सरकारी दस्तावेज़ों में दिखाई जा रही विकास की गुलाबी तस्वीर और तथ्यों से झलकती दावों की खोखली जड़ें

सरकार ने हालिया पेश अंतरिम बजट के जरिये भारत को विकसित देशों की कतार में लाने की रणनीतिक दिशा में बढ़ने का दावा किया है, हालांकि यह तय है कि पुराने ढर्रे पर चलकर यह लक्ष्य नहीं पाया जा सकता।

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इंदिरा हिरवे

अभी पहली फरवरी को पेश किया गया 2024-25 का केंद्रीय अंतरिम बजट दो मायनों में अहम रहा: (1) सरकार ने पिछले दशक के दौरान इस सरकार की उपलब्धियों पर रोशनी डाली और (2) भारत को विकसित देश बनाने का खाका पेश किया, बशर्ते लोग उसे आगामी चुनावों में सत्ता में लाते रहें। 

वित्त मंत्री ने अपने भाषण की शुरुआत ‘समाज के सभी वर्गों के कवरेज के माध्यम से सामाजिक समावेशिता’ और ‘सभी क्षेत्रों के विकास के माध्यम से भौगोलिक समावेशिता’ के साथ ‘पिछले दस सालों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में आए व्यापक सकारात्मक बदलाव’ के जोरदार दावों के साथ की। हमारी अर्थव्यवस्था की यह गुलाबी तस्वीर ज्यादातर मायनों में तथ्यात्मक रूप से गलत है। नीति आयोग के इस दावे कि आर्थिक मंदी के दौरान बहुआयामी गरीबी में गिरावट आई है, का कई विशेषज्ञों ने जोरदार खंडन करते हुए दिखाया है कि गरीबी वास्तव में बढ़ ही गई है!

वित्त मंत्री ने गरीबी के कुल अनुपात में गिरावट का भी जो दावा किया, वह भी गलत है क्योंकि 2011-12 के बाद का कोई उपभोग व्यय डेटा उपलब्ध नहीं है और इसके बिना गरीबी अनुपात नहीं निकाला जा सकता। यह दावा भी गलत है कि श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि उनके सशक्तिकरण को दिखाती है क्योंकि यह वृद्धि मुख्य रूप से उनके स्व-रोजगार में है और इसका मतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की दुर्बलता बढ़ी है।

गौर करने वाली बात यह है कि सरकार ने महामारी को सही तरीके से  नहीं संभाला और अचानक बिना सोचे-समझे लगाए गए लॉकडाउन के कारण हजारों-हजार गरीब असहाय प्रवासियों को अपने घर तक पहुंचने के लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा, जब जरूरत हुई तो ऑक्सीजन सिलेंडर की भारी कमी हो गई। इस तरह की तमाम खामियां रहीं। रोजगार के मोर्चे पर भी प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। इस प्रकार सरकार द्वारा किए गए ज्यादातर दावे गलत पाए जाते हैं। 

बजट का फोकस गरीबों, युवाओं, महिलाओं और किसानों पर है जो सही भी है, हालांकि बजट इस फोकस को प्रतिबिंबित नहीं करता है। यह ध्यान रखना चाहिए कि सरकार की जीडीपी-केंद्रित रणनीति इन चार क्षेत्रों को अपने आप मदद नहीं करेगी। खास तौर पर गरीबों और युवाओं के लिए रोजगार-केंद्रित रणनीति की जरूरत है जो शिक्षा और कौशल निर्माण से मजबूती से जुड़ी हुई हो।

बड़े पैमाने पर उत्पादक रोजगार का सृजन समावेशी विकास तक पहुंचने का निश्चित तरीका है। हमारी 79% साक्षरता (21% निरक्षरता) और लगभग 30-35% आबादी माध्यमिक स्तर तक शिक्षित होने के कारण हमारा श्रमबल मुख्यधारा की विकास प्रक्रिया में भाग लेने के काबिल नहीं है। 

जब तक अच्छी शिक्षा और बड़ी संख्या में उत्पादक रोजगार सृजित करने पर होने वाले व्यय में भारी उछाल नहीं आता, युवा और गरीब हाशिये पर ही रहेंगे। 80 करोड़ लोगों (जनसंख्या का लगभग 60%) को मुफ्त अनाज देना एक तरह का दान ही है और इससे कहीं बेहतर विकल्प है उत्पादक रोजगार का सृजन। 


महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को समझना काफी जटिल है। महिलाओं के सशक्त नहीं होने की जड़ें पितृसत्ता वाली व्यवस्था में निहित हैं। श्रम बाजार में महिलाओं की कम भागीदारी दर और उनकी निम्न स्थिति श्रम के पितृसत्तात्मक विभाजन से उत्पन्न होती है जिसके तहत महिलाएं अवैतनिक घरेलू काम करती हैं और परिवार में बच्चे, बूढ़े, बीमार और विकलांगों की अवैतनिक देखभाल के लिए जिम्मेदार होती हैं और श्रम बाजार में तमाम पितृसत्तात्मक मानदंडों के जरिये उन पर बंदिशें भी लगाई जाती हैं।

घरेलू स्तर पर श्रम का विभाजन पुरुषों को परिवार के लिए कमाने वाले की भूमिका देता है और महिलाओं को घर का काम संभालने की, यानी महिलाएं घर के रख-रखाव और बच्चे, बूढ़े, बीमार और विकलांगों की देखभाल की जिम्मेदारी निभाती हैं। यहां तक कि जब कामकाज के लिए किसी को रखा जाता है, तब भी घर की देखभाल की जिम्मेदारी महिला की ही होती है।

नतीजा यह होता है कि महिलाएं या तो श्रम बाजार में प्रवेश ही नहीं कर पातीं या वे घरेलू जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेकर इसमें प्रवेश करती हैं, यानी श्रम बाजार में लैंगिक असमानता श्रम बाजार के प्रवेश द्वार से ही शुरू हो जाती है।

कम मानव पूंजी और श्रम बाजार में सीमित गतिशीलता के साथ, पितृसत्तात्मक मानदंडों के कारण, श्रम बाजार में उनकी पसंद भी लिंग आधारित है, यानी वे घर के पास ही काम करना पसंद करती हैं, चाहती हैं कि कोई अंशकालिक काम मिले या जहां लचीलापन हो और काम का एक सुरक्षित माहौल पसंद करती हैं। इससे होता यह है कि महिलाएं आम तौर पर घिसी-पिटी कम उत्पादकता वाली नौकरियों में खचाखच भरी रहती हैं। 

अगर सरकार चाहती है कि महिलाएं सशक्त हों और श्रम बाजार में भी प्रवेश करें, तो उन्हें सबसे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके अवैतनिक काम में कमी आए। प्रौद्योगिकी में सुधार कर यह सुनिश्चित किया जा सकता है (खाना बनाने के लिए लकड़ी वाले आदिम चूल्हे की जगह ईंधन कुशल स्टोव उपलब्ध कराना); अवैतनिक कार्य को कम करने के लिए ढांचागत सहायता प्रदान करके (उदाहरण के लिए, घर तक पानी की आपूर्ति); बच्चों, विकलांगों या बूढ़ों की देखभाल जैसे अवैतनिक कार्यों के एक हिस्से को बाजार संस्थानों (जो बच्चों की देखभाल और अन्य देखभाल के लिए शुल्क लेते हैं) या नागरिक समाज संगठनों के हिस्से किया जाए।

ये कदम महिलाओं को काफी हद तक अवैतनिक काम के बोझ से मुक्त कर देंगे और उन्हें कुछ ऐसा वक्त देंगे कि वे नए कौशल हासिल कर सकें या उत्पादक कार्यों में भाग ले सकें। श्रम बाजार में लैंगिक समानता लाने के लिए सरकार को महिलाओं की शिक्षा और उनके कौशल स्तर में सुधार के लिए भी बड़ी छलांग लगानी होगी।


अफसोस की बात है कि सरकार महिलाओं के वैतनिक काम और सामाजिक मानदंडों में उनकी निम्न भूमिका और श्रम बाजार में उनकी कम भागीदारी पर जरूरी ध्यान नहीं देती है। सरकार ने महिलाओं की वास्तविक दिक्कतों को दूर करने के लिए कोई नीति नहीं बनाई है। उसे यह समझना चाहिए कि कमजोर वर्ग की महिलाओं पर उनके अवैतनिक काम को कम किए बिना श्रम बाजार में अधिक काम का बोझ डालने से उनके सशक्तिकरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका है।

जहां तक हमारे देश को ‘विकासित भारत’ की ओर ले जाने की रणनीति का सवाल है, विकास के पुराने ढर्रे को जारी रखने से समावेशी और सर्वव्यापी विकास हासिल नहीं होने जा रहा। ‘सबका साथ’ तभी होगा जब कोई हमारी आबादी के बड़े पिछड़े और हाशिए पर मौजूद वर्गों का ख्याल रखे।

(डॉ इंदिरा हिरवे सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑल्टरनेटिव्स, अहमदाबाद में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं और न्यूयॉर्क के बार्ड कॉलेज के लेवी इकोनॉमिक्स इंस्टीट्यूट में एसोसिएट हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)

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