भारत और रूस के बीच तेजी से बढ़ती दूरियां, अमेरिकी रक्षा मंत्री के दौरे से और गहराने की संभावना

नब्बे के दशक में सोवियत संघ के बिखरने के बाद से करीब तीन दशक तक दुनिया एक-ध्रुवीय रही। अब वह फिर से दो ध्रुवों में विभाजित होती नजर आ रही है। एक हिस्से का नेतृत्व चीन के पास है, जिसमें रूस उसका सहायक है और दूसरे का अमेरिका के पास है।

फाइल फोटोः सोशल मीडिया
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प्रमोद जोशी

भारत और पाकिस्तान से जूड़े मामलों के पूर्व रूसी प्रभारी ग्लेब इवाशेंत्सोव ने तीन साल पहले एक वीडियो कांफ्रेंस में कहा था कि इस्लामाबाद के साथ बढ़ते रूसी सामरिक रिश्तों को अब रोका नहीं जा सकेगा। ऐसा करना हमारे हित में नहीं होगा। पाकिस्तान एक महत्वपूर्ण देश है, जिसकी क्षेत्रीय और वैश्विक मामलों में अहम भूमिका है। पाकिस्तान के साथ रूस की बढ़ती नजदीकी के समांतर भारत के साथ उसकी बढ़ती दूरी भी नजर आने लगी है। भले ही यह अलगाव अभी बहुत साफ नहीं है, पर अनदेखी करने लायक भी नहीं है। इसे अफगानिस्तान में चल रहे शांति-प्रयासों और हाल में हुए क्वाड शिखर सम्मेलन की रोशनी में देखना चाहिए।

पिछले साल तालिबान के साथ हुए समझौते के तहत अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी की तारीख 1 मई करीब आ रही है। अमेरिका में प्रशासनिक परिवर्तन हुआ है। राष्ट्रपति जो बाइडेन की नीति बजाय एकतरफा वापसी के सामूहिक पहल के सहारे समाधान खोजने की है। हमारी दृष्टि से महत्वपूर्ण बात यह है कि अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र के झंडे-तले एक पहल शुरू की है, जिसमें भारत को भी भागीदार बनाया है।

हिंद-प्रशांत गठजोड़

इस सिलसिले में हाल में अमेरिका के विशेष दूत जलमय खलीलजाद अफगानिस्तान आए थे, वहां से उन्होंने भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर के साथ फोन पर बातचीत की। इस बीच 19 से 21 मार्च तक अमेरिकी रक्षामंत्री जनरल लॉयड ऑस्टिन भारत-यात्रा पर आ रहे हैं। इस दौरान न केवल अफगानिस्तान, बल्कि हिंद-प्रशांत सुरक्षा के नए गठजोड़ पर बात होगी। इन दोनों बातों का संबंध भारत-रूस रिश्तों से भी जुड़ा है।

जनरल ऑस्टिन की यात्रा शुरू होने के एक दिन पहले 18 मार्च को मॉस्को में अफगानिस्तान को लेकर एक और बातचीत होने जा रही है, जिसमें रूस, चीन, अमेरिका की तिकड़ी के अलावा पाकिस्तान, अफगान सरकार और तालिबान प्रतिनिधि भाग लेंगे। इसमें भारत को नहीं बुलाया गया है, जबकि फरवरी 2019 में हुई मॉस्को-वार्ता में भारत भी शामिल हुआ था।

उधर बाइडेन प्रशासन ने संयुक्त राष्ट्र से कहा है कि चीन, रूस, पाकिस्तान, भारत और ईरान के विदेश मंत्रियों की एक बैठक बुलाए, ताकि अफगानिस्तान में शांति की एकीकृत पद्धति का विकास किया जा सके। इसमें नाटो का नाम होने से यूरोप में विस्मय हो सकता है। पर इसमें भारत और ईरान के नामों को शामिल करके अमेरिका ने ‘रूसी-चीनी गठजोड़’ से भारत को अलग करने में सफलता हासिल कर ली है।

भारत का नाम काटा

जिस वक्त इस विमर्श में भारत को शामिल करने की खबरें आईं, उसी समय एक खबर यह भी थी कि रूस ने पाकिस्तानी पहल पर मॉस्को-वार्ता से भारत का नाम काटा था। खबर इतनी ही नहीं थी। खबर यह भी थी कि रूस ने अमेरिका से कहा था कि अफगानिस्तान पर वह संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में जिस बैठक का सुझाव दे रहा है, उसमें भारत को शामिल नहीं करे।

भारतीय मीडिया में इस आशय की खबरें प्रसारित होने के फौरन बाद रूसी दूतावास ने एक सफाई पेश की और कहा कि अफगानिस्तान में शांति-प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिए भारत की भागीदारी अंततः (इवेंचुअल) होगी। इस बयान में 'अंततः' शब्द काफी महत्वपूर्ण है, जो भारत की फौरी भागीदारी को नकारता है।

अमेरिका के संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव और रूस के मॉस्को-वार्ता प्रस्ताव में किसी प्रकार का टकराव नहीं है। रूसी-प्रस्ताव क्षेत्रीय स्तर पर हालात बेहतर बनाने की कोशिश है, जबकि अमेरिकी प्रस्ताव का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय हालात को अनुकूल बनाने के लिए है, पर इसे संयोग मानें कि ईरान ने मॉस्को-वार्ता में शामिल होने में असमर्थता व्यक्त की है, जबकि उसे बुलावा भेजा गया था। रूस, चीन और पाकिस्तान तीनों की दिलचस्पी अफगानिस्तान की भावी-व्यवस्था में है। चीन और पाकिस्तान की बेरुखी समझ में आती है, पर रूसी दृष्टिकोण में बदलाव पर गौर करने की जरूरत है।

रूस और भारत दोनों के नजरियों से देखें, तो यह अलगाव आसान नहीं है। दोनों देशों के रिश्ते इतनी आसानी से बिगड़ नहीं सकते, पर इतना सच है कि वे अब उतने अच्छे नहीं हैं, जितने अच्छे हुआ करते थे। इसके पीछे दुनिया के बदलते हालात भी हैं। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के बिखरने के बाद से करीब तीन दशक तक दुनिया एक-ध्रुवीय रही। अब वह फिर से दो ध्रुवों में विभाजित होती नजर आ रही है। एक हिस्से का नेतृत्व चीन के पास है, जिसमें रूस उसका सहायक है और दूसरे का अमेरिका के पास है।

दांव पर गुट-निरपेक्षता

गुट-निरपेक्षता की नीति पर चलने के बावजूद भारत का रूसी-झुकाव कभी छिपा नहीं रहा, पर अब हालात तेजी से बदल रहे हैं। भारत-अमेरिका के संबंध गहरे हो रहे हैं। भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान का ‘क्वाड’ अब शक्ल ले चुका है, पर यह भी स्पष्ट किया गया है कि यह केवल सामरिक गठबंधन नहीं है और इसका लक्ष्य चीन नहीं है। इसकी शुरुआत कोविड-19 वैक्सीन की उपलब्धता बनाए रखने से हो रही है।

रक्षा-तकनीक में भारत ने तेजी से अमेरिका के साथ सहयोग करना शुरू किया है। हालांकि, एस-4000 एयर डिफेंस सिस्टम को लेकर अमेरिकी पाबंदियों की तलवार अब भी भारत पर लटकी हुई है, पर भविष्य की तस्वीर भी दिखाई पड़ने लगी है। नए ध्रुवीकरण पर पुराने शीत-युद्ध की छाप हो, ऐसा भी जरूरी नहीं। आज की दुनिया अस्सी साल पहले जैसी नहीं रही। हम वैश्वीकरण के दौर में हैं, इसलिए नए ध्रुवीकरण के कारक तत्व भी नए होंगे।

एक तरफ भारत-अमेरिका रिश्ते सुधर रहे हैं, वहीं रूस के साथ रिश्तों को बनाए रखने की कोशिशें भी जारी हैं। गत 17-18 फरवरी को भारत के विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला मॉस्को-यात्रा पर गए थे। नरेंद्र मोदी और व्लादिमीर पुतिन के बीच शिखर सम्मेलन भी होना है। हाल में ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में एक मौका मिला भी है। पिछले दिनों पुतिन को भारत-यात्रा पर आना था, पर वह यात्रा रद्द कर दी गई थी।

विशेषज्ञ यह सवाल जरूर पूछ रहे हैं कि वर्चुअल संवाद क्यों नहीं हुआ? दोनों देशों के बीच लॉजिस्टिक सहयोग का एक समझौता होना है, जो रुका हुआ है। जिस तरह भारत और अमेरिका के बीच ‘टू प्लस टू’ वार्ता चल रही है, जो महामारी के दौरान भी हुई। उसी तर्ज पर रूस-भारत वार्ता भी हो सकती है। हर्ष श्रृंगला ने अपनी रूस-यात्रा के दौरान कहा था, हिंद-प्रशांत का जिक्र किए बगैर वैश्विक भू-राजनीतिक विमर्श अधूरा रहेगा। भारत की चीन-नीति से रूस को भी वाकिफ होना पड़ेगा। उन्होंने यह भी कहा कि असहमतियों के साथ-साथ दोनों देश आपसी सहमतियों पर भी विचार करेंगे।

भारत की चीन-नीति

पिछले साल भारत की विदेश नीति में एक बड़ा मोड़ आया। यह मोड़ चीन के खिलाफ कठोर नीति अपनाने और अमेरिका की ओर झुकाव बढ़ाने से जुड़ा है। संकेत पहले से थे, पर लद्दाख में टकराव और फिर टोक्यो में भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद चतुष्कोणीय सुरक्षा योजना को मजबूती मिली। फिर भारत में अमेरिका के साथ ‘टू प्लस टू’ वार्ता और नवंबर के महीने में मालाबार अभ्यास में ऑस्ट्रेलिया के भी शामिल हो जाने के बाद यह बात साफ हो गई कि भारत अब काफी हद तक पश्चिमी खेमे में है।

भारतीय विदेश-नीति किसी एक गुट के साथ चलने की नहीं रही है। शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद दबाव भी नहीं रह गया। पर उसके पहले भी भारत की ‘असंलग्नता’ अधूरी थी। उसके पीछे तमाम कारण थे, पर भारत पूरी तरह गुट निरपेक्षता का पालन नहीं कर रहा था। बदलाव रूसी नीति में भी है। रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने क्वाड के संदर्भ में पिछले साल नवंबर में अंतरराष्ट्रीय मामलों की रूसी कौंसिल के एक संवाद में कहा था कि चीन के खिलाफ आक्रामक रणनीति में भारत को मोहरा बनाया जा रहा है।

वह पहला मौका नहीं था, जब रूस ने भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की सहभागिता से विकसित हो रहे क्वाड की आलोचना की थी, पर पहली बार भाषा और स्वर बदले हुए सुनाई पड़े। यह प्रतिक्रिया चीन के साथ रूसी निकटता को भी व्यक्त कर रही थी। लावरोव ने कहा कि पश्चिम की कोशिश है कि दुनिया एक ध्रुवीय बनी रहे। पर रूस और चीन जैसे ‘ध्रुव’ उसके अधीन आने से रहे। अलबत्ता भारत इस समय पश्चिम की निरंतर आक्रामक रणनीति का विषय है। वे तथाकथित ‘क्वाड’ के माध्यम से उसका इस्तेमाल हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी चीन-विरोधी नीतियों के लिए करना चाहते हैं। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिम ने दुनिया को बहु-ध्रुवीय बनाने की कोशिशों को खारिज करने के लिए एक ‘खेल’ शुरू किया है।

उस संवाद में एस जयशंकर ने लावरोव के फौरन बाद अपनी बात रखी और अपनी असहमति जाहिर की और ‘नियम-आधारित दुनिया’ को परिभाषित किया। जयशंकर ने कहा- ‘नियम-आधारित दुनिया’ का मतलब है अंतरराष्ट्रीय कानून से भी ज्यादा, कम नहीं। यह बात दक्षिण चीन सागर में चीनी हठधर्मी के संदर्भ में कही गई थी। अभी तक बातें दबी-छिपी थीं, जो अब मुखर हो रही हैं।

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