आकार पटेल का लेख: क्या बीजेपी सदस्य जानते हैं कि मेंबरशिप लेते वक्त उन्होंने किन सिद्धांतों को स्वीकार किया था!

पार्टी की सदस्यता लेते वक्त कितने बीजेपी सदस्यों ने जो लिखित घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किया है, जिसमें कहा गया है कि वे एकात्म मानववाद को अपने 'बुनियादी दर्शन' के रूप में स्वीकार करते हैं, तो क्या वे सच में समझते हैं कि उन्होंने आखिर क्या स्वीकार किया है।

बीजेपी के संविधान के नियम
बीजेपी के संविधान के नियम
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आकार पटेल

भारतीय जनता पार्टी ने अपने संविधान के तीसरे पन्ने पर सदस्यता की शर्तों में लिखा है, “18 वर्ष या उससे अधिक उम्र का कोई भी नागरिक जो संविधान के अनुच्छे 2, 3 और 4 को स्वीकार करता है, एक लिखित घोषणा के आधार पर....( बीजेपी का)सदस्य बन सकता है।” सवाल है कि वह कौन सी चीजें हैं जिनके लिए लिखित घोषणा करना जरूरी है?

बीजेपी संविधान का अनुच्छेद 2 इस पंक्ति के साथ खत्म होता है, “पार्टी कानून द्वारा स्थापित भारत के संविधान और समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के सिद्धांतों के प्रति सच्ची निष्ठा और विश्वास रखेगी। ”

इसी तरह पार्टी के संविधान का अनुच्छेद 4 खुद को " शोषण से मुक्त समतावादी समाज की स्थापना की राह दिखाने सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर गांधीवादी दृष्टिकोण" के प्रति समर्पित रखेगी। इसमें आगे कहा गया है कि "पार्टी आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के विकेंद्रीकरण की समर्थक है। "

लेकिन आज बीजेपी जिस रास्ते पर चल रही है तो इन सारे मुद्दों पर उसके क्या विचार हैं? यह जानना तो रोचक हो सकता है, लेकिन इस बारे में बात फिर कभी। इसके संविधान का तीसरा अनुच्छेद आज का विषय है, और एक लाइन में इसमें कहा गया है कि, “"एकात्म मानववाद पार्टी का मूल दर्शन होगा"

एकात्म मानववाद उन चार भाषणों का अंश है जो दीनदयाल उपाध्याय ने 22 और 25 अप्रैल 1965 को बॉम्बे (अब मुंबई) में दिए थे। उपाध्याय के पास बीए की डिग्री थी और वे आरएसएस के मुखपत्र पॉच्जन्य में पत्रकार थे। जब उन्होंने यह भाषण दिए थे तो उनकी उम्र करीब 50 साल रही होगी, और इन भाषणों के दो-एक साल बाद वह जनसंघ (बीजेपी का पुराना अवतार) के अध्यक्ष बने। उपाध्याय ने अपने भाषणों में जो तर्क दिए थे, उसका सार यहां दिया जा रहा है:

भारत जिन समस्याओं का सामना कर रहा है उसका कारण राष्ट्रीय पहचान न होना है। राष्ट्र एक व्यक्ति की तरह है और अगर इसकी प्राकृतिक की उपेक्षा की जाए या उन्हें दबाया जाए तो वह बीमार हो जाता है। आजादी के सत्रह साल बाद भी, भारत अभी तक तय नहीं कर पा रहा है कि वह विकास को किस दिशा में ले जाएगा। स्वतंत्रता की सार्थकता तभी है जब वह संस्कृति को व्यक्त करने का साधन हो।

भारत में फोकस सिर्फ प्रासंगिक समस्याओं पर था: आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक। इसका कारण यह था कि भारत ने पश्चिमी विज्ञान के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सिद्धांतों में भी पश्चिमी तरीका अपनाया।


पश्चिमीकरण भारतीयों के लिए प्रगति का पर्याय है। हालांकि पश्चिम जगत राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और समाजवाद में सामंजस्य नहीं बिठा पाया है। ये मूलतः पश्चिमी आदर्श हैं और एक-दूसरे के विरोधी हैं। ये विचारधाराएं सार्वभौमिक नहीं हैं और इन्हें जन्म देने वाले उन विशेष लोगों और संस्कृतियों की सीमाओं से मुक्त नहीं हैं। आयुर्वेद कहता है कि हमें स्थानीय बीमारियों का स्थानीय इलाज ढूंढना होगा। क्या भारतीय संस्कृति विश्व को कोई समाधान दे सकती है?

भारतीय संस्कृति में धर्म को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। धर्म एक प्राकृतिक नियम है जो शाश्वत और सार्वभौमिक रूप से लागू होता है। धर्म वह नैतिकता है जो हमें सिखाती है कि झूठ मत बोलो, मत लड़ो। जब प्रकृति को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार संचालित किया जाता है, तो यही संस्कृति और सभ्यता होती है।

धर्म कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से ऊपर है, और यह लोगों से भी ऊपर है। अगर 45 करोड़ भारतीय, सिर्फ एक को छोड़कर किसी एक ही मुद्दे पर वोट करें तब भी वह गलत होगा अगर वह धर्म विरुद्ध है। धर्म के विरुद्ध कोई भी कार्य करने का लोगों को अधिकार नहीं है। सेक्युलर और धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर के लिए हिंदी शब्द, यानी जो धर्म पर आधारित नहीं है) शब्दों का संविधान में इस्तेमाल करना गलत और बुरा है क्योंकि किसी भी राष्ट्र या देश के लिए धर्म एक अनिवार्य शर्त है। जो कुछ भी धर्म पर आधारित नहीं है वह स्वीकार्य नहीं है, इसलिए सेक्युलरिज्म या धर्मनिरपेक्षता घातक रूप से दोषपूर्ण थी। राष्ट्रीय एकता भारत का धर्म है और इसलिए विविधता एक समस्या है। इस कारण से भारत के संविधान को संघीय से एकात्मक इकाईं में बदलने की आवश्यकता है, जिसमें राज्यों के लिए कोई विधायी शक्तियां न हों, केवल केंद्र के लिए हों।

समाज के व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच संघर्ष, पतन और विकृति का प्रतीक है। व्यक्ति और राज्य के बीच टकराव वाले  संबंध को प्रगति के कारण के रूप में देखना पश्चिम की गलती है। व्यक्ति शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा से बना होता है। मनुष्य का जन्म आत्मा के साथ होता है। व्यक्तित्व, आत्मा और चरित्र एक दूसरे से अलग हैं। व्यक्ति की आत्मा निजी इतिहास से प्रभावित नहीं होती। इसी तरह राष्ट्रीय संस्कृति को भी इतिहास के साथ निरंतर संशोधित किया जाता है। संस्कृति में अच्छी और सराहनीय समझी जाने वाली सभी चीज़ें शामिल हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय आत्मा या 'चित्त' को प्रभावित नहीं करती हैं। भारत की राष्ट्रीय आत्मा मौलिक और केंद्रीय है। चित्ता सांस्कृतिक उन्नति की दिशा निर्धारित करता है। यह फ़िल्टर करता है कि संस्कृति से क्या बाहर रखा जाना चाहिए।

समाज चेतन होते हैं और समाज में शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा होती है। कुछ पश्चिमी लोग इस सत्य को स्वीकार करने लगे है। उनमें से एक, विलियम मैकडॉगल ने कहा है कि एक समूह के पास एक दिमाग और एक मनोविज्ञान होता है, एक व्यक्ति की तरह सोचने और कार्य करने के अपने तरीके होते हैं। समाज की एक जन्मजात प्रकृति होती है जो उसके इतिहास पर आधारित नहीं होती। इस पर घटनाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह समूह की प्रकृति व्यक्तियों में आत्मा की तरह है, जो इतिहास से भी प्रभावित नहीं होती। यह समूह मानसिकता भीड़ मानसिकता की तरह है, लेकिन लंबी अवधि में विकसित हुई है। राष्ट्र को आदर्श और मातृभूमि दोनों की आवश्यकता होती है और तभी वह राष्ट्र होता है। और राज्य का अस्तित्व इस राष्ट्र की रक्षा के लिए है, जिसके पास एक आदर्श और एक मातृभूमि है।


चारों भाषणों का यही संदेश था। यह समझ आना कोई मुश्किल काम नहीं है कि इस सब का क्या अर्थ ता। मिसाल के तौर पर, आखिर मन और बुद्धि के बीच क्या अंतर है? आत्मा क्या है? ये तीनों एक शरीर से अलग कैसे हैं? इस वाक्य का क्या अर्थ है कि व्यक्तित्व, आत्मा और चरित्र सभी एक दूसरे से भिन्न हैं? और इसमें किसी राजनीतिक दल और सरकार की क्या भूमिका है?

राष्ट्रीय आत्मा, चित्त और समूह मानसिकता वैज्ञानिक घटनाएं नहीं हैं और विलियम मैकडॉगल ने जो कुछ कहा वह विज्ञान नहीं हैं (उन्होंने सोचा, उसी तरह जैसे कि उपाध्याय ने किया था, कि मन ने विकास को प्रभावित किया)।

तो यह जानकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि पार्टी की सदस्यता लेते वक्त आखिर कितने बीजेपी सदस्यों ने जो लिखित घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किया है, जिसमें कहा गया है कि वे एकात्म मानववाद को अपने 'बुनियादी दर्शन' के रूप में स्वीकार करते हैं, तो क्या वास्तव में समझते हैं कि उन्होंने आखिर क्या स्वीकार किया है।

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