दवाओं का गोरखधंधा : कीमतों से लेकर फार्मूले तक का मकड़जाल, दांव पर रोगी की सेहत

हम रोजमर्रा की जिंदगी में और फिल्मों में देखते हैं कि इलाज के नाम पर डॉक्टर-अस्पताल किस तरह लोगों को लूटते हैैं। इन्हें देखकर हम इसलिए नहीं चौंकते क्योंकि हमें यह सामान्य लगने लगा है। लेकिन डोलो विवाद से यह मुद्दा फिर सतह पर आ गया है।

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जगदीश रत्तनानी

यह कोई छिपी बात नहीं कि फार्मास्युटिकल क्षेत्र ने भारत में जो कुछ भी हासिल किया है, उसमें डॉक्टरों को उनकी दवा लिखने के बदले ‘इंसेन्टिव’ देने के चलन को संस्थागत करने का बहुत बड़ा हाथ है। इस श्रृंखला में दवा बनाने वाले, इसे बेचने वाले और इसे लिखने वाले सभी शामिल हैं और सब मिलजुल कर इस गंदे खेल को खेलते हैं। दवा से लेकर चिकित्सीय उपकरण या उपचार प्रक्रिया, स्वास्थ्य देखभाल के हर क्षेत्र में यही सिस्टम काम कर रहा है। इस श्रृंखला में किसी के भी हाथ साफ नहीं। चिकित्सा बिरादरी की एक छोटी-सी टीम ने इस मकड़जाल को तोड़ने की कोशिश जरूर की है।

यह पूरा गठजोड़ कैसे काम करता है, इसके बारे में फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एफएमआरएआई) और अन्य द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर रिट याचिका में विस्तार से बताया गया है। याचिका के पहले पैरा में कहा गया है: ‘ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो दिखाते हैं कि फार्मा क्षेत्र में भ्रष्टाचार किस तरह स्वास्थ्य के बेहतर नतीजों को खतरे में डाल रहा है। चाहे वह एक फार्मा कंपनी का अतार्किक रूप से डॉक्टरों को रिश्वत देकर अपनी दवाएं लिखवाने की बात हो या फिर हेल्थ केयर से जुड़े लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से अनुचित फायदा पहुंचाकर अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने की, आखिरकार जोखिम में तो रोगी का स्वास्थ्य ही होता है। ... ऐसे उल्लंघन दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे हैं।’

यह मामला तब सुर्खियों में आया जब जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और ए एस बोपन्ना की खंडपीठ ने याचिका में किए गए इस अनुरोध पर सरकार को अपना पक्ष रखने को कहा कि कंपनी के अपनी दवाओं या उत्पादों के प्रमोशन और इसके लिए दिए जाने वाले उपहारों के बारे में जो स्वैच्छिक आचार संहिता है, उसे कानूनी जामा पहनाया जाए। ‘डोलो’ की बिक्री में हुई उल्लेखनीय वृद्धि की चर्चा हुई। यह एक पैरासिटामोल ब्रांड है और यह 650 मिलीग्राम डोज में आता है। आम तौर पर पैरासिटामोल की 500 मिलीग्राम की गोलियां आती हैं। कोविड -19 महामारी के दौरान डोलो 650 की बिक्री में काफी तेजी आई। हालांकि कंपनी ने इस बात से इनकार किया है कि उसने मूल्य नियंत्रण से बचने के लिए अपने नुस्खे में बदलाव किया।

याचिका के मूल भाव के अनुरूप ही यह बड़ी बहस उभर रही है कि क्या फार्मा उद्योग ने फार्मास्युटिकल मार्केटिंग प्रैक्टिस के लिए समान आचार संहिता (यूसीपीएमपी) के अंतर्गत स्व-विनियमन के पर्याप्त प्रयास किए हैं? यूसीपीएमपी जनवरी, 2015 से व्यवहार में है और यह फार्मा कंपनियों की अनैतिक प्रथाओं पर अंकुश लगाने का प्रयास करता है। यह आचार संहिता मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव के आचार से लेकर विज्ञापन प्रचार, सैंपल, उपहार, आतिथ्य, यात्रा वाउचर या फार्मा कंपनियों द्वारा स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों या उनके परिवारों को दी जाने वाली नकदी के चलन से जुड़ी गतिविधियों को नियंत्रित करता है। हालांकि इनमें से किसी को भी कानूनी तरीके से व्यवहार में नहीं लाया जा सकता।


यह दिलचस्प है कि सरकार अपने पहले के इस रुख से पीछे हट गई है कि इस आचार संहिता को कानूनन बाध्यकारी बनाया जाना चाहिए। वर्ष 2020 में संसद में एक सवाल के जवाब में सरकार ने कहा कि अनैतिक प्रथाओं से जुड़ी शिकायतों से निपटने का विभाग में कोई प्रावधान नहीं है और फार्मा संघों की नैतिक समिति द्वारा यह सब नियंत्रित किया जाएगा!

फार्मा क्षेत्र उच्च वृद्धि के लिए जाना जाता है। भारत में इस क्षेत्र का बाजार आकार 50 अरब अमेरिकी डॉलर के आसपास है। इसकी ताकत और पहुंच न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2021-22 तक के आठ सालों में निर्यात में लगभग 10 अरब अमेरिकी डॉलर की वृद्धि हुई। नतीजतन, इस क्षेत्र को सरकार हाथों-हाथ लेती है और उसने फार्मा सेक्टर की मजबूती के लिए इस मार्च में अगले तीन वर्षों के दौरान 500 करोड़ रुपये की प्रोत्साहन योजना की घोषणा की। फिर भी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकार प्रमुख दवाओं और उपकरणों की कीमतों को नियंत्रण में रखने में सफल रही है।

सरकार ने जिस तरह ताकतवर मेडिकल लॉबी के दबावों और वैश्विक निर्माताओं और भारतीय वितरकों के तीखे प्रतिरोध के बाद भी मेडिकल स्टेंट को मूल्य नियंत्रण व्यवस्था के तहत ला दिया, वह वाकई बड़ी बात है। फिर भी, मार्केटिंग व्यवस्था में जो गड़बड़ियां हैं, उनसे रोगियों के हित तो प्रभावित हो ही रहे हैं और कई बार ये आपराधिक किस्म के होते हैं और इन सबका फायदा दवाओं और उपकरणों के उत्पादक, इनकी मार्केटिंग से लेकर इनके इस्तेमाल का रास्ता साफ करने वाले डॉक्टर और अन्य प्रोफेशनल को होता है।

इस क्षेत्र की, और खास तौर पर हमारे देश में एक और बड़ी समस्या है। यहां दवाओं के फॉर्मूलेशन का भी मसला है जिसमें वैसे अवयव भी होते हैं जिनकी किसी खास स्थिति में जरूरत ही नहीं होती या जो वैश्विक बाजार में प्रतिबंधित है। ब्रांडेड जेनरिक्स के मामले में तो यहां हालत काबू से बाहर हैं। 2021 में भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग ने बताया कि ‘अगस्त, 2019 से जुलाई, 2020 के दौरान भारत के फार्मा बाजार में 2,871 फॉर्मूलेशन से जुड़े 47,478 ब्रांड थे, जिसका मतलब है कि हर फॉर्मूलेशन के लिए औसतन 17 ब्रांड।’

(दि बिलियन प्रेस)

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