मृणाल पाण्डे का लेखः जात न पूछो ॠषियों की

ब्राह्मण शब्द वेदों की रचना के काल में जाति नहीं, रचनाकार के ज्ञान से जुड़ा होता था। यह ज्ञान वाक् ॠषि की पुत्री (जिसने वाक् सूत्र की रचना की) और गार्गी जैसी ब्रह्मवादिनी महिलाओं में भी हो सकता था और किसी सत्यकाम जाबालि सरीखे चरवाहे या खेतिहर में भी।

फोटोः सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

बात-बात में आज के राज-समाज की अव्यवस्था को भी वेदों से जोड़ कर सही ठहराना इन दिनों काफी बढ़ता जा रहा है। दलितों में एनडीए सरकार के खिलाफ बढ़ते असंतोष को कम करने की कोशिश कई बार इतिहास का अज्ञान दिखाती है। उदाहरण के लिए अभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कह दिया कि वेदों के श्लोकों के रचनाकार दलित थे।

सच ये है कि पूर्व वैदिक काल, जब वेदों की ॠचायें (उनको श्लोक नहीं कहते) बनीं थीं, वाचिक परंपरा पर आधारित था। इसलिए इन ॠचाओं को बनाने वालों को ‘मंत्र दृष्टा’ यानी मंत्रों को देखने वाला कहा जाता है। ‘देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति’ (उस देवता काव्य का दर्शन करो जो अजर-अमर है)। वेदों में इस वैदिक काव्य को ही ज्ञान माना गया है और उसका आदर्श हर वह मनुष्य है जो न डरता है, न लड़खड़ाता है। ‘न बिभीतो न रिष्यत:’ मंत्र का दूसरा नाम है शब्द ब्रह्म, उसको जो धारण करे वह ब्राह्मण कहलाता था। इसलिए ब्राह्मण शब्द वेदों की रचना के काल में जाति नहीं, रचनाकार के ज्ञान से जुड़ा होता था। यह ज्ञान वाक् ॠषि की पुत्री (जिसने वाक् सूत्र की रचना की) और गार्गी जैसी ब्रह्मवादिनी महिलाओं में भी हो सकता था और किसी सत्यकाम जाबालि सरीखे चरवाहे या खेतिहर में भी।

गौरतलब है कि वेदों को रचनेवाला समाज एक तरह का नहीं था। उसमें घुमंतू चरवाहों के कबीले भी शुमार थे और कई तरह के वनवासी जन और जनजातियां भी। रचनाकारों ने उन सबके ज्ञान की विविधता को एकता में बांधा और कहा कि जो (ज्ञान की) इस दिव्य वीणा को बजाना जानता है, वह हमें ब्राह्मण यानी ब्रह्मज्ञानधारी के बतौर स्वीकार है। यानी वैदिक युग में ज्ञानी ॠषियों की ज्ञान के अलावा कोई जाति या वर्ण नहीं होती थी। योगी जी ने वहां दलित किस तरह खोज निकाले यह तो वे ही जानें। उनके अपने नाथ संप्रदाय के गुरु गोरखनाथ तो घोषित रूप से वेदों से खुद को वैसे भी बाहर का मानते थे।

जाति व्यवस्था का जिक्र उत्तर वैदिक काल में ब्राह्मण ग्रंथों की रचना के वक्त शुरू हुआ जब अलग-अलग ॠषि मंत्रों को जमा कर के उनकी अलग-अलग संहितायें बनाई गईं | इसी क्रम में आगे पुराण भी रचे गए जिनका पुराना नाम था इतिहास-पुराण संहिता (संकलन)। राजनैतिक वजहों से आज नेता और उनके गोदी विद्वान् चाहे जो कहें, इस काल में भी जाति की पहचान प्राय: काम अथवा गुण के आधार पर ही की गई है, जन्म के आधार पर नहीं। काठक नाम की संहिता में (30.2) कहा गया है कि ब्राह्मण के पिता कौन या माता कौन थी, यह सवाल क्यों पूछते हो ? जिसने जानने योग्य जान लिया है वह खुद अपना पिता भी है और पितामह भी ! ऐसे ही एक ज्ञानी बालक सत्यकाम जाबाल को, जिसके पिता अज्ञात थे ब्राह्मण माना और बताया गया है। और एक अलोकप्रिय राजा जानश्रुति पौरायण को कर्मणा शूद्र कहा गया है |

आज यह खासतौर से जानने की जरूरत है कि अधिकतर उत्तर वैदिक साहित्य जिसका हवाला देकर जाति व्यवस्था को जन्म से जोड़ते हुए शूद्र को दलित या कुचला हुआ व्यक्ति बताया जा रहा है, वेदों पर कुछ पुरोहितों की टीका है। वैदिक मंत्रों की तरह यह सारे समाज का प्रतिनिधि साहित्य नहीं है। अक्सर बडे खेतिहरों, व्यापारियों और राजाओं के लिए पुरोहिती कर कमाई करने वाले कई पुजारियों ने भी अपने हिसाब से तथ्यों को मरोड़ते हुए मंत्रों की टीका लिख कर उनको संकलित किया है। लिहाजा टीकाओं या विभिन्न टीकाकारों की समझ में फर्क होना स्वाभाविक है।

कुछ टीकाकार जो प्रजापति को बंदर के सूर्य को घोड़े के रूप में देखते हैं, उनकी शूद्रों या ब्राह्मणों के बारे में की गई टिप्पणियां अतिवादी हो सकती हैं। इसलिए मानना होगा कि पुरुष सूक्त या इस, उस टिप्पणी के बूते उस समय के समाज की वास्तविकता का पक्का पता लगाना कठिन ही नहीं नामुमकिन है। जिस चातुर्वण्य जाति व्यवस्था को व्यवस्थित तरीके से मनु ने बनाया और समाज पर लागू कराया, वह वेदों की रचना की कई सदी बाद बनाई गई है। परम ज्ञानी योगी जी गुस्ताखी माफ करें, लेकिन वामन राव काणे से लेकर वासुदेवशरण अग्रवाल, डा. गोविंदचंद्र पाण्डे और हजारी प्रसाद द्विवेदी तक सबके ग्रंथों में साफ उल्लेख है कि उत्तर वैदिक मनुवादी व्यवस्था के गुणदोषों के लिए वेदों को कसौटी नहीं माना जा सकता और न ही उसकी ॠचाओं के कवियों को आज की जाति व्यवस्था के तहत खींचा जा सकता है।

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