क्या देश को ऐसे संसद की जरूरत है, जहां जनता के मुद्दे पर बहस की इजाजत नहीं, सिर्फ सरकार की मर्जी चलेगी

मोदी सरकार कहती है कि विपक्ष संसद चलने नहीं देता, लेकिन साफ दिखता है कि संसद सत्र नहीं चलने का कारण सरकार स्वयं है और सरकार अपने ऐजेंडे के तहत ऐसा करती है। अब हर सत्र में सरकार की मर्जी से सदन चलता है और जनता के मुद्दों पर बहस की इजाजत नहीं दी जाती।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

देश के प्रधानमंत्री जिस दिन कैमरे के सामने ऐलान करते हैं कि संसद में हरेक विषय पर चर्चा करने को तैयार हैं, ठीक उसी दिन लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष की चर्चा की मांग के बीच तीनों कृषि कानूनों की वापसी का विधेयक स्वीकृत हो जाता है। अभी हाल में ही देश के सर्वोच्च न्यायाधीश और कुछ न्यायाधीशों ने भी कहा था कि बिना पर्याप्त चर्चा के ही तमाम कानून पास किये जा रहे हैं, जिससे उनकी गुणवत्ता घटती जा रही है। अब तो नए कानून पांच मिनट से भी कम समय में पास होने लगे हैं, और जब ध्वनिमत का मौका आता है तब कभी भी किसी भी सदन के सभापति कोई आवाज सुनते हैं, ऐसा नहीं लगता।

29 नवम्बर को जिसने भी लोकसभा और राज्यसभा का मंजर देखा होगा, उसके मन में यह प्रश्न जरूर उठ रहा होगा कि क्या वाकई देश को संसद की जरूरत है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जिस मुखिया के दौर में संसद की गरिमा सबसे अधिक गिरी है, उसी मुखिया को नए संसद भवन में बैठने की हड़बड़ी भी है। इस मुखिया ने लोकतंत्र को पूरी तरह से लूट लिया है, और इसके कंकाल को नए चमचमाते आवरण में रखकर दुनिया के सामने पेश करता है। इस सरकार के लिए विपक्ष कुछ नहीं है, यहां तक कि सरकार में भी प्रधानमंत्री के अलावा और कोई नहीं है। एक ऐसा प्रधानमंत्री जिसे सरकार और मेनस्ट्रीम मीडिया तीन कृषि कानूनों के समय भी किसानों का रहनुमा बता रही थी, बता रही थी कि आजादी के बाद पहला प्रधानमंत्री जो किसानों का हित सोचता है, और फिर इन कानूनों की वापसी के समय भी बेशर्मी से प्रधानमंत्री राग चला रही थी।

कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने ट्वीट किया, “जितना कृषि कानून को पास कराना अलोकतांत्रिक था, उससे ज्यादा अलोकतांत्रिक इसके वापसी का तरीका है”। जिस अलोकतांत्रिक तरीके और संसद की मर्यादा को तार-तार कर “द फार्म लॉज रिपील बिल 2021” को सरकार ने संसद में पास कराया है, उससे किसानों और किसान आन्दोलन के लिए कुछ प्रश्न तो जरूर उठते हैं। सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य और दूसरी मांगों पर आंख मूंदे बैठी रहेगी। यदि संसद में चर्चा होती, तो जाहिर है इन विषयों पर हरेक विपक्षी सांसद जोर देता और सरकार से इन पर कानून बनाने की मांग करता।

वैसे भी कृषि मंत्री ने ऐलान किया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य और दूसरी मांगों पर विचार के लिए कमेटी बनाई जाएगी, जिसमें किसान प्रतिनिधि भी सदस्य होंगें। कमेटी कब बनेगी और इसके सदस्यों के बारे में किसी को नहीं मालुम, कृषि मंत्री को भी नहीं मालुम- आखिर इस सरकार में सब प्रधानमंत्री जो तय करते हैं, और प्रधानमंत्री जितना बताते हैं वही सारे मंत्री बता पाते हैं। इस वक्तव्य से पहले कृषि मंत्री को यह जरूर बताना चाहिए था कि तीनों कृषि कानूनों के सन्दर्भ में पहले कितनी कमेटी बनाई गयी थी और उसमें कितने किसान नेता सदस्य थे?


किसान आन्दोलन शुरू होने के ठीक पहले प्रधानमंत्री ने स्वयं कहा था कि तीनों कृषि कानूनों से न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई अंतर नहीं आएगा और यह जैसा है वैसा ही रहेगा। फिर आन्दोलन शुरू हुआ और कृषि मंत्री से किसान नेताओं की वार्ता का दौर शुरू हुआ, तब भी कृषि मंत्री शुरुआती वार्ता में कहते रहे कि प्रधानमंत्री ने स्वयं न्यूनतम समर्थन मूल्य का आश्वासन दिया है, किसानों को और क्या गारंटी चाहिए? पर, किसान नेताओं ने इसे जुमला ही बताया था और यह वास्तव में जुमला ही था क्योंकि आज तक न्यूनतम समर्थन मूल्य के गारंटी की बात सरकार ने कभी नहीं की।

सरकार बार-बार कहती है कि विपक्ष संसद चलने नहीं देता, पर यदि आप संसद के सत्र को बारीकी से देखें तो स्पष्ट होगा कि संसद सत्र नहीं चलने का कारण सरकार स्वयं है और सरकार अपने ऐजेंडे के तहत ऐसा करती है। हरेक सत्र के पहले दिन ही सरकार और सरकार की जी हुजूरी बजाते सदनों के सभापति कुछ ऐसा करते हैं जिससे पूरा विपक्ष लगातार हंगामा करने को बाध्य रहता है। पिछले सत्र में बेरोजगारी, किसान आन्दोलन के साथ ही पेगासस जासूसी कांड का मुद्दा था, जिसे विपक्ष उठाता रहा और किसी सदन में इन विषयों पर चर्चा नहीं की गई। इस बार फिर से पहले ही दिन कृषि कानूनों की वापसी का मुद्दा आ गया। इसके बाद भी सरकार को शक था कि शायद विपक्ष संसद में बाधा न डाले तो सदस्यों के निलंबन का फैसला सुना दिया गया।

इस सरकार और सरकार की गुलाम मीडिया ने कुछ शब्दों के अर्थ ही बदल डाले हैं। अब प्रधानमंत्री की रैलियों में सरकारी बस में भरकर जो भाड़े के श्रोता बुलाये जाते हैं, उन्हें लाभार्थी कहा जाता है और विकास परियोजनाओं को प्रधानमंत्री की सौगात कहा जाने लगा है। इसी तर्ज पर विपक्ष मी मांग और असंसदीय तरीकों का विरोध अब हंगामा, उपद्रव इत्यादि नामों से बताया जाता है। सरकार चाहती है कि संसद में केवल उसकी आवाज जिसमें झूठ, फरेब और हिंसा है, बस वही गूंजे। इस सरकार में संसद एक ऐसी जगह बन गयी है, जहां जय श्री राम के नारे संसदीय बन गया है, सरकार के झूठे और बिना आंकड़े वाले वक्तव्य भी संसदीय बन गए हैं, पर गलत का विरोध असंसदीय बन गया है। हंगामों से सरकार को इतना फायदा होता है कि जनता को लूटने वाले बिल सरकार आनन्-फानन में संसद से पास करा लेती है। अब तो बिल पास कराने में पांच मिनट भी नहीं लगते।

वैसे भी कृषि कानूनों को केवल किसानों की नजर से नहीं देखा जाना चाहिए। सरकार ने इसे सिख और हिन्दू का अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया था और सरकारी भक्तों, गुलाम मीडिया और सांसदों की नजर में हरेक सिख खालिस्तानी और उग्रवादी बना दिया गया था। यह सब इस पैमाने पर किया गया कि कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में भी हिन्दू-सिख दंगे भड़कने लगे थे। इससे पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि का नाम भी जुड़ा और जेल में भी डाला गया। पॉप गायिका रिहाना का खूब चरित्र हनन किया गया और इस बहाने भक्तों ने उनके टॉपलेस और न्यूड फोटो पर खूब बारीक नजरें डालीं। दुनिया भर में विख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को भक्तों ने खूब कोसा। इन सबके साथ ही किसान आन्दोलन में पाकिस्तान और चीन का हाथ बताने वाले सांसदों, विधायकों, आईटी सेल से प्रभावितों की बाढ़ आ गयी थी।


इन सबके बीच एक सरकारी रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ है कि किसानों की खेती से दैनिक आय मनरेगा के मजदूरों से भी कई गुना कम है। यहां इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि ग्रामीण परिवेश में अब तक मनरेगा के मजदूरों को आर्थिक तौर पर सबसे निचले दर्जे का माना जाता था। पर हमारे बड़बोले प्रधानमंत्री के राज में किसानों की दुगुनी आय का भरोसा दिलाते-दिलाते ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खेती करने वाले किसान पहुंच गए हैं। पिछले महीने भारत सरकार के नेशनल स्टैटिस्टिकल आर्गेनाईजेशन द्वारा जुलाई 2018 से जून 2019 तक किसानों का विस्तृत अध्ययन कर सिचुएशन असेसमेंट रिपोर्ट को प्रकाशित किया गया है, इसके अनुसार खेती से जुड़े किसानों की कृषि उत्पादन के सन्दर्भ में आय महज 27 रुपये प्रतिदिन है, जबकि मनरेगा में काम करने वाले मजदूरों को 180 रुपये रोज मिलते हैं।

जिस देश की जनता को सरकार और मीडिया की हिंसक जुगलबंदी को लगभग खामोश कर दिया है, वहां किसान एक वर्ष से भी अधिक समय तक आन्दोलन की विजय पताका लहराते रहे। सरकार ने कहा, हम कागज़ नहीं दिखाएंगे और किसान बिना कागज़ देखे वापसी को तैयार नहीं हैं। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या देश को ऐसे संसद की जरूरत है, जहां जनता के मुद्दों पर बहस की इजाजत नहीं दी जाती और सरकार अपनी मर्जी से कुछ भी कर लेती है।

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