केवल पूंजीपतियों का हित साधती है चरम दक्षिणपंथी विचारधारा, इनके लिए हरेक प्राकृतिक संसाधन मुफ्त उपलब्ध कच्चा माल

हमारे देश में भी वर्ष 2014 के बाद से पर्यावरण संरक्षण केवल भाषणों में किया जाने लगा है, जमीनी हकीकत यह है कि नदियां, पहाड़, वनस्पति, जैव-विविधता, जंगल–सबका केवल विनाश किया जा रहा है।

फोटो : आईएएनएस
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महेन्द्र पांडे

उत्तरकाशी की त्रासदी के बीच 13 जनवरी को हमारे प्रधानमंत्री जी ने बनारस में गंगा किनारे रेत पर बनाए गए टेंट सिटी और सबसे बड़े रिवर क्रूज का उदघाटन किया है। एक तरफ मुनाफे और अमीरों के पर्यटन के लिए प्रकृति के दोहन से उत्पन्न आपदा है तो दूसरी तरफ भविष्य में आने वाली आपदा है। यही उदाहरण अपने आप में स्पष्ट कर देता है कि हमारी सरकार पर्यावरण को और इसके विनाश से होने वाली त्रासदी, जिसमें मानव त्रासदी, भी शामिल है को किस नजरिये से देखती है। हिमालय को बर्बाद करने का और गंगा किनारे टेंट सिटी का आइडिया हमारे प्रधानमंत्री जी के तथाकथित ड्रीम प्रोजेक्ट हैं। दूसरी तरफ हरेक अंतर्राष्ट्रीय मंच पर चढ़ते ही प्रधानमंत्री जी को भारत की पर्यावरण संरक्षण की 5000 वर्षों की परम्परा ध्यान आती है। चरम दक्षिणपंथी विचारधारा केवल पूंजीपतियों का हित साधती है, जिनके लिए हरेक प्राकृतिक संसाधन मुफ्त उपलब्ध कच्चा माल है जिससे सरकारी संरक्षण में मुनाफा कमाना पूंजीपतियों का अधिकार है। जनता महज एक अधिकार-विहीन श्रमिक है।

अमेरिका ने डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति रहते अपने देश के पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का खूब विनाश किया। डोनाल्ड ट्रम्प तो जलवायु परिवर्तन की खिल्ली भी उड़ाया करते थे, इसे झूठ करार दिया था और अर्थव्यवस्था पर बोझ बताया था। उन्होंने अमेरिका अपने शासन के दौरान जलवायु परिवर्तन रोकने के साथ ही पर्यावरण संरक्षण समेत अनेक अंतर्राष्ट्रीय समझौतों से अमेरिका को अलग कर दिया था। ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री स्कॉट मौरीसन ने भी सत्ता में रहते हुए प्राकृतिक संसाधनों का खूब विनाश किया और अनेक अंतर्राष्ट्रीय समझौतों से ऑस्ट्रेलिया को अलग कर दिया था। पर्यावरण कार्यकर्ताओं के लगातार विरोध के बाद भी गौतम अडानी की कंपनी को कोयला खदान की इजाजत भी स्कॉट मौरीसन के समय ही मिली थी।

हरेक मामले में डोनाल्ड ट्रम्प का अनुसरण करने वाले ब्राज़ील के पूर्व राष्ट्रपति जैर बोल्सेनारो का नाम इतिहास में राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद दंगे और संवैधानिक संस्थाओं पर हिंसक हमले के लिए ही नहीं दर्ज होगा बल्कि धरती का फेफड़ा कहे जाने वाले अमेज़न वर्षा वनों को बर्बाद करने के लिए भी किया जाएगा। यह एक ऐसा प्राकृतिक नुकसान है जिसकी भरपाई किसी तरह से भी नहीं की जा सकती है। दिसम्बर 2022 जैर बोल्सेनारो के राष्ट्रपति काल का अंतिम महीना था, और इस अंतिम महीने में अमेज़न के जंगलों में पेड़ों को काटने की दर 150 प्रतिशत तक बढ़ गयी थी। ब्राजील के ही सरकारी आकड़ों के अनुसार केवल दिसम्बर 2022 के दौरान अमेजन के 218.4 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के जंगल काट डाले गए। जैर बोल्सेनारो के पूरे कार्यकाल के दौरान जंगलों के काटने की औसत दर उनके कार्यकाल से पहले की तुलना में 75.5 प्रतिशत अधिक थी। दूसरी तरफ वामपंथी विचारधारा वाले वर्त्तमान राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लूला डा सिल्वा के पिछले कार्यकाल वर्ष 2003 से 2010 के बीच अमेज़न के वर्षा वनों के कटने की दर पहले के मुकाबले 75 प्रतिशत तक कम हो गयी है। लूला डासिल्वा ने राष्ट्रपति बनाने के बाद अपने पहले भाषण में ही अमेजन में जंगलों के काटने की दर को शून्य तक करने का वादा किया है।


हमारे देश में भी वर्ष 2014 के बाद से पर्यावरण संरक्षण केवल भाषणों में किया जाने लगा है, जमीनी हकीकत यह है कि नदियां, पहाड़, वनस्पति, जैव-विविधता, जंगल–सबका केवल विनाश किया जा रहा है। इस विनाश के साथ ही एक बड़ी आबादी का भी विनाश हो रहा है। बनारस में गंगा के एक तरफ शहर है और सारे घाट हैं, और दूसरी तरफ घुमावदार रेत का इलाका है। इसी रेत के इलाके पर प्रधानमंत्री जी का तथाकथित ड्रीम प्रोजेक्ट, टेंट सिटी को खड़ा किया गया है। प्रधानमंत्री जी को निश्चित तौर पर रेत का यह क्षेत्र महज एक खाली और बेकार जमीन नजर आई होगी और यह विचार आया होगा। मीडिया और तमाम मंत्री के साथ ही मुख्यमंत्री आदित्यनाथ भी इन पांच सितारा टेंट हाउस को देखकर गदगद हैं और पर्यटन के लिहाज से पूंजीवादी शब्दों में फायदेमंद बता रहे हैं।

हमारे प्रधानमंत्री का हरेक कदम समाज में असमानता पहले से अधिक बढ़ा देता है। पांच सितारा रिवर क्रूज हो या फिर पांच सितारा टेंट हाउस – जाहिर है इनका उपयोग केवल रईस और अमीरजादे ही कर पाएंगे। उनकी भाषणों में जिस पर्यटन का जिक्र बार-बार आता है, वह तो देश के 10 पर्तिशत आबादी के भी पहुंच में नहीं है। दूसरी तरफ अत्यधिक महंगे टेंट सिटी के बाद शहर के अन्दर मौजूद सभी होटलों और रेस्ट हाउस के दाम भी बढ़ जाएगें। यही हाल चार-धाम ऑल वेदर रोड का भी है, यह हाईवे अमीरजादों की महंगी गाड़ियों को हिमालय को रौंदने के लिए तैयार किया जा रहा है। सामान्य आबादी तो पहले भी बसों से इन धामों तक पहुंच जाती थी।

गंगा का यह रेतीला क्षेत्र पूंजीवादी व्यवस्था के लिए खाली क्षेत्र हो सकता है पर पर्यावरण के लिहाज से यह गंगा के पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसका महत्त्व गंगा के बहाव और गंगा के पानी की सफाई में भी है। यह क्षेत्र बनारस शहर को कुछ हद तक बाढ़ से भी बचाता है। जाहिर है, टेंट सिटी के नाम पर इस क्षेत्र के भूगोल को बदला गया होगा, समतल किया गया होगा। इस क्षेत्र में जो पर्यटक आएगें, वे अमीरजादे होंगे और जिन्हें गंगा नदी से कोई मतलब नहीं होगा। यह बनारस में पहले से प्रदूषित गंगा में प्रदूषण का एक नया स्त्रोत बन जाएगा।

यही पर्यटन को बढ़ावा देने की सोच और पहाड़ों को मनमर्जी से काटकर/तोड़कर वहां स्वच्छंद बहने वाली नदियों की धारा रोककर बांध खड़ा करने की मानसिकता ने हिमालय को इस हाल में पहुंचा दिया है। हिमालय का यह हाल केवल जोशीमठ तक ही सीमित हो ऐसा नहीं है। ऊपरी हिमालय का हरेक वो क्षेत्र जो नए हाईवे और पन-बिजली परियोजनाओं के इर्दगिर्द है, सबका यही हाल है, या फिर कुछ वर्षों में सारे ऊपरी शहर उत्तरकाशी में तब्दील हो जाएंगे। तमाम तिकड़मों और झूठ के सहारे जिस ड्रीम प्रोजेक्ट, आल-वेदर चारधाम हाईवे, को बनाया गया है, वही हाईवे लगातार भूस्खलन और हिमस्खलन की चपेट में रहता है और कई मौकों पर इसे बंद भी करना पड़ता है।


हरेक ऐसी विनाशकारी योजना के बाद प्रधानमंत्री जी बड़े गर्व से दावा करते हैं कि इससे स्थानीय आबादी को रोजगार मिलेगा और स्थानीय आबादी को फायदा भी होगा। बहुत सारे अध्ययन यह बताते हैं कि पन-बिजली परियोजनाओं से स्थानीय आबादी को कई फायदा नहीं मिलता और ना ही इन इलाकों में बिजली आपूर्ति की स्थिति में कोई सुधार आता है। जहां तक स्थानीय आबादी के रोजगार का झांसा है यो याद कीजिए वर्ष 2021 के शुरू में जब हिमालय की ऊपरी क्षेत्र में ऋषिगंगा नदी में फ़्लैशफ्लड आया और दो पण-बिजले योजनायें पूरी तरह बह गई, और 200 से अधिक श्रमिक लापता हो गए। इनमें से अधिकतर का आजतक नहीं पता है, पर इनमें से अधिकतर श्रमिक उत्तराखंड के नहीं बल्कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे।

वर्ष 2022 के पर्यावरण प्रदर्शन इंडेक्स, यानि एनवायर्नमेंटल परफॉरमेंस इंडेक्स में कुल 180 देशों में भारत का स्थान 180वां है। इस इंडेक्स को वर्ल्ड इकनोमिक फोरम के लिए येल यूनिवर्सिटी और कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक संयुक्त तौर पर तैयार करते हैं और इसका प्रकाशन वर्ष 2012 से हरेक दो वर्षों के अंतराल पर किया जाता है। वर्ष 2020 के इंडेक्स में भारत 168वें स्थान पर था। इंडेक्स भारत पर खत्म होता है और भारत से पहले क्रम में म्यांमार, वियतनाम, बांग्लादेश, पाकिस्तान, पापुआ न्यू गिनी, लाइबेरिया, हैती, तुर्की और सूडान का स्थान है। एशिया के देशों में सबसे आगे जापान 25वें स्थान पर है। साउथ कोरिया 63वें, ताइवान 74वें, अफगानिस्तान 81वें, भूटान 85वें और श्री लंका 132वें स्थान पर है। चीन 160वें, नेपाल 162वें, पाकिस्तान 176वें, बांग्लादेश 177वें, म्यांमार 179वें स्थान पर है। जाहिर है, हमारे सभी पड़ोसी देश हमसे बेहतर स्थान पर हैं। दुनिया के प्रमुख देशों में जर्मनी 13वें, ऑस्ट्रेलिया 17वें, न्यूजीलैण्ड 26वें, अमेरिका 43वें, कनाडा 49वें और रूस 112वें स्थान पर है। पर्यावरण प्रदर्शन इंडेक्स का आधार पारिस्थितिकी तंत्र, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, जनस्वास्थ्य, साफ पानी और स्वछता और जैव-विविधता जैसे सूचकों पर देशों का प्रदर्शन है।

वर्ष 2019 में केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने संसद में जो कुछ कहा उसका मतलब स्पष्ट था – भारत गरीब देश है और गरीब देश इंफ्रास्ट्रक्चर की चिंता करता है, पर्यावरण की नहीं। जनता का पैसा इंफ्रास्ट्रक्चर में लगने से विकास होगा, पर्यावरण से क्या फायदा होगा? नितिन गडकरी समेत पूरी सरकार का यही मूलमंत्र है। जब गंगा सफाई का काम नितिन गडकरी के जिम्मे था तब भी गंगा साफ तो नहीं हुई, पर गडकरी साहब ने उसमें जलपोत और क्रूज जरूर चला दिए थे। गडकरी जी और प्रधानमंत्री के लिए तो तीर्थयात्रा और पर्यटन के अतिरिक्त हिमालय का भी कोई महत्व नहीं है, तभी तमाम पर्यावरण विशेषज्ञों के विरोध के बाद भी ऑल-वेदर रोड का काम जोरशोर से चल रहा है। इस रोड का जब काम शुरू हुआ था तब हमारे अति-उत्साही प्रधानमंत्री जी ने नितिन गडकरी को आधुनिक श्रवण कुमार का खिताब दिया था।

हिमालय पर बड़ी परियोजनाओं द्वारा पर्यावरण विनाश और जलवायु परिवर्तन के असर का घातक प्रभाव बार-बार सामने आता है, पर सरकारें हरेक ऐसे प्रभाव को लगातार अनदेखा कर रही हैं। अब तक पर्यावरण स्वीकृति के नाम पर अधकचरे ही सही पर स्थानीय पर्यावरण का कुछ तो अध्ययन किया ही जाता था, परियोजनाओं के द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का मूल्यांकन किया जाता था – पर आगे ऐसा कुछ नहीं किया जाएगा। हरेक छोटी-बड़ी परियोजना शुरू से अंत तक लगातार ठेकेदारों के इशारे पर चलती हैं, और कोई भी ठेकेदार केवल अपने मुनाफे के लिए काम करता है। पर्यावरण संरक्षण तो उसे अपने काम में बस बाधा नजर आता है। आगे हिमालय की परियोजनाओं के साथ यही होने वाला है। स्थानीय लोग अब अगर पर्यावरण विनाश की शिकायत भी करेंगें तो भी ऐसी शिकायतों को राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न बताकर शिकायतकर्ताओं को ही खामोश कर दिया जाएगा।


सरकार विकास करने चाहती है, पर पर्यावरण के विनाश की कीमत उसे क्यों नहीं नजर आती? हिमालय का विनाश, पानी का संकट, सूखी नदियां, मरती खेती, प्रदूषण से मरते लोग, सिकुड़ती जैव-विविविधता और सूखा – सब विकराल स्वरुप धारण कर चुके हैं। सरकार जिसे विकास मान कर चल रही है, उसी विकास के कारण लाखों लोग हरेक वर्ष मर रहे हैं और लाखों विस्थापित हो रहे हैं। पर, पूंजीपतियों की सरकार को केवल बड़ी परियोजनाएं नजर आती हैं, फिर लोग मारें या जैव विविधता खत्म होती रहे, क्या फर्क पड़ता है। प्रधानमंत्री जी जब हाथ हवा में लहराकर पर्यावरण संरक्षण पर प्रवचन दे रहे होते हैं, उसी बीच में हिमालय के कुछ क्षेत्र का विनाश हो जाता है, कुछ जंगल कट जाते हैं, कुछ लोग पर्यावरण के विनाश और प्रदूषण से मर जाते हैं, कुछ जनजातियां अपने आवास से बेदखल कर दी जाती हैं, कुछ प्रदूषण बढ़ जाता है और नदियां पहले से भी अधिक प्रदूषित हो जाती हैं – पर इन सबकी बीच पूंजीपति पहले से अधिक अमीर हो जाते हैं। यही दुनियाभर के कट्टर दक्षिणपंथी शासकों का तथाकथित विकास है।

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