जलवायु परिवर्तन पर तथ्यात्मक रिपोर्टिंग का होता है असर, लेकिन कुछ दिनों में ही खत्म हो जाती है गंभीरता

हमारे देश में मीडिया झूठ उत्पादन की फैक्ट्री है, यहां किसी गंभीर समाचार या विश्लेषण की कोई जगह नहीं है। दूसरी तरफ बाढ़ और सूखे की मार झेलती जनता के लिए भी धार्मिक ध्रुवीकरण से बड़ा मुद्दा कोई नहीं है। जाहिर है, जनता भी गंभीर समाचार की अपेक्षा नहीं करती।

फोटोः पीटीआई
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महेन्द्र पांडे

जलवायु परिवर्तन की तथ्यात्मक और वैज्ञानिक रिपोर्टिंग पाठकों पर असर डालती है और वे इसके बारे में और इसे रोकने के सरकारी प्रयासों के बारे में गंभीरता से सोचते हैं। पर, अफसोस यह है कि यह गंभीरता कुछ दिनों में ही खत्म हो जाती है। यह निष्कर्ष प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र का है। इस अध्ययन को ऑहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर थॉमस वुड की अगुवाई में किया गया है।

इस शोधपत्र में कहा गया है कि मीडिया की नीति केवल नए समाचार दिखाने की है, इसलिए जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के समाचार या विश्लेषण लम्बे अंतराल के बाद आते हैं। यदि, इससे सम्बंधित तथ्यात्मक समाचार और विश्लेषण बार-बार भी दिखाए जाएं या प्रकाशित किये जाएं, तब जलवायु परिवर्तन से खतरे पर लोग अधिक भरोसा करेंगें और इसका कारण मानव की गतिविधियां हैं, इसपर अधिक भरोसा करेंगे।

यह अध्ययन अमेरिका में किया गया है, पर इसके निष्कर्षों को भारत छोड़कर शेष सभी देशों से जोड़ा जा सकता है। हमारे देश में मीडिया झूठ उत्पादन की फैक्ट्री है, यहां किसी गंभीर समाचार या विश्लेषण की कोई जगह नहीं है। दूसरी तरफ बाढ़ और सूखे की मार झेलती जनता के लिए भी धार्मिक ध्रुवीकरण से बड़ा मुद्दा कोई नहीं है। जाहिर है, जनता भी गंभीर समाचार की अपेक्षा नहीं करती।

इस दल ने अमेरिका के 2898 व्यक्तियों का चयन कर उनका चार चरणों में परीक्षण किया था। पहले चरण में उन्हें जलवायु परिवर्तन पर एक तथ्यात्मक समाचार पढ़ने को दिया गया। इसके कुछ दिनों बाद दूसरे और तीसरे चरण में उन्हें या तो जलवायु परिवर्तन से संबंधित भ्रामक समाचार पढ़ने को दिए गए, या फिर कोई दूसरे समाचार दिए गए। इसके कुछ दिनों बाद चौथे चरण में उनकी राय जानी गई। हरेक चरण के बाद भी उनसे पूछा गया था कि वे जलवायु परिवर्तन के बारे में क्या सोचते हैं, क्या यह मानव की गतिविधियों की देन है और इससे सम्बंधित सरकार की नीतियों के प्रति कितने आश्वस्त हैं। यह पूरा परीक्षण वर्ष 2020 में किया गया था। इन प्रतिभागियों में महिलाएं, पुरुष, अश्वेत, श्वेत, युवा, बुजुर्ग के साथ ही जलवायु परिवर्तन को कपोल कल्पना मानने वाले रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक और जलवायु परिवर्तन को हकीकत मानने वाले डेमोक्रेट्स समर्थक भी थे।


पहले चरण के दौरान जलवायु परिवर्तन पर तथ्यात्मक और वैज्ञानिक समाचार/विश्लेषण पढ़ने के बाद हरेक आयु वर्ग के और हरेक राजनैतिक विचारधारा के प्रतिभागियों ने बताया कि जलवायु परिवर्तन वास्तविक समस्या है, यह मानव निर्मित समस्या है और सरकार को इसे नियंत्रित करने के लिए पहले से अधिक कठोर कदम उठाने चाहिए। प्रोफ़ेसर थॉमस वुड के अनुसार उनके लिए यह आश्चर्यजनक था कि जलवायु परिवर्तन को कपोल कल्पना समझने वाले रिपब्लिकन पार्टी के कट्टर समर्थक भी तथ्यात्मक और वैज्ञानिक समाचार पढ़ने के बाद जलवायु परिवर्तन को मानव-निर्मित आपदा समझने लगे। पर, दुखद यह है कि तीसरे चरण के बाद अधिकतर लोगों की विचारधारा बदलने लगी, और जलवायु परिवर्तन फिर से एक भ्रामक और अर्थव्यवस्था को पीछे धकेलने वाला विषय रह गया।

बोस्टन यूनिवर्सिटी की पत्रिका "द ब्रिंक" में इसी विषय पर एक लेख, "हाउ टू कन्विंस अ क्लाइमेट चेंज स्केप्टिक डीनैयर्स बीलिटिल साइंस एंड इग्नोर पब्लिक ओपिनियनठ" प्रकाशित किया गया था। इसमें बोस्टन यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ कम्युनिकेशन की को-डायरेक्टर मिना से-वोगेल, कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड साइंस में अर्थ और एनवायरनमेंट की प्रोफेसर सूचि गोपाल और रोहन कुन्दर्गी के एक अध्ययन का हवाला दिया गया है। इस दल के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि जलवायु परिवर्तन की प्रभावी रिपोर्टिंग में किसी घटना की दूरी और रिपोर्टिंग की वैज्ञानिक भाषा बहुत महत्वपूर्ण होती है।

इस दल ने अनेक देशों के विजुअल मीडिया में जलवायु परिवर्तन की खबरों के साथ दिखाए गए विडियो का अध्ययन किया और देखा की जलवायु परिवर्तन के स्थानीय प्रभावों की रिपोर्टिंग के समय भी विडियो सुदूर क्षेत्रों के प्रस्तुत किये जाते हैं| उदाहरण के तौर पर केरल की बाढ़ की रिपोर्टिंग या महाराष्ट्र के सूखा की रिपोर्टिंग में जलवायु परिवर्तन की चर्चा शुरू होते ही अलास्का, ग्रीनलैंड या फिर दक्षिणी ध्रुव की विडियो चलने लगती है। सूचि गोपाल के अनुसार ऐसे विडियो देखने वालों पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ते। लोग अपने शहर, राज्य या देश की खबर से प्रभावित होते हैं। यदि भारत की खबर है तो कश्मीर के लोग भी कन्याकुमारी की खबर से कुछ हद तक प्रभावित होते हैं पर देश की सीमा से परे की जलवायु परिवर्तन की खबरें लोगों पर कोई असर नहीं डालतीं।

इसी तरह, सामान्य धारणा के विपरीत बहुत सरल शब्दों में जलवायु परिवर्तन जैसे विषय की रिपोर्टिंग दर्शकों को प्रभावित नहीं करती। जब रिपोर्टर जलवायु परिवर्तन के मामले में भारी-भरकम वैज्ञानिक शब्दों का प्रयोग करते हैं तब लोगों को यह समस्या अधिक गंभीर लगती है।

दूसरी तरफ अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ केन्सास के नए अध्ययन के अनुसार किसी देश की मीडिया द्वारा जलवायु परिवर्तन की रिपोर्टिंग कुछ घटकों पर निर्भर करती है और किसी देश में कैसी रिपोर्टिंग की जाएगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है। पर, कहीं भी मीडिया जलवायु परिवर्तन को आज और अभी की समस्या के तौर पर प्रस्तुत नहीं करता। अमीर देशों के मीडिया में जलवायु परिवर्तन को एक राजनैतिक समस्या के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है, जबकि गरीब देशों का मीडिया इसे वैश्विक, विशेष तौर पर अमीर देशों की समस्या बताता है।


केन्सास यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता के असिस्टेंट प्रोफेसर, होन्ग वू, इस अध्ययन के मुख्य लेखक हैं। इनके अनुसार, “मीडिया यह बताता है कि आप किस दिशा में सोचें। किसी विषय के प्रस्तुतीकरण के ढंग से लोग उसी तरह सोचने लगते हैं और इनसे राष्ट्रीय नीतियां भी प्रभावित होती हैं”। होन्ग वू के दल ने इस अध्ययन के लिए कुल 45 देशों में वर्ष 2011 से 2015 के बीच समाचार पत्रों में प्रकाशित जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित 37000 से अधिक समाचारों/लेखों का विश्लेषण मशीन लर्निंग विधि द्वारा किया।

जरूरी यह है कि जलवायु परिवर्तन जैसे आबादी से जुड़े मुद्दों पर समाचारपत्रों और अन्य माध्यमों पर विशेषज्ञ वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और मनोवैज्ञानिक लेख और समाचार लगातार लिखें, और उसमें भरपूर वैज्ञानिक शब्दों का प्रयोग करें। वैज्ञानिक शब्दावली धीरे-धीरे ही सही, पर जनता स्वीकार करती है। इसका उदाहरण वायु प्रदूषण के सन्दर्भ में पार्टिकुलेट मैटर या पीएम और जल प्रदूषण के सन्दर्भ में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड, यानि बीओडी का, सामान्य समाचारों में व्यापक उपयोग है।

एक अध्ययन के अनुसार अब जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि की समाचार पत्रों में रिपोर्टिंग 90 प्रतिशत तक सही होने लगी है, जबकि पहले यह अनुपात 35 प्रतिशत ही था। इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो के पर्यावरण विभाग के वैज्ञानिक मैक्स बोयकोफ्फ़ की अगुवाई में किया गया है और इसमें 2005 से 2019 के बीच जलवायु परिवर्तन से जुड़े अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूजीलैंड के समाचारों का विश्लेषण किया गया है। इस अध्ययन के अनुसार इस अवधि में 90 प्रतिशत समाचार वैज्ञानिक तथ्य से भरपूर थे। इससे पहले ऐसे ही अध्ययन में 1988 से 2002 के बीच प्रकाशित समाचारों का विश्लेषण किया गया था और निष्कर्ष था कि महज 35 प्रतिशत समाचार ही वैज्ञानिक तथ्यों पर खरे उतरते थे।

जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि का व्यापक प्रभाव दुनिया भर में पड़ रहा है और इसकी चर्चा भी खूब की जा रही है। ऐसे में जाहिर है, मीडिया भी इस मुद्दे को लगातार उठा रहा है पर इसका कोई असर दिखाई नहीं देता। दुनिया भर में जिन कारणों से जलवायु परिवर्तन हो रहा है उसमें से किसी पर रोक नहीं लगी और ना ही लोगों ने अपना रहन-सहन पर्यावरण अनुकूल बनाया। जाहिर है, मीडिया इस मुद्दे को उठा तो रहा है, पर इसका प्रभाव नहीं पड़ रहा है।


यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मीडिया का मतलब वैश्विक मीडिया से है, जिसमें भारत के मीडिया की चर्चा नहीं है। हमारे देश का मीडिया निष्पक्ष नहीं बल्कि मोदी भक्त और बीजेपी भक्त है, यह हमें समाचार नहीं दिखाता बल्कि सरकार के पक्ष में समाचार गढ़ता है और जनता के सरोकारों को हमारी नजरों से दूर करता है। मोदी सरकार के अनुसार जलवायु परिवर्तन केवल अमेरिका, चीन और कुछ यूरोपीय देशों द्वारा उत्पन्न समस्या है और भारतीय मीडिया भी या तो जलवायु परिवर्तन से अनजान बना रहता है या फिर केवल उतना ही बताता है, जितना प्रधानमंत्री या सरकार का प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो बताता है।

देश की समस्याओं से सरकार उदासीन है और इन समस्याओं को बढाने में पत्रकारों का बहुत बड़ा योगदान है| जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि से जुडी आपदाएं हमारे देश में लगातार आती हैं, सरकारें मुवावजा देकर अपना काम पूरा कर लेती हैं और पत्रकारों में कुछ दिनों की सुगबुगाहट होती है और फिर दूसरी आपदा पर खबरें आनी शुरू हो जाती हैं। शायद ही कोई पत्रकार जलवायु परिवर्तन और आपदाओं से निपटने की सरकारी नीति पर सवाल करता है, या फिर किसी प्राकृतिक आपदा की फाइनल सरकारी रिपोर्ट की मांग करता है। हमारे देश की सरकार और मेनस्ट्रीम मीडिया प्राकृतिक आपदा से भी भयानक सामाजिक आपदा गढ़ता है और फिर उसी की अपने हिसाब से रिपोर्टिंग करता है।

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