डिजिटल अमरता के मुहाने पर खड़ी दुनिया के लिए क्या बनाने पडे़ंगे नए वसीयत कानून!
वह दिन दूर नहीं जब सरकारों को डिजिटल संपत्ति के लिए उसी तरह कानून बनाने पड़ेगे जिस तरह भौतिक संपत्ति के लिए बनाए गए।

अपनी मौलिक और विचारोत्तेजक पुस्तक ‘होमो डेस’ में युवाल नोआ हरारी ने अमरत्व के लिए मनुष्य की खोज के बारे में बेहद रोचक टिप्पणियां की हैं। उनका मानना है कि भुखमरी (अकाल), बीमारी (महामारी) और हिंसा (युद्ध) पर विजय प्राप्त करने के बाद- जो सदियों से मौत के प्रमुख कारण रहे हैं- 21वीं और 22वीं सदी में मानवजाति मृत्यु पर विजय पाने और अमरत्व प्राप्त करने का प्रयास करेगी। आधुनिक मनुष्य के लिए मृत्यु एक तकनीकी समस्या है और हर तकनीकी समस्या के लिए एक तकनीकी समाधान होता है।
हरारी का मानना है कि अमरता के रास्ते की तलाश आनुवांशिक इंजीनियरिंग, पुनरुत्पादन से जुड़ी चिकित्सा पद्धति और नैनो प्रौद्योगिकी से की जा सकती है। दरअसल वह ‘अमरत्व’ तो नहीं किंतु वक्त के साथ विभिन्न अंगों के स्वास्थ्य में आई गिरावट के कारण मृत्यु की संभावनाओं को रोकने की बात करते हैं। तब इंसान अप्रत्याशित दुर्घटनाओं को छोड़कर मर नहीं सकेगा और (उनका मानना है कि) मनुष्य का जीवन समय बंधन से मुक्त हो जाएगा।
यह एक अत्यंत विचारोत्तेजक परिकल्पना है लेकिन शायद हमें इसका उदाहरण अमेरिकी अरबपति ब्रायन जॉनसन के रूप में देखने को मिलने वाला है जिन्होंने नहीं मरने को अपना लक्ष्य बना लिया है और उनकी कोशिश है कि वह बुढ़ापे की स्थिति को उलट दें और अमर न भी हों तो कम-से-कम 150 साल की उम्र तक तो जिएं ही।
इसे प्राप्त करने के लिए वह उन्हीं तीन साधनों का उपयोग कर रहे हैं जिनका उल्लेख हरारी ने किया था और इस प्रयास पर वह हर साल दो मिलियन डॉलर खर्च कर रहे हैं। टाइम पत्रिका के शब्दों में वह अपने शरीर को एंटी-एजिंग एल्गोरिदम में बदल रहे हैं। वह 45 वर्ष के हैं लेकिन उनका शरीर 18 वर्षीय व्यक्ति जैसा है। इस व्यक्ति का मानना है कि वह हमेशा जीवित रह सकता है और उसने एक किताब भी लिखी है जिसका शीर्षक है- डोन्ट डाई!
आप पूछ सकते हैं कि आखिर मैं आपको यह सब क्यों बता रहा हूं? क्योंकि, बेशक जैविक अमरता अभी भविष्य की बात है लेकिन डिजिटल अमरता तो हमारे दरवाजे पर खड़ी है। हममें से ज्यादातर लोग इसका बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं ताकि अपने प्रियजनों के साथ फिर से जुड़ सकें। उदाहरण के लिए, हम सभी की सामाजिक और पारिवारिक संपत्ति हमारे वाट्सएप पर है और अगर आप मेरी पीढ़ी (1950 या उससे पहले) के हैं तो इस बात को समझेंगे कि हर गुजरते साल के साथ हम उस भावनात्मक पूंजी में से कुछ-कुछ खोने लगे हैं: हर साल एकाध खाते मजबूरन बंद हो जाते हैं। हमारे प्रियजन, मित्र, परिवार के सदस्य जो सब छोड़-छाड़कर उस बड़े इंद्रधनुष को पार कर जाते हैं। न जाने कितनी बार उदास भरी सर्दियों की शाम में मैंने चाहा है कि काश, मैं उनके साथ फिर से चैट कर पाता, इमोजी भेज पाता, ट्विटर पर कोई चुटकुला या कार्टून फॉरवर्ड कर सकता! अफसोस की बात है कि अमरता के बारे में हरारी की भविष्यवाणियों के सच होने से बहुत पहले ही वे चले गए। लेकिन ठहरिए! डिजिटल अमरता हमारे दरवाजे पर खड़ी है।
अपने मृत परिजनों से संपर्क के लिए प्लैंचेट, ओइजा बोर्ड या किसी माध्यम के जरिये संवाद करने जैसे तरीके सदियों से हमारे पास रहे हैं। लेकिन अब इस मामले में भी डिजिटल नवाचार और एआई हावी होते दिख रहे हैं। हम सभी अपने पीछे व्यापक तौर पर डिजिटल फुटप्रिंट छोड़ते हैं- ईमेल,डब्ल्यूए चैट, एक्स, इंस्टाग्राम, फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर किए गए पोस्ट, यूट्यूब पर डाले गए वीडियो वगैरह। उभरते डिजिटल उपकरण सूचना के इस अथाह भंडार को इस्तेमाल करते हैं ताकि उस इंसान को फिर से बनाया जा सके, जो अब हमारे बीच नहीं है।
जनरेटिव एआई, चेहरे और आवाज पहचानने की तकनीक की अपार ताकत का उपयोग करके उस व्यक्ति को वर्चुअल अवतार या होलोग्राम के माध्यम से फिर से जीवित कर सकता है। वह आपके स्मार्ट फोन पर आपसे फिर से बात कर सकता है और बिल्कुल उसी आवाज और उच्चारण के साथ जिसे आप पहचानते हैं, जैसे कि वे फिर से हाड़-मांस के शरीर में आ गए हों! आप उनके साथ दोस्तों, रिश्तेदारों के साथ जी गई पिछली घटनाओं को फिर से याद कर सकते हैं, जैसे कि वे कभी गए ही नहीं थे। एल्गोरिदम उस दिवंगत व्यक्ति के बारे में आपसे कहीं ज्यादा जान रहा होता है और उन्हें उस सीमा तक पुनर्जीवित कर सकता है कि आपको दोनों के अंतर का पता ही नहीं चले।
इस शरीर के जीवन के बाद का यह डिजिटल जीवन अभी कुछ साल दूर है लेकिन निश्चित तौर पर वह दिन बहुत दूर नहीं। हेअरआफ्टर, माई विशेज और हैनसन रोबोटिक्स जैसी कंपनियां पहले से ही इस तकनीक पर काम कर रही हैं। वे मृत व्यक्ति से जुड़े डेटा- यादें, टेक्स्ट, व्यक्तित्व लक्षण, पिछली बातचीत, फोटो- के साथ तकनीक को जोड़ती है ताकि वह मरने के बाद भी आपसे बातचीत कर सके। यह भी संभव है कि कोई व्यक्ति जीवित रहते हुए पहले से रिकॉर्ड किए गए संदेश छोड़ जाए जिसे मृत्यु के बाद भेजा जा सके ताकि मृत्यु के बाद भी उसके मौजूद होने का भ्रम बना रहे!
ये डिजिटल आफ्टरलाइफ तकनीकें मृत लोगों के परिजनों को काफी हद तक सांत्वना दे सकेंगी लेकिन वे अलग तरह की नैतिक और कानूनी चुनौतियों के साथ आएंगी, जिसमें गोपनीयता अधिकार, डिजिटल अमरता का वाणिज्यिक (और शायद अनधिकृत) उपयोग शामिल होगा। जैसा कि अर्दिफ परदाना ने डेक्कन हेराल्ड में प्रकाशित एक बेहतरीन आलेख में बताया है कि जिस तरह सरकारों ने भौतिक संपत्ति के लिए प्रावधान किए हैं, वैसा ही उन्हें डिजिटल संपत्ति के लिए भी करना होगा और मृतक द्वारा छोड़ी गई डिजिटल संपत्ति के स्वामित्व/वसीयत से जुड़े कानून भी बनाने होंगे।
भ्रम जाल बनाने में इंसान बेमिसाल रहे हैं और इस दायरे में आध्यात्मिक गुरुओं से लेकर जादूगर, नेता और ठग तक सब आते हैं। डिजिटल आफ्टर लाइफ भी एक भ्रम ही होगा और कुछ लोगों को यह गलत भी लगेगा। लेकिन फिर बुद्ध, एल्डस हक्सले और अल्बर्ट आइंस्टीन के शब्द याद आते हैं- जिनमें से सभी ने साफ शब्दों में कहा था कि जिसे हम वास्तविकता कहते हैं, वह निस्संदेह एक भ्रम है। पूरी विनम्रता के साथ मैं इसमें केवल इतना जोड़ सकता हूं- अपनी वास्तविकता खुद चुनें, उस वास्तविकता के साथ जीएं जो आपको सबसे अधिक सुकून देती है। बेशक सुकून और खुशी भी भ्रम हैं, लेकिन वे जीवन को सहने योग्य बनाते हैं, जब तक यह रहे।
(अभय शुक्ला सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं। यह https://avayshukla.blogspot.com से लिए उनके लेख का संपादित रूप है।)
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