयात्री इन आध्यात्मिक स्थलों की यात्रा कर सकें, इसके लिए सरकार इस क्षेत्र में हवाई और ट्रेन कनेक्टिविटी के अलावा चार लेन वाली सड़क तैयार करने पर हजारों करोड़ रुपये खर्च कर रही है। सवाल यह उठता है कि आम लोगों की मेहनत का यह पैसा क्या सही जगह पर खर्च हो रहा है?

अफसोस की बात है कि इतनी मोटी राशि के जाया हो जाने की आशंका है और बात सिर्फ पैसे की नहीं, बल्कि इस पूरे क्षेत्र की पारिस्थिती को विनाश के मुहाने तक ले जाने की है। केदारनाथ और बद्रीनाथ मास्टर प्लान को हिमोढ़ (ग्लेशियर के पिघलने से जमा होने वाले पत्थर, मिट्टी वगैरह का मलबा) पर क्रियान्वित किया जा रहा है। जाहिर है, इसमें मजबूती और स्थिरता नहीं है। इसके अलावा ये गतिविधियां ऐसे इलाके में हो रही हैं जो पहले से ही भूस्खलन, अचानक बाढ़ और हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं की संभावना वाले क्षेत्रों में हैं।

केदारनाथ प्रधानमंत्री की पसंदीदा जगह है और यहां बड़ी तादाद में फैंसी रिसॉर्ट्स और होटल खुल गए हैं। लेकिन ये मिनटों में बह सकते हैं, जैसा जून 2013 में हुआ था जब हिमस्खलन और चोराबारी झील के टूटने के बाद आई विनाशकारी बाढ़ ने केदारनाथ धाम को तबाह कर दिया था। इस साल सितंबर के अंत से अक्टूबर के पहले सप्ताह के बीच के दस दिनों में ही केदारनाथ में तीन हिमस्खलन आ चुके हैं। ये भूस्खलन केदारनाथ के प्रसिद्ध मंदिर से महज 3-4 किलोमीटर दूर हुए। हाल ही में उत्तरकाशी की पहाड़ियों पर आए जबर्दस्त भूस्खलन में 27 पर्वतारोही मारे गए। इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि हिमालय एक युवा पर्वत श्रृंखला है जिसमें बड़े पैमाने पर स्लेटी पत्थर हैं। स्लेटी पत्थर कमजोर तलछट चट्टानों से बने होते हैं। वैज्ञानिकों ने पर्यावरण की दृष्टि से इस संवेदनशील क्षेत्र में 500 से अधिक जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण के बारे में बार-बार चेतावनी दी है क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग अनिश्चित और भारी वर्षा की वजह बन रही है और इसका नतीजा यह है कि इस पूरे क्षेत्र में हिमस्खलन की घटनाएं बढ़ गई हैं। लेकिन वैज्ञानिकों की ये तमाम चेतावनियों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

चारधाम से जुड़ी ये परियोजनाएं सीधे तौर पर मोदी की देखरेख में चल रही हैं और प्रधानमंत्री इसके नतीजों को लेकर पूरी तरह बेखबर हैं जबकि पिछले चार महीनों के दौरान उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बड़ी संख्या में भूस्खलन हुए। गैरसरकारी संगठनों का कहना है कि गढ़वाल की पहाड़ियों में रोजाना तीन भूस्खलन हो रहे हैं जिनकी चपेट में आकर कई लोग मारे गए हैं और सैकड़ों घायल हुए हैं। हिमाचल प्रदेश में 2021 में प्राकृतिक आपदाओं के कारण कम-से-कम 246 मौतें हुईं और भूस्खलन के कारण 19,000 गांवों को संवेदनशील घोषित किया गया है।

लेकिन उत्तराखंड में तो अस्थिर क्षेत्रों की संख्या कहीं अधिक है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने संसद को एक रिपोर्ट सौंपी है जिसके मुताबिक, अकेले भागीरथी घाटी में 235 भूस्खलन क्षेत्र हैं। टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के दौरान 54 दिनों के लिए जेल में बंद रहने वाली पर्यावरण कार्यकर्ता सुशीला भंडारी ने केदारनाथ के आसपास के गांवों में रहने वाली कई महिलाओं के साथ सुरंग बनाने और सड़कों को चौड़ा करने के लिए डायनामाइट के लगातार इस्तेमाल के खिलाफ शिकायत की है। फोन पर बातचीत में भंडारी ने कहा, ‘तीन साल से मैं घर से बाहर निकलने से बचती हूं क्योंकि डायनामाइट विस्फोटों की वजह से भूस्खलन अधिक होने लगा है और इसकी चपेट में आकर घायल हो जाने का डर बना रहता है।' भंडारी ने बताया कि जब गृह मंत्री अमित शाह केदारनाथ आए थे, तो वह कार्यकर्ताओं के एक समूह के साथ उनसे मिलने गईं और उनके सामने भी यह बात उठाई थी और अमित शाह ने तब उन्हें भरोसा दिलाया था कि इन पहाड़ों में डायनामाइट का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। लेकिन सब वैसे ही जारी रहा।

तीर्थयात्रियों को बद्रीनाथ और केदारनाथ तक ले जाने के लिए 20,000 करोड़ रुपये की लागत से ऋषिकेश और कर्णप्रयाग के बीच बन रही 125 किलोमीटर लंबी रेलवे लाइन में 35 पुल और 17 सुरंगें होंगी। देवप्रयाग और लछमोली के बीच 15.1 किलोमीटर लंबी सुरंग को देश में सबसे लंबी होने का दावा किया जा रहा है। इन सारी गतिविधियों में विस्फोट किए जा रहे हैं जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ता है। इससे स्वीथ, धमक नकरोटा और डोबरीपंथ गांवों के 224 घरों में दरारें आ गई हैं जिसके कारण यहां के लोगों ने इस साल के शुरू में पांच दिनों तक ऋषिकेश-श्रीनगर मार्ग पर यातायात को रोक दिया था। उन्होंने श्रीनगर के उप-मंडल मजिस्ट्रेट अजय वीर सिंह से शिकायत की जिन्होंने बदले में रेलवे को इन ग्रामीणों को 1.58 करोड़ रुपये का मुआवजा पैकेज देने की सिफारिश की। लेकिन रेलवे ने यह कहते हुए मुआवजे से इनकार कर दिया कि वह पूरी तरह वैज्ञानिक मानदंडों के आधार पर निर्माण कर रहा है।

वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. विक्रम गुप्ता ने इस बात पर अफसोस जताया कि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में सड़क निर्माण परियोजनाओं पर काम कर रहे ठेकेदार पहाड़ पर ढलान काटने और उसके बाद काटे गए हिस्से को सुरक्षित करने के संबंध में तय मानकों का ध्यान नहीं रखते। गुप्ता ने दूसरे वैज्ञानिकों के साथ मिलकर हिमाचल प्रदेश में 44 भूस्खलन-संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान की जिनमें से पांच तो बेहद अस्थिर थे और उनपर फौरन ध्यान देने की जरूरत थी। वह और उनकी टीम ने सड़कों को 10 मीटर चौड़ा करने के खिलाफ चेताया था। लेकिन वह इस बात पर बेचारगी जाहिर करते हैं कि वैज्ञानिकों की बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

एनजीओ ‘गंगा आवाहन’ के कार्यकर्ता हेमंत ध्यानी बताते हैं कि हिमालयी इलाकों में 5.5 मीटर चौड़ी सड़कें ही उपयुक्त हैं और 2018 तक इसी मानक का पालन किया जाता था। ध्यानी का मानना है कि सरकार चार धाम सड़क को इसलिए चौड़ा कर रही है ताकि यहां टोल टैक्स वसूला जा सके जैसा कि हिमाचल में हो रहा है। ध्यानी ने कहा, ‘सरकार चार धाम मार्ग पर 900 किलोमीटर सड़क को चौड़ा करने के लिए 12,000 करोड़ रुपये खर्च कर रही है जो प्रति किलोमीटर 8-10 करोड़ रुपये से भी ज्यादा है जबकि पहाड़ी इलाकों में सड़क बनाने का बजट लगभग 80 लाख रुपये प्रति किलोमीटर है।’

पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के संस्थापक और सुप्रीम कोर्ट की उच्चाधिकार समिति का नेतृत्व करने वाले डॉ. रवि चोपड़ा ने चार धाम परियोजना के लिए मध्यम चौड़ाई की सड़कों की सिफारिश की थी लेकिन सड़क परिवहन मंत्री ने यह कहते हुए इसे मानने से इनकार कर दिया कि रक्षा मंत्रालय को चौड़ी सड़क की जरूरत है। इसके विरोध में डॉ. चोपड़ा ने समिति से इस्तीफा दे दिया। लेकिन यह केवल हिमालय के ऊपरी क्षेत्र ही नहीं हैं जो बड़े पैमाने पर वनों की कटाई, अंधाधुंध खनन और बढ़ते शहरीकरण से प्रभावित हो रहे हैं। 2011 के आईआईटी रुड़की के एक अध्ययन से पता चला है कि पिछले एक दशक में दून घाटी में भूस्खलन संभावित क्षेत्र 20 से बढ़कर 100 हो गए हैं। इससे भी कहीं ज्यादा गंभीर समस्या यह है कि ऐसे निर्माण राजधानी के आसपास के प्राकृतिक झरनों और जलग्रहण क्षेत्रों को नष्ट कर रहे हैं। भू-माफिया को नदी जलग्रहण क्षेत्रों पर अतिक्रमण करने की जैसे छूट दे दी गई है।

उत्तराखंड में बेतरतीब बनाई जा रही सड़कों की श्रृंखला में 13 हजार करोड़ की लागत से बनने वाली अक्षरधाम मंदिर से देहरादून तक की 210 किलोमीटर लंबी सड़क भी शामिल हो गई है जबकि दोनों स्थलों के बीच पहले से ही चार लेन वाली सड़क है। नई सड़क के कारण देहरादून के पौराणिक साल वन जिसे रवि चोपड़ा ‘प्रदेश की आत्मा’ कहते हैं, बड़ी संख्या में पेड़ों को काटना पड़ेगा। इसके अलावा यह राजाजी नेशनल पार्क और शिवालिक हाथी कॉरिडोर से होकर भी गुजरेगी। नैनीताल हाईकोर्ट में इस सड़क के खिलाफ जनहित याचिका दायर करने वाली पर्यावरण कार्यकर्ता रीना पॉल ने बताया कि सड़क का 12 किलोमीटर हिस्सा नदी के ऊपर ओवर ब्रिज के रूप में बनाया जा रहा है। उनका कहना है कि ‘मोहंद राव, सुख राव, सोलाई, चिल्लावल, चिका रोआ, बिंज राव और अदेरी राव जैसी तमाम नदियों पर इसका असर पड़ेगा और इससे पश्चिमी यूपी की जल सुरक्षा प्रभावित होगी। जिस अशरोड़ी रिज पर यह एक्सप्रेस-वे बनाया जा रहा है, वह हिंडन और सलोनी सहित 20 नदियों का स्रोत है।’

कचरे और मलबे का निपटान अपने आप में एक बड़ी समस्या है। 2021 में उत्तराखंड के पूर्व मंत्री दिनेश धानी ने टिहरी जिले में नदियों और घाटियों में अंधाधुंध डंपिंग के विरोध में एक दिवसीय धरना दिया। धानी ने कहा, ‘यह सब मलबा अब हमारे घर और खेत में बह रहा है और फसलों को नष्ट कर रहा है।’ अंधाधुंध निर्माण से कई कस्बे और गांव प्रभावित हो रहे हैं। चिपको आंदोलन के गढ़ रैनी गांव को खतरनाक घोषित कर दिया गया है और लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाया जा रहा है। फरवरी 2021 में एनटीपीसी की 520 मेगावाट की तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना के हिमस्खलन से नष्ट हो जाने से इस गांव में भारी बाढ़ आई थी। रैनी के प्रधान भवन राणा कहते हैं, 'जिस गांव ने चिपको आंदोलन का नेतृत्व करने वाली गौरी देवी जैसा योद्धा दिया, आज सरकारी नीतियों का शिकार है और हमें पुश्तैनी घरों से निकलने को मजबूर किया जा रहा है।'

जाने-माने भूविज्ञानी और गढ़वाल विश्वविद्यालय में बेसिक एंड सोशल साइंस विभाग के प्रमुख डॉ. एसपी सती बताते हैं कि कैसे इन नाजुक पहाड़ों में शहर-दर-शहर डूब रहा है। उन्होंने कहा, ‘बद्रीनाथ मंदिर और हेमकुंड साहब का प्रवेश द्वार जोशीमठ डूब रहा है क्योंकि यह भूस्खलन में आए मलबे की मोटी परत पर बसा है जो स्वाभाविक रूप से अस्थिर है।’डॉ. सती ने चेताया कि गंगोत्री, जोशीमठ, उत्तरकाशी और गोपेश्वर जैसे तमाम शहरों पर डूबने का खतरा है।

हिन्दू धर्म के इन पवित्र शहरों को नरेन्द्र मोदी जैसा ‘उत्साही भक्त’ मिल गया है जिसकी सरकार ने इन्हें सर्वसुलभ बनाने के नाम पर इनके सत्यानाश की जमीन तैयार कर दी है।

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