विष्णु नागर का व्यंग्यः हर साल बुराई पर अच्छाई को जीत दिलाते हैं, लेकिन नहीं मालूम कि राम कौन है और रावण कौन!

कलयुग है और बाजारवाद का जमाना है। यहां राम और रावण सब रेडिमेड मिलते हैंं। खरीद लाओ, राम को जिताओ, रावण को हराओ। कोई ताली न बजाए तो हजारों लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट ध्वनि गूगल पर मिल जाएगी। सबको लगेगा कि वाकई अच्छाई की विजय हो चुकी है और बुराई हार गई है।

फोटोः सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

चलो अभी दो दिन पहले दशहरे के अवसर पर अंततः बुराई पर अच्छाई को विजय मिल चुकी है। आप सबको हार्दिक बधाई। अब तो खुश हैं न आप! अब तो जी, मौजां ही मौजां है। बल्ले-बल्ले करने के दिन आ गए हैं आखिर। अरे भाई जब रावण पर, राम की विजय हो जाए तो पहले कुछ और करते होंगे, अब तो बल्ले-बल्ले ही करना पड़ेगा न!

पर एक बात मुझे समझ में नहीं आई कि ये हर साल हमें बुराई पर अच्छाई को जबर्दस्ती विजय क्यों दिलवानी पड़ती है? हर साल राम जी को विजय पाने का और रावण जी को उनके हाथों मारे जाने का कष्ट क्यों उठाना पड़ता है? हर चीज की एक हद होती है! क्या उन दोनों के लिए यह सब बार-बार करना बड़ा तकलीफदेह नहीं है? एक ही अभिनय बार-बार लगातार करते आ रहे हैं और कोई अंत ही नजर नहीं आ रहा है। माफ करना फिल्मों के नौसिखिया से नौसिखिया हीरो और विलेन को भी इतनी बार एक ही सीन करके दिखाना नहीं पड़ता। इनका डायरेक्टर तो पता नहीं कौन है, जो सीन ओके ही नहीं कर रहा है! कर दो भाई, बहुत हो गया यार। ज्यादा तंग करेगा तो राम-रावण मिलकर कहेंगे कि इस फिलम की ऐसी-तैसी, हमारा करियर बर्बाद करके रख दिया। इस बार सीन ओके करो, नहीं तो हम चले!

वैसे हम सब भी हर साल बुराई पर अच्छाई को विजय दिलाते-दिलाते थक चुके हैं। कितनी बार एक को हराते जाएं और दूसरे को जिताते जाएं। ऐसा तो हम चुनाव में वोट डालते समय भी नहीं करते। अपने साथ कितनी बार जबर्दस्ती करें हम। वो तो अच्छा है, हर दिन, हर घंटे, हर पल हमें बुराई पर अच्छाई को विजय नहीं दिलानी पड़ती, वरना खाना-पीना, नौकरी-धंधा-मजदूरी करना, अपना और अपने बच्चों का पेट पालना तक मुश्किल हो जाता। और तो और सोना तक हराम हो जाता। हालांकि हालात ऐसे हैं कि हर पल, हर क्षण विजय दिलाने से भी काम नहीं चलता। अच्छा ही है कि एक बार विजय दिलाई और सालभर की छुट्टी।

वैसे हम जैसे बेवकूफ भी कम नहीं हैं, जिन्हें यही नहीं मालूम कि राम कौन है और रावण कौन? यहां तो रावणों की कतार लगी हुई है। कोई सूसू-पानी के लिए भी नहीं जा रहा, इस डर से कि कहीं पीछे वाला रावण यह न कह दे कि हट बे, अब पीछे जा। हम भी तो रोके खड़े हैं इतनी देर से, तू नहीं रोक सकता था? अरे आपने सुना कि नहीं? सूसू-पानीवाला रावण नहीं मानता तो रावण-रावण युद्ध शुरू हो जाता है, खून- खच्चर हो जाता है। उनमेंं से एक मर जाता है और दूसरा इतना घायल हो जाता है कि 24 घंटे बाद वह भी इस दुनिया से कूच कर जाता है। इधर राम तीर-धनुष लिए जीतने को बेताब हैं, उधर रावण, रावण से निबटने में ही लगे हुए हैं। इधर रामजन्म भूमि पर मंदिर बनाने का नारा फिर से लग रहा है, उधर उनका रोल खतरे में है!

कलयुग है भाई, इसमें राम की जरूरत ही नहीं पड़ती! जरूरत तो वैसे रावण की भी नहीं पड़ती मगर जरूरत क्रिएट करनी पड़ती है। बाजारवाद का जमाना है न! रावण बनाओगे तो लोग कहेंगे राम भी तो बनाकर लाओ वरना रावण बेचारे का उद्धार कौन करेगा? सब रेडिमेड मिलते हैंं, राम भी, रावण भी! दोनों को खरीद लाओ, राम को जिताओ, रावण को हराओ और ताली बजाओ या चाहो तो इसका उलट भी कर सकते हो। जब  रेडिमेड राम भी अपने और रावण भी तो कुछ भी करो। कोई और न बजाए ताली तो खुद बजा लो वरना हजारों लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट की ध्वनि गूगल पर उपलब्ध हो जाएगी। उसे इस्तेमाल करो। सबको लगेगा कि वाकई अच्छाई की विजय हो चुकी है और बुराई हार गई है।

हम जैसे कुछ बदमाश जरूर पहचान लेंगे कि यह करतल ध्वनि रिकार्डेड है, लेकिन हम जैसों से फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है उनसे, जो भगवान के ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए खूनखराबा करने को तैयार बैठे हैं। जिन्हें गंगा मैया बुलाती है कि आ भैया प्रधानमंत्री बन और मेरा रहा-सहा विनाश तू भी कर और मन की शांति पा और जो मेरे अविरल प्रवाह के लिए जान दे दें, उनकी तरफ पीठ कर और राममंदिर-राममंदिर जपना शुरू कर दे और पराया माल अपना करता चला जा। कोई किसी को झूठमूठ भी मां कह देता है और अपना उल्लू साध कर चल देता है तो भी मां यह नहीं कह सकती कि यह मेरा बेटा नहीं है। तो तू जा इस बार- यमुना, नर्मदा, कावेरी या किसी और को उल्लू बना, मैं अपने मुँंह से कुछ नहीं कहूंगी, मगर दूसरों को कहने से रोकूंगी भी नहीं।

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