आपदा से प्रजातंत्र को खतरा, सत्ता की निरंकुशता और जनता के दमन के लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार!

हाल में ही एक नए अध्ययन में यह खुलासा किया गया है कि आपदा, विशेष तौर पर प्राकृतिक आपदा के बाद सत्ता की निरंकुशता पहले से अधिक बढ़ जाती है। पहले प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति का समय लंबा था, पर अब जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से यह एक वार्षिक और लगातार घटना है।

फोटोः पीटीआई
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महेन्द्र पांडे

हमारे प्रधानमंत्री हमेशा आपदा में अवसर की बात करते हैं– किसी भी आपदा में जनता को कोई अवसर तो नहीं मिलता पर सत्ता को अपनी निरंकुशता तेजी से बढ़ाने और जनता का नए सिरे से दमन का अवसर जरूर मिल जाता है। याद कीजिए, वर्ष 2020 का वह दौर जब कोविड 19 एक आपदा बन कर उभरा था। उस दौर में लाखों व्यक्ति सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घरों तक पैदल गए, और सत्ता उनकी मदद के बदले उन्हें प्रताड़ित करती रही। अनेक पत्रकार जो इन श्रमिकों की व्यथा और सरकारी अकर्मण्यता को उजागर कर रहे थे, उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। दूसरी तरफ इसी दौर में दिल्ली दंगों की धार्मिक उन्माद में रंगी चार्जशीट दायर की गई, और अनेकों निरपराधों को जेल में बंद कर दिया गया, और साथ ही उन पत्रकारों को भी बंद किया गया जो तथ्यों को उजागर कर रहे थे। यही हमारे प्रधानमंत्री के लिए आपदा में अवसर के मायने हैं।

हाल में ही एक नए अध्ययन में यह खुलासा किया गया है कि आपदा, विशेष तौर पर प्राकृतिक आपदा, के बाद सत्ता की निरंकुशता पहले से अधिक बढ़ जाती है। पहले प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति का समय लंबा था, पर अब जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से यह एक वार्षिक और लगातार घटना है। जाहिर है, जलवायु परिवर्तन सत्ता की निरंकुशता और जनता के दमन के लिए जिम्मेदार है। बाढ़ और भयानक सूखा जैसी चरम पर्यावरणीय आपदाएं अब दुनिया के लिए सामान्य स्थिति है, क्योंकि पूरे साल कोई ना कोई क्षेत्र इनका सामना कर रहा होता है। जब ऐसी स्थितियां यूरोप, अमेरिका या एशिया के कुछ देशों में पनपती हैं तब दुनिया भर का मीडिया इन्हें दिखाता है, पर अफ्रीका, प्रशांत क्षेत्र और दक्षिण अमेरिकी देशों के मामले में मीडिया चुप्पी साध लेता है। वैश्विक मीडिया के लिए पूरी दुनिया गोरे और अमीर आबादी में सिमट कर रह गई है। चरम पर्यावरणीय आपदाएं भी जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के सन्दर्भ में एक गलत नाम है, क्योंकि इन चरम घटनाओं का कारण प्रकृति और पर्यावरण नहीं है, बल्कि मनुष्य की गतिविधियां हैं, जिनके कारण बेतहाशा ग्रीनहाउस गैसों का वायुमंडल में उत्सर्जन हो रहा है।

जर्नल ऑफ डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में सत्ता की निराकुशता पिछले कुछ वर्षों से बढ़ती जा रही है, और इन्हीं वर्षों के दौरान जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से प्राकृतिक आपदाओं की संख्या भी तेजी से बढी है। इस अध्ययन के अनुसार चरम प्राकृतिक आपदाओं और सत्ता द्वारा जनता के दमन का सीधा संबंध है। इस अध्ययन को डाकिन यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्रियों, वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों के एक दल ने किया है। इसमें प्रशांत क्षेत्र, पूर्वी एशिया और कैरीबियन क्षेत्र के 47 छोटे द्वीपीय देशों में वर्ष 1950 से 2020 के बीच प्राकृतिक आपदाओं और प्रजातंत्र के स्तर का आकलन किया गया है, और इनें सम्बन्ध निर्धारित किया गया है। प्रजातंत्र के स्तर के आकलन के लिए पोलिटी-2 विधि का सहारा लिया गया है, जो प्रजातंत्र के स्तर के आकलन के लिए दुनियाभर में उपयोग में लाया जाता है। प्राकृतिक आपदाओं के बारे में जानकारी सम्बंधित देशों के मौसम विभाग से प्राप्त की गई।


इस अध्ययन के अनुसार चरम प्राकृतिक आपदाओं से केवल समाज, स्वास्थ्य और प्राकृतिक संसाधन ही प्रभावित नहीं होते बल्कि राजनैतिक माहौल भी प्रभावित होता है, पर इसकी चर्चा शायद ही कभी की जाती है। एक चरम प्राकृतिक आपदा का प्रभाव सात वर्षों तक रहता है, और इस दौरान प्रजातंत्र के स्तर में लगभग 25 प्रतिशत की गिरावट आती है। आपदा के बाद पहले वर्ष में ही प्रजातंत्र के स्तर में 4.25 प्रतिशत की गिरावट आ जाती है। आपदा के बाद प्रजातंत्र में गिरावट के असर से जनता की आजादी, राजनैतिक आजादी, सभा/आन्दोलन की आजादी और अभिव्यक्ति की आजादी भी प्रभावित होती है। कुल मिलाकर मानवाधिकार प्रभावित होता है।

दुनियाभर के मानवाधिकार से सम्बंधित गैर-सरकारी सिविल सोसाइटीज की संस्था सिविकस मोनिटर ने दुनिया में लोकतंत्र के हालात पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिसमें प्रजातंत्र की शवयात्रा की विस्तार से चर्चा है। इस रिपोर्ट में दुनिया के देशों को लोकतंत्र के सन्दर्भ में 5 वर्गों में बांटा गया है – जीवंत, संकीर्ण, बाधित, कुचला हुआ और अलोकतंत्र। सिविकस मोनिटर दुनिया के 197 देशों के लोकतंत्र की पड़ताल कर हरेक वर्ष रिपोर्ट प्रकाशित करता है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत का लोकतंत्र कुचला हुआ और अमेरिका का लोकतंत्र बाधित है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के महज 41 देशों में जीवंत लोकतंत्र है – इन देशों में दुनिया की महज 3.1 प्रतिशत आबादी बसती है। कुल 39 देशों में 8.3 प्रतिशत आबादी के साथ संकीर्ण लोकतंत्र है, 43 देशों में 18.4 प्रतिशत आबादी के साथ बाधित लोकतंत्र, दुनिया के 49 देशों में 44.7 प्रतिशत आबादी के साथ कुचला हुआ लोकतंत्र और शेष 25 देशों में 25.4 प्रतिशत आबादी पूरी तरह से अलोकतांत्रिक व्यवस्था में रहती है।


लोकतंत्र कुचलने के लिए सरकारें सबसे अधिक विरोधी आवाजों को जेल में बंद करने का काम करती हैं, इसके अतिरिक्त धमकी, कानून का गैर-कानूनी इस्तेमाल, उत्पीडन, हत्या, प्रेस की आवाज कुचलना, सेंसरशिप, सुरक्षा बलों का अत्यधिक उपयोग, और आन्दोलनों को कुचलने का काम भी सरकारें कर रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के इतिहास में पहली बार दुनियाभर की सरकारों ने वैश्विक महामारी को नियंत्रित करने के नाम पर लोकतंत्र की खूब धज्जियां उड़ाईं हैं। कोविड 19 को ही सरकारों ने जनता के विरुद्ध एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया – नतीजा सबके सामने है, स्वास्थ्य विज्ञान में तमाम प्रगति के बाद भी किसी भी वैश्विक महामारी की तुलना में कोविड 19 से अधिक लोग मारे गए, और आज भी मारे जा रहे हैं।

34 देशों के सरकारों के सहयोग से बना स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में स्थित इन्टरनेशनल इंस्टिट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड इलेक्शन असिस्टेंस पिछले कुछ वर्षों से वार्षिक ग्लोबल स्टेट ऑफ डेमोक्रेसी रिपोर्ट प्रकाशित करता है, जिसमें दुनिया के लगभग 160 देशों में लोकतंत्र का विस्तृत विश्लेषण रहता है। यह विश्लेषण पिछले 50 वर्षों के लोकतांत्रिक पैमाने के आधार पर किया जाता है। दुखद तथ्य यह है कि लोकतंत्र के परदे से निरंकुश शासन चलाने वाले देशों की संख्या वास्तविक लोकतंत्र वाले देशों की संख्या से अधिक है, दुनिया की एक-चौथाई से अधिक आबादी इन देशों में रहती है, और पिछले 10 वर्षों में ऐसे देशों की संख्या में दुगने से भी अधिक की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट के अनुसार इन देशों में से महज 98 लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश हैं, यह संख्या किसी भी वर्ष की तुलना में सबसे कम है और इसमें भी अधिकतर देशों में लोकतंत्र का बस पर्दा है। दुनिया में 20 देशों, जिसमें रूस और तुर्की प्रमुख हैं, में हाइब्रिड शासन है और 47 में निरंकुश तानाशाही है। हाल में ही प्रकाशित वर्ष 2021 की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी मरते लोकतंत्र या फिर निरंकुश तानाशाही की मार झेल रही है। फरवरी 2022 में द इकोनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट द्वारा प्रकाशित लोकतंत्र सूचकांक 2021 में 167 देशों में से 21 को पूर्ण लोकतंत्र, 53 को त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र, और शेष को मिश्रित शासन और सत्तावादी शासन के रूप में वर्गीकृत किया गया था।

जर्नल ऑफ डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार आपदाओं के बाद सरकारें जनता की मदद तो करती हैं, पर इसी मदद के नाम पर अपनी निरंकुशता भी बढ़ाती जाती हैं। दुखद यह है कि अधिकतर मामलों में आपदा के बाद जनता स्वयं सत्ता को अपने दमन की छूट देती है। मदद और सहायता के नाम पर सरकार को दमन के लिए एक सामाजिक लाइसेंस मिल जाता है। ऐसी आपदाओं के समय सत्ता पूरी तरह व्यक्तिवादी हो जाती है, और सेना की भूमिका बढ़ जाती है। आपदा के नाम पर सीमाओं से सेना को हटाकर जनता के बीच हरेक जगह भेज दिया जाता है। हरेक देश में सेना को आपदाओं से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाता है, और सेना के जवान इसे बखूबी से करते भी हैं। समस्या तब खड़ी होती है, जब आपदा के बाद भी सेना जनता के बीच अपना डेरा जमाये रखती है, और सत्ता के इशारे पर मानवाधिकार हनन की कार्यवाही करती है। आपदाओं के बाद सत्ता चुनावों में अधिक हस्तक्षेप करती है और इसके साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और राजनैतिक विपक्षियों का दमन करती है।

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