विकराल आर्थिक समस्याओं से मोदी सरकार की साख तार-तार, आगामी बजट पर भी होगी इस डरावने भूत की छाया

पिछले लगभग 6 साल में मोदी सरकार ने देश को 8 फीसदी विकास दर और 5 ट्रिलियन (500 लाख करोड़) की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना कई बार दिखाया। लेकिन इस समय देश की अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती कमजोर मांग की है जिसने मोदी सरकार की साख को तार-तार कर दिया है।

फोटोः सोशल मीडिया
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राजेश रपरिया

आगामी बजट में केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को अनेक आर्थिक चुनौतियों से जूझना है। आगामी बजट 1 फरवरी को पेश किया जाएगा। इस समय अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती कमजोर मांग की है जिसने मोदी सरकार की साख को तार-तार कर दिया है। देश को 8 फीसदी विकास दर और 5 ट्रिलियन (500 लाख करोड़ रुपये) की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना मोदी सरकार ने कई बार दिखाया है। लेकिन चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में विकास दर पिछली 26 तिमाहियों की न्यूनतम 4.5 फीसदी पर पहुंच गई और विकास दर के जो तमाम आकलन आए हैं, वे डरावने हैं।

देश में बेरोजगारी पिछले 45 साल के चरम पर है और 1972 के बाद उपभोग व्यय देश में पहली बार घट गया है। अपर्याप्त बचत और निवेश ने अर्थव्यवस्था में सेंध लगा दी है। निर्यात निर्धारित लक्ष्य से काफी पीछे है। कृषि आय और ग्रामीण मजदूरी में कोई कारगर इजाफा नहीं हो रहा है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोग और खपत का अकाल पड़ गया है। चालू वित्त वर्ष में केंद्र सरकार का राजस्व संग्रह लक्ष्य से कम है और राजकोषीय घाटा बढ़ने का भूत मोदी सरकार को सता रहा है। केंद्र सरकार की खराब माली हालत और निर्णयों से राज्यों की अर्थव्यवस्था भी चरमराने के कगार पर है।

न्यूनतम हुआ उपभोग व्यय

मांग के अभाव में अर्थव्यवस्था को सन्निपात हो गया है। इसका सीधा असर आमजनों की आय और मासिक घरेलू खर्च पर पड़ा है। मासिक घरेलू खर्च पिछले चार दशकों के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। जुलाई, 2017 और जून, 2018 के बीच राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने देशव्यापी व्यय सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में लोग आवश्यक खाद्य पदार्थों, जैसे- नमक, चीनी, मसाले, खाद्य तेल आदि पर कम खर्च कर रहे हैं, जिससे उनके उपभोग खर्च में 8.8% की गिरावट आई है।

इस सर्वेक्षण के अनुसार औसत रूप से मासिक उपभोग व्यय 2017-18 में गिरकर 1446 रुपये रह गया, जो 2011-12 में 1501 रुपये था यानी 55 रुपये प्रति महीने की गिरावट। पर ग्रामीण क्षेत्र में उपभोग व्यय में 107 रुपये महीने की गिरावट आई है। ग्रामीण क्षेत्र में 2011-12 में मासिक उपभोग खर्च 1217 रुपये था, जो 2017-18 में घटकर 1110 रुपये रह गया। इस अवधि में शहरी क्षेत्रों में मासिक उपभोग खर्च में 44 रुपये की बेहद मामूली वृद्धि हुई है। इस सर्वेक्षण के निष्कर्षों से आसानी से बाजार में मांग के अभाव को समझा जा सकता है। पर मोदी सरकार इस सर्वेक्षण को दबा कर बैठ गई है। साल 2017-18 के बाद इस उपभोग खर्च में कोई सुधार आया होगा, इसकी उम्मीद कम ही है क्योंकि तब से विकास दर में निरंतर गिरावट रही है।

ग्रामीण क्षेत्र में वास्तविक आय में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है। वहां केवल किसानों की आय की ही समस्या नहीं है, बल्कि खेतिहर और गैर-खेतिहर मजदूरों की मजदूरी में भी नाम मात्र की वृद्धि हुई है। 2014-18 के पांच सालों में दैनिक ग्रामीण मजदूरी में वास्तविक वृद्धि महज 0.5 फीसदी रही। बीते नवंबर में महंगाई दर 5.58 फीसदी हो चुकी है, जो 2014-18 के दरम्यान औसत रूप से 3.5 फीसदी के आसपास थी। खाद्य महंगाई में तेज वृद्धि हुई है, जो 10 फीसदी को पार कर चुकी है। कम आय और खाद्य महंगाई से उपभोग और खपत में गिरावट का सिलसिला टूट नहीं पा रहा है। आगामी बजट में वित्तमंत्री ग्रामीण क्षेत्र में आय, उपभोग खर्च और खपत बढ़ाने के लिए क्या उपाय करती हैं, इससे ही नए साल में अर्थव्यवस्था की रौनक तय होगी।


बेरोजगारी चरम पर

बेरोजगारी से किसी भी देश की आर्थिक हालत का तुरंत पता चल जाता है। मोदी सरकार ने दो करोड़ नौकरियां हर साल देने का वादा देश से किया था। लेकिन मोदी राज के छह सालों में रोजगार वृद्धि का रेकॉर्ड बेहद खराब रहा है और इस मोर्चे पर उसका प्रदर्शन मनमोहन सिंह सरकार के मुकाबले बौना ही साबित हुआ है। मोदी राज में नोटबंदी और जीएसटी (वस्तु और सेवाकर) से रोजगार को भारी आघात लगा है, पर वे यह मानने को तैयार नहीं हैं। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग द इंडियन इकॉनोमी के आकलन के अनुसार नोटबंदी के कारण सूक्ष्म, छोटे और मध्यम उद्योगों में तकरीबन 15 लाख रोजगार खत्म हो गए। जीएसटी लागू होने के बाद इस क्षेत्र की हालत और भी खराब हुई है, जो रोजगार देने में सदैव संगठित क्षेत्र से आगे रहता है।

साल 2017-18 के सावधिक श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार कृषि रोजगार में भारी गिरावट आई है और उसके मुकाबले गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार अवसरों में मामूली वृद्धि हुई है। नतीजन बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी पर पहुंच गई है, जो पिछले 45 सालों में सर्वाधिक है। शहरी युवाओं में बेरोजगारी दर 19 फीसदी है और शहरी युवा महिलाओं में 27 फीसदी। भयावह बात यह है कि आजादी के बाद कुल रोजगार में पहली बार गिरावट आई है। साल 2012 में कुल रोजगार 47.20 करोड़ थे, जो 2017-18 में घटकर 41.50 करोड़ रह गए।

भारतीय रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक शहरी क्षेत्रों में मैन्यूफैक्चरिंग में रोजगार वृद्धि दर 2011 से 2107 के दरमियान 1.4 फीसदी रह गयी जो 2004 से 2010 के बीच 2.5 फीसदी थी। इसी प्रकार उक्त अवधि में सेवा क्षेत्र भी रोजगार वृद्धि दर 2.8 फीसदी से गिरकर 2 फीसदी रह गयी। इस समान अवधि में मैन्यूफैक्चरिंग में श्रम आमदनी 8.1 फीसदी से घट कर 5.4 फीसदी और सेवा क्षेत्र में 7.2 से गिरकर 6.1 फीसदी रह गयी। अत्यधिक बेरोजगारी, गिरती ग्रामीण और शहरी श्रमिक आमदनी से मांग और खपत समस्या ज्यादा विकराल हुई है और ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं दिखती कि इस नए वर्ष में इस दिशा में कोई ठोस सुधार देखने को मिले।

देश की विकास दर में निजी खपत सबसे अहम कारक है जिसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 60 फीसदी योगदान है। उपभोग खर्च का आय से सीधा संबंध है, विशेषकर निम्न और मध्य आयवर्ग में। मांग में वृद्धि के लिए ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में मजदूरी और आमदनी बढ़ाना जरूरी है। यह वित्तमंत्री पर निर्भर है कि देश की इस अधिसंख्य आबादी को क्या राहत प्रदान करती हैं।

बचत और निवेश में सूराख

किसी भी देश की बचत और निवेश से पता चलता है कि देश आर्थिक रूप से आगे बढ़ने के लिए कितना तैयार है। जितनी अधिक बचत होगी, उतना अधिक निवेश होगा। पर देश की कुल बचत में सुराख पैदा हो गए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 2011-12 में देश की कुल बचत जीडीपी की 34.6 फीसदी थी, जो 2017-18 में गिरकर 30.5 फीसदी रह गई। कुल राष्ट्रीय बचत में घरेलू बचत का योगदान पिछले पांच सालों में औसत 61 फीसदी रहा है। घरेलू बचत में आम निवासियों और गैर पंजीकृत सूक्ष्म, लघु और मध्यम कारोबारों-उद्यमों की बचत शामिल रहती है। लेकिन 2012 से 2017 की अवधि में घरेलू बचत में तेज गिरावट आई है। साल 2011-12 में घरेलू बचत जीडीपी की 23.6 फीसदी थी, जो 2017-18 में गिरकर 17.2 फीसदी रह गई। इसका सीधा असर निवेश पर पड़ा है।

रिजर्व बैंक के अनुसार साल 2011-12 में कुल निवेश जीडीपी का 36.7 फीसदी था, जो 2017-18 में गिरकर 29.1 फीसदी रह गया। केंद्र सरकार के निवेश के साथ निजी निवेश की दशा भी हताशा जनक है। केंद्र सरकार के निवेश गिरने का कारण कुल व्यय में कमी आना है। साल 2010-11 में केंद्र सरकार का कुल व्यय जीडीपी का 15.4 फीसदी था, जो 2018-19 में गिरकर 12.2 फीसदी रह गया। इस अवधि में केंद्र सरकार का पूंजी व्यय(जिससे सकल पूंजी निर्माण होता है) 2 फीसदी से गिरकर 1.6 फीसदी रह गया। निजी क्षेत्र की पूंजी व्यय परियोजनाओं में पिछले सात सालों के दौरान गिरावट का माहौल है, और यह विकास दर की रफ्तार को तेज करने में बड़ी बाधा बना हुआ है।


केंद्र से राज्यों को टैक्स में मिलने वाले हिस्से और अनुदानों में कमी आने से राज्यों की वित्तीय हालत भी नाजुक बनी हुई है और राज्यों पर पूंजीगत व्ययों को कम करने का दबाव बन गया है। देश के कुल सरकारी पूंजी निर्माण में राज्यों की हिस्सेदारी दो तिहाई है। राज्यों के पूंजी निर्माण में कमी से आर्थिक दिक्कतें लंबे समय तक रह सकती हैं। यह अकाट्य तथ्य है कि आर्थिक गतिविधियां अवधारणाओं से ज्यादा संचालित होती हैं। नई मुसीबत यह है कि रिजर्व बैंक के सर्वेक्षण में उपभोक्ताओं का भरोसा 6 साल के न्यूनतम पर है।

एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार कारोबारियों की उम्मीद भी क्षीण हुई है और वह इस साल दिसंबर तिमाही में 18 साल के न्यूनतम पर पहुंच गई है। ऐसे में उपभोक्ता और कारोबारी हाथ खोलकर खर्च करेंगे, इसकी उम्मीद बेमानी है। अब सरकारी खर्च बढ़ा कर ही तमाम विकराल आर्थिक समस्याओं पर धीरे-धीरे काबू पाया जा सकता है। आगामी बजट में वित्तमंत्री क्या रास्ता अख्तियार करती हैं, इस पर सब निर्भर करेगा। क्या वे मांग बढ़ाने के लिए अधिसंख्य आबादी को टैक्स में राहत और गरीबों को नकद सहायता बढ़ाती हैं या बुनियादी परियोजनाओं पर खर्च बढ़ाकर मांग और रोजगार बढ़ाने की कोशिश करती हैं। राजकोषीय घाटे के प्रति वित्त मंत्री के रुख पर यह सब उपाय ज्यादा निर्भर करेंगे।

(लेखक अमर उजाला समाचार पत्र के पूर्व कार्यकारी संपादक हैं )

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