अफगान शांति-वार्ता से निकलती उम्मीदें और पाकिस्तान की भूमिका पर खड़े अंदेशे

अमेरिका और तालिबान के बीच होने वाले समझौते पर दस्तखत के बाद अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत शुरू होगी। जाहिर है इस नए हालात में अमेरिका अपनी सबसे लंबी लड़ाई से बाहर निकल आएगा, लेकिन अफगानिस्तान सरकार नई चुनौतियों के बीच घिर जाएगी।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रमोद जोशी

सबकुछ ठीक रहा, तो इन पंक्तियों के प्रकाशित होने के कुछ समय बाद ही अफगानिस्तान में शांति -समझौते पर दस्तखत हो जाएंगे। इस समझौते के ठीक पहले की कुछ घटनाएं महत्वपूर्ण हैं जिन पर इसलिए नजर डालनी चाहिए क्योंकि आने वाले वक्त में वे अफगानिस्तान के शांति-स्थापना प्रयासों में महत्वपूर्ण साबित होंगी। इनमें एक परिघटना है अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का भारत दौरा। बेशक यह सैर-सपाटे वाली यात्रा थी, पर इसकी पृष्ठभूमि में चला राजनयिक संवाद बेहद महत्वपूर्ण था।

इस यात्रा के ठीक पहले अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने घोषणा की थी कि ‘अफगानिस्तान में शांति बहाली के लिए अमेरिका और तालिबान के बीच 29 फरवरी को समझौता हो सकता है।’ उन्होंने यह बात सऊदी अरब में कही थी। उधर, तालिबान के प्रवक्ता ने कहा, ‘अमेरिका और तालि बान के बीच समझौता अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में होगा।’ समझौते के पहले एक सप्ताह तक ‘हिंसा में कमी’ या युद्ध विराम पर भी समझौता हुआ था, जिसकी शुरुआत 22 फरवरी को हुई। कमोबेश दोनों पक्षों ने उसका पालन किया।

अशरफ गनी की विजय

एक और महत्वपूर्ण परिघटना थी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के फिर से चुने जाने की आधिकारिक घोषणा जो 18 फरवरी को की गई। यानी शेष विश्व के लिए जो आधिकारिक अफगानि स्तान है, उसके कील-कांटे भी दुरुस्त कर लिए गए हैं। अशरफ गनी के प्रतिस्पर्धी अब्दुल्ला अब्दुल्ला के समर्थक इस बार भी इस चुनाव परिणाम को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने धमकी दी है कि हम अपनी सरकार बनाएंगे। दूसरी तरफ उप राष्ट्रपति अब्दुल रशीद दोस्तम ने भी समांतर सरकार बनाने की धमकी दी है। साल 2014 के चुनाव के बाद भी हंगामा हुआ था। तब अमेरिका ने अब्दुल्ला अब्दुल्ला को चीफ एक्जीक्यूटिव के रूप में एक पद थमाकर संतुष्ट किया था, लेकिन इस बार ऐसा नहीं होने वाला।

अमेरिकी विदेश मंत्री के अनुसार, अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते पर दस्तखत के बाद अफगानिस्तान की सरकार और तालिबान के बीच बातचीत शुरू होगी। समझौता लागू होने के पहले अभी कुछ प्रक्रियाएं पूरी होंगी। तालिबान अभी तक अफगानिस्तान की सरकार को मान्यता ही नहीं देते थे। दूसरी तरफ अफगानिस्तान सुरक्षा काउंसिल के प्रवक्ता ने कहा, हम इस समझौते को लागू करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। साथ ही युद्ध विराम के दौरान इस्लामिक स्टेट और दूसरे चरमपंथी संगठनों के खिलाफ फौजी ऑपरेशन जारी रहेंगे।


चुनौतियां बढ़ेंगी

जाहिर है कि अमेरिका अपना पल्ला तो छुड़ा लेगा, पर अफगानिस्तान सरकार के सामने चुनौतियां बढ़ेंगी। अमेरिका और दूसरे मित्र देश उसे किस हद तक समर्थन देंगे और किस जुगत से उसे बनाए रखने में सफलता मिलेगी, इसे भी देखना और समझना होगा। अमेरिका अपनी सबसे लंबी लड़ाई से बाहर जरूर निकल आएगा, पर अफगानिस्तान सरकार नई चुनौतियों से घिर जाएगी। अफगानि स्तान बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की सबसे जटिल समस्याओं में से एक है। आज अमेरिका जिन लोगों के साथ बातचीत कर रहा है, उनके साथ मिलकर कभी उसने सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।

हाल में अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स ’ में 21 फरवरी के अंक में सिराजुद्दीन हक्कानी का ऑप एडिट पेज पर लेख छपा है। इसका शीर्षक है- ‘हम तालिबान क्या चाहते हैं?’ सिराजुद्दीन हक्कानी उस हक्कानी नेटवर्क का प्रमुख है, जिसके खिलाफ अमेरिका ने मुहिम चला रखी थी। उसके पिता जलालुद्दीन हक्कानी कभी इस तालिबानी फौज के कमांडर हुआ करते थे।

‘न्यूयॉर्क टाइम्स ’ ने इनका लेख प्रकाशित करते समय परिचय में लिखा है ‘तालिबान उप प्रमुख।’ अमेरिका की संघीय जांच एजेंसी एफबीआई ने सिराजुद्दीन हक्कानी पर 50 लाख डॉलर का और अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा है। ऐसे कुख्यात आतंकवादी का लेख अमेरिका के सबसे आदरणीय अखबार में छपने का मतलब है कि परिस्थितियां बदल चुकी हैं। कम से कम इतना साफ है कि अमेरिकी प्रतिष्ठान ने तालिबान को अफगान व्यवस्था में महत्वपूर्ण भागीदार के रूप में स्वीकार कर लिया है।

हक्कानी की नई व्यवस्था

सिराजुद्दीन हक्कानी ने लिखा है, ‘युद्ध से सभी पक्ष थक चुके हैं।’ दूसरी तरफ अमेरिकी प्रतिष्ठान ने मान लिया है कि तालिबान और अल कायदा तथा इस्लामिक स्टेट में समानता नहीं है। तालिबान एक राष्ट्रीय आंदोलन है जबकि दूसरे ‘पैन इस्लामिक’ संगठन हैं। सिराजुद्दीन हक्कानी ने अपने लेख में लिखा, ‘सन 2018 में जब हमने अमेरिका के साथ बातचीत शुरू की थी, तब हमें अपेक्षित परिणामों की कोई उम्मीद नहीं थी। 18 साल की लड़ाई के बाद अमेरिकी इरादों पर हमारा यकीन खत्म हो चुका था। इसके पहले भी बातचीत की तमाम कोशिशें व्यर्थ हो चुकी थीं, फिर भी हमने कहा, एक मौका और सही। हमारी पहली मांग है विदेशी सेनाओं की वापसी। मेरे साथी मुल्ला अब्दुल गनी बरादर और शेर मोहम्मद अबसस्तानि कजाई ने करीब 18 महीने तक अथक प्रयास करके समझौते को संभव बनाया है। यहां तक कि जब राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि बातचीत खत्म, तब भी हमने दरवाजा खुला रखा क्योंकि लगातार लड़ाई से अफगान नागरिकों को ही नुकसान हुआ है।’


इस लेख में व्यक्त हक्कानी की जिन बातों पर गौर करना चाहिए, उनमें से एक यह है कि इस प्रक्रिया में किसी को पहले से किसी परिणाम की उम्मीद करनी चाहिए और न कोई शर्त लगानी चाहिए। …हमें उम्मीद है कि विदेशी प्रभुत्व और हस्तक्षेप से मुक्त होकर हम सभी अफगानों की एक ऐसी ‘इस्लामिक व्यवस्था कायम करने में कामयाब होंगे, जहां सभी को समान अधिकार प्राप्त होंगे, स्त्रियों को इस्लाम ने जो अधिकार दिए हैं- शिक्षा और काम करने का- उनकी रक्षा होगी और सबको अपनी गुणवत्ता के आधार पर समान अवसर मिलेंगे।’

हक्कानी ने यह भी लिखा है कि “यदि हम एक विदेशी दुश्मन के साथ सहमति बना सकते हैं, तो मुझे यकीन है कि हम अफगान समूहों के साथ बैठकर अपनी असहमतियों को दूर कर सकते हैं। अपनी सेना को वापसी बुलाने के बाद अमेरिका देश के पुनर्निर्माण में रचनात्मक भूमिका भी निभा सकता है। हम सभी देशों के साथ दोस्ताना रिश्तों को महत्व देते हैं और उनकी चिंताओं को भी गंभीरता से देखते हैं। नया अफगानिस्तान अंतरराष्ट्रीय समुदाय का जिम्मेदार सदस्य बनकर रहेगा। हम उन सभी अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों को मानेंगे जो इस्लामिक सिद्धांतों के अनुरूप होंगे।”

पाक के उत्साह की वजह

सिराजुद्दीन हक्कानी की बातों में भविष्य की उम्मीदें और अंदेशे एक ही जगह पर देखे जा सकते हैं। स्त्रियों के अधिकारों और अंतरराष्ट्रीय संधियों के सम्मान की बातें करने के बाद वे उन्हें इस्लामिक मान्यताओं और सिद्धांतों की कसौटियों पर परखने की बातें भी कहते हैं। इन मान्यताओं और परंपराओं की अलग-अलग व्याख्याएं हैं। तालिबान की एक व्याख्या हम उनके पहले कार्यकाल में देख चुके हैं। क्या वे कोई नई व्याख्या लाएंगे?

अमेरिका के साथ उनका जो समझौता होने वाला है, वह गोपनीय होगा। शायद उसके कुछ पन्नों को ही सार्वजनिक किया जाएगा। इसमें दो राय नहीं कि ‘अफगान राष्ट्र’ के सम्मान और हित इस समझौते से जुड़े होंगे, पर क्या पाकिस्तान के हित भी अफगानिस्तान के साथ जुड़े हैं? साल 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण करके उसे कंधार ले जाया गया था। तब तालिबान ने साफ तौर पर पाकिस्तान का साथ दिया था।


पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने हाल में दावा किया कि अमेरिका के साथ इस समझौते का रोडमैप तैयार करने में हमने मदद की है। उन्होंने कहा कि ‘अमेरिकी दूत जलमय खलीलजाद हाल में इस्लामाबाद आए थे, तब मैंने और प्रधानमंत्री ने उनके साथ विस्तृत बातचीत करके शांति-प्रक्रिया पर विमर्श किया था। हमने खलीलजाद को यह भी बताया था कि कुछ तत्व इस शांति-प्रक्रिया को ध्वस्त करना चाहते हैं।’

पाकिस्तान के इस अतिशय उत्साह के कारण भी समझ में आते हैं। अफगानिस्तान को इस हाल तक लाने में पाकिस्तान की सबसे बड़ी भूमिका है। तालिबान नाम की व्यवस्था पाकिस्तान की देन है। उसके मदरसों में ही उस विचार की रचना हुई जिसका शिकार आज अफगानिस्तान ही नहीं, पाकिस्तान खुद भी है। इस वजह से वह एक तरफ आर्थिक संकट से घिरा हुआ है और दूसरी तरफ उस पर एफएटीएफ की काली सूची का खतरा मंडरा रहा है।

पाकिस्तान ने अफगानिस्तान की आड़ में ही कश्मीर में आतंकी हिंसा का खेल शुरू किया था। दूसरी तरफ अफगानिस्तान के विकास में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है। पाकिस्तान उसमें अड़ंगा लगाएगा। इस शांति समझौते का भारत पर असर जरूर पड़ेगा। हमें उस पर अलग से विचार करना चाहिए।

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Published: 29 Feb 2020, 9:12 PM