ट्रंप की हड़बड़ाहट से कोरोना वैक्सीन की सेफ्टी पर वैज्ञानिक चिंतित, कई टीकों में लापरवाही से गई है सैंकड़ों जान

कोविड-19 का वैक्सीन अभी तक नहीं मिला है, लेकिन अमेरिका द्वारा अभी से करोड़ों वैक्सीन बनाने और लोगों को देने का पूरा खाका तैयार कर लिया गया है। इतने बड़े स्तर पर उत्पादन योजना के बीच कुछ प्रतिष्ठित वैज्ञानिक बार-बार वैक्सीन की सुरक्षा को लेकर सवाल उठा रहे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

कोराना वायरस से फैली महामारी के लिए वैक्सीन विकसित करने के लिए इस समय जो होड़ लगी है, वैसी इतिहास में कभी नहीं देखी गई। विश्व में वैक्सीन क्षेेत्र की सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां, नेटवर्क और अंतर्राष्ट्रीय संस्थान इसमें भागीदार हैं। इतना ही नहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने मई मध्य में ऑपरेशन वार्प स्पीड की घोषणा कर वैक्सीन की इस दौड़ और होड़ को और तेज कर दिया है।

इस ऑपरेशन में अमेरिका के सबसे बड़े स्वास्थ्य संस्थान ही नहीं शामिल हैं, इसमें रक्षा विभाग, ऊर्जा और कृषि विभाग आदि को भी जोड़ दिया गया है। यह पब्लिक-प्राईवेट पार्टनरशिप है। अतः निजी एजेंसिया भी जुड़ी हैं। इसमें मुख्य सलाहकार पद पर विवादास्पद नियुक्ति ऐसे व्यक्ति की हुई है जो सबसे बड़ी वैक्सीन बहुराष्ट्रीय कंपनियों से नजदीकी तौर पर जुड़े रहे हैं।

इसका एक लक्ष्य यह रखा गया है कि जनवरी 2021 तक 30 करोड़ कोविड-19 के वैक्सीन तैयार कर दिए जाएं। उत्पादन प्रक्रिया की जिम्मेदारी सेना के एक बड़े जनरल को दी गई है। यह भी एक गजब की बात है कि वैक्सीन अभी विकसित भी नहीं हुआ है और इसके करोड़ों वैक्सीन बनाने की समय-तालिका तक तैयार कर ली गई है। वैक्सीन को स्वीकृति मिले बिना उसके लाखों और समयबद्ध उत्पादन करने की प्रक्रिया में कुछ कंपनियां लगाई जा रही हैं।

इस बीच कुछ प्रतिष्ठित वैज्ञानिक बार-बार वैक्सीन की सुरक्षा का सवाल उठा रहे हैं। हाल के दशकों में वैक्सीनों की सेफ्टी की अवहेलना होने पर सैंकड़ों व्यक्तियों (विशेषकर बच्चों) के मारे जाने और लाखों पर दर्दनाक प्रतिकूल असर पड़ने के समाचार मिलते रहे हैं। जिस तरह राष्ट्रपति ट्रंप ने कोविड-19 के वैक्सीन में बहुत तेजी लाने का प्रोजेक्ट चलाया है, वैसा ही कुछ दशक पहले राष्ट्रपति गेराल्ड फोर्ड ने स्वाईन फ्लू के लिए चलाया था।

बाद में इस प्रोजेक्ट के बहुत हानिकारक साईडइफेक्ट सामने आए। एचपीवी और डेंगवैक्सिया आदि वैक्सीन के बहुत हानिकारक साईड इफैक्ट सामने आए हैं। डेंगवैक्सिया से फिलिपीन्स मेंं लगभग 600 बच्चों की मृत्यु के बारे में रिपोर्ट आई तो वहां बहुत विरोध प्रदर्शन हुए और इस पर प्रतिबंध लगाना पड़ा।

एक नए वैक्सीन को विकसित करने में सामान्यतः दस वर्ष लगते हैं, पर कोविड-19 के संदर्भ में 10 वर्षों को 10 महीनों में बदला जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि सेफ्टी की कसौटी पर यह कितना उचित है? 10 वर्ष की प्रक्रियाओं को 10 महीने में कैसे समेटा जा सकता है? इसका वैज्ञानिक आधार क्या है? कई प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने इस बारे में सवाल उठाए हैं।

यह भी पूछा जा रहा है कि यह वैक्सीन कितना असरदार होगा और कितने दिनों तक सुरक्षा देगा? क्या यह अन्य कोरोना वायरस से भी रक्षा करेगा या केवल कोविड-19 से? कोविड-19 के वायरस में जो इतने म्यूटेशन हो रहे हैं, उसका वैक्सीन के असरदार होने पर कितना असर पड़ेगा?

जो वैज्ञानिक कोविड-19 के वायरस के आगमन से पहले अन्य कोरोना वायरस के वैक्सीन पर अनुसंधान कर रहे थे, उन्होंने बताया है कि इसमें कई जटिलताएं हैं। फाईनेंशियल टाईम्स में 22 मई को प्रकाशित लेख में बताया गया है कि कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार वैक्सीन से बीमारों का खतरा बढ़ने की भी कुछ संभावनाएं हैं। यह संभावना कुछ उससे मिलती-जुलती है, जो फिलिपीन्स में डेंगू से बचाने के वैक्सीन के संदर्भ में देखी गई और जिसके कारण वहां बहुत से बच्चे मारे गए।

बड़ी वैक्सीन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हाल का इतिहास तो यही रहा है कि उन्होंने विकासशील देशों में अधिक महंगे उत्पाद (तरह-तरह के कंबीनेशन वैक्सीन के रूप में) बेचकर करोड़ों रूपए कमाए हैं, जबकि अधिक सस्ते वैक्सीन विकल्प के रूप में उपलब्ध थे। यह कंपनियां आरंभ में सबसिडी देती हैं, या तथाकथित परोपकारी संस्थाओं से इसकी व्यवस्था करवाई जाती है, पर बाद में बहुत भारी बिल निर्धन और विकासशील देशों को देना पड़ता है।

इन सभी पक्षों को ध्यान में रखकर ही भारत जैसे विशाल, विविध और विकासशील देशों को अपनी नीति तय करनी चाहिए और वैक्सीन की सेफ्टी के मामले पर कभी समझौता नहीं करना चाहिए। वैक्सीन के साथ विभिन्न अन्य दवाओं, इलाजों और जन-स्वास्थ्य उपायों पर समुचित ध्यान देना चाहिए।

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