तेजी से गर्म हो रही है पृथ्वी और घट रहा है मानव शरीर का तापमान

पिछले 150 साल के दौरान पृथ्वी के औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस से अधिक का इजाफा हो चुका है, जबकि इसी दौरान मानव शरीर का सामान्य तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस कम हुआ है। अब गर्मी से अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया में भी लोग मरने लगे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

पिछले कुछ दशकों से तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन की चर्चा लगातार की जा रही है, पर इसका असर पहले से अधिक विकराल होता जा रहा है। पिछला दशक मानव इतिहास का सबसे गर्म दशक था, और पिछला वर्ष मानव इतिहास का दूसरा सबसे गर्म वर्ष रहा। सबसे गर्म वर्ष 2016 था, जब एल नीनो का प्रभाव जोरों पर था। पिछले पांच वर्ष मानव इतिहास के सबसे गर्म वर्ष थे और इस सदी के अब तक बीते 19 वर्ष मानव इतिहास के सबसे गर्म 20 वर्षों में शामिल हैं।

आश्चर्य यह है कि इस गर्मी और जलवायु परिवर्तन के बीच मानव शरीर का सामान्य तापमान कम होता जा रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले लगभग 150 साल के दौरान मानव शरीर का सामान्य तापमान 98.6 डिग्री फारेनहाईट (37 डिग्री सेल्सियस) से घटकर 97.5 डिग्री फारेनहाईट (36.41 डिग्री सेल्सियस) तक आ गया। इसका सीधा सा मतलब है कि यदि पृथ्वी का औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है तो मानव शरीर को केवल एक डिग्री बढे तापमान से नहीं निपटना है, बल्कि 1.6 डिग्री सेल्सियस तापमान के अंतर से जूझना पड़ेगा। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि, इस बारे में वैज्ञानिक जगत में कोई चर्चा नहीं की जा रही है।

हाल में ही ई-लाइफ नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने यह दावा किया है। इन वैज्ञानिकों के अनुसार 98.6 डिग्री फारेनहाईट या फिर 37 डिग्री सेल्सियस के तापमान, जिसे हम आज भी सामान्य मानते हैं, वह 150 साल पहले का सामान्य तापमान था। इस सामान्य तापमान को साल 1851 में जर्मनी के डॉक्टर कार्ल रेंहोल्ड अगस्त वुन्देर्लिच ने 25000 से अधिक मरीजों के कांख (आर्मपिट) के तापमान का अध्ययन करने के बाद बताया था। तब से पूरी दुनिया में इसे ही सामान्य तापमान माना जाने लगा।

इस शोधपत्र की मुख्य लेखिका जूली पेर्सोनेट के अनुसार लगता है कि मनुष्य ने जितनी मुस्तैदी से अपने आसपास का वातावरण बदला है, उतनी ही मुस्तैदी से उसने अपने आप को भी बदल डाला। पिछले दशक की तुलना में मनुष्य की लंबाई, मोटाई तो बदल ही गयी है, अब तो मनुष्य पहले से अधिक ठंढा भी हो गया है। इस अध्ययन में इसके कारण पर चर्चा नहीं की गयी है, पर जूली पेर्सोनेट के अनुसार शरीर का तापमान घटना मतलब शारीरिक क्रियाओं (मेटाबोलिज्म) की दर का कम होना है, और संभव है कि इससे स्वस्थ्य रहने में आसानी होती हो।


इस शोधपत्र के वैज्ञानिकों के अनुसार मानव शरीर के तापमान घटने का कारण पहनावे में बदलाव, तापमान नियंत्रण के तरीके, नयी जीवन पद्धति और संक्रामक रोगों में कमी हो सकता है। यदि इस सिद्धांत को मान भी लें, तब भी मानव शरीर के तापमान में कमी का कारण खोज पाना कठिन काम है और वैज्ञानिकों के लिए एक बड़ी चुनौती है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक माइकल गुर्वें ने पिछले वर्ष बोलीविया की एक जनजाति का अध्ययन किया जो अभी तक आधुनिक विकास से बहुत दूर हैं। फिर भी साल 2004 से 2018 के बीच में ही इस जनजाति के लोगों के शरीर के तापमान में कमी दर्ज की गई। इसका सीधा सा मतलब है कि तापमान में कमी, आधुनिक सुख-सुविधा के कारण नहीं बल्कि प्राकृतिक कारणों से देखी जा रही है।

शोध पत्र के लिए तीन प्रकार के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया था। अमेरिका में 1862 से 1930 के बीच 83900 सैनिकों के उपलब्ध शारीरिक तापमान, अमेरिका में साल 1971 से 1975 के बीच किये गए नेशनल हेल्थ एंड न्यूट्रीशन सर्वे के तहत लिए गए 15301 व्यक्तियों के तापमान और स्टैनफोर्ड ट्रान्स्लेशनल रिसर्च इंस्टिट्यूट में 2007 से 2017 के बीच उपलब्ध 578222 व्यक्तियों के उपलब्ध तापमान का विश्लेषण किया गया था। सैनिकों को छोड़कर बाकी दो समूह में महिलाएं भी सम्मिलित थीं।

इस अध्ययन के अनुसार पिछले 150 वर्षों के दौरान पुरुषों के शरीर के सामान्य तापमान में 0.59 डिग्री सेल्सियस और महिलाओं के सामान्य तापमान में 0.32 डिग्री सेल्सियस की कमी आयी है। औसतन प्रति दशक मानव शरीर के तापमान में 0.03 डिग्री सेल्सियस की कमी दर्ज की गयी है। यूनिवर्सिटी ऑफ ज्युरिख के वैज्ञानिक फ्रैंक रहली के अनुसार ये आंकड़े बहुत दिलचस्प हैं, क्योंकि मानव शरीर के क्रिया विज्ञान में कम समय में कोई अंतर देख पाना बहुत कठिन है।

साल 2017 में बीएमजे नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन इंग्लैंड के 35000 लोगों के लगभग 250000 तापमान के आंकड़ों के विशेषण पर आधारित था। इसमें 64 प्रतिशत महिलाएं थीं। इस अध्ययन के अनुसार भी सामान्य तापमान 37 डिग्री सेल्सियस नहीं बल्कि 36.6 डिग्री सेल्सियस था।

यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड के वैज्ञानिक फिलिप मक्कोविअक इस तरह के अध्ययन को बकवास मानते हैं। उनके अनुसार मानव शरीर का सामान्य तापमान कुछ नहीं है, यह उम्र, लिंग, शारीरिक गतिविधि और कहां से तापमान ले रहे हैं, पर निर्भर करता है। शरीर के हरेक अंग का तापमान भी एक नहीं रहता। शरीर का सबसे गर्म हिस्सा लीवर होता है और सबसे ठंडा हिस्सा चमड़ी की सतह होती है। शरीर का तापमान सुबह सबसे कम और दोपहर में सबसे अधिक होता है।


यह एक अजीब विडंबना है कि मानव शरीर ठंढा हो रहा है, जबकि पृथ्वी का औसत तापमान प्रत्येक दशक में 0.18 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ रहा है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की तुलना में पिछले 40 वर्षों के दौरान तापमान वृद्धि में तेजी आयी है। साल 1960 के दशक के बाद से हरेक बाद का दशक पहले से अधिक गर्म रहा है। साल 2019 के दौरान पृथ्वी के किसी हिस्से में रिकॉर्ड सर्दी नहीं पड़ी, पर दुनिया के 36 देशों में गर्मी के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त हो गए। पिछले साल वाशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित एक विश्लेषण के अनुसार पूरी पृथ्वी का तापमान 1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है, पर इसके 10 प्रतिशत हिस्से का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ चुका है, जबकि 20 प्रतिशत हिस्से का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ चुका है।

स्पष्ट है कि पिछले 150 वर्षों के दौरान पृथ्वी के औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस से अधिक की बढ़ोत्तरी हो चुकी है, जबकि इसी अवधि के दौरान मानव शरीर का सामान्य तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस कम हो चुका है। पर, तमाम स्वास्थ्य सेवाएं केवल पृथ्वी के बढ़ते तापमान के अनुसार भविष्य की तैयारी कर रहीं है और मानव शरीर के घटते तापमान को नजरअंदाज कर रहीं हैं। संभवतः इसीलिए अब गर्मी से केवल भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश या मध्य पूर्व के देशों में ही मौतें नहीं हो रहीं हैं, बल्कि अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया में भी लोग मरने लगे हैं।

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