राजस्थान से लेकर ओडिशा-महाराष्ट्र तक, कई राज्यों में सुलग रहीं किसानों की बगावत की चिंगारियां

फसल की हताशा भरी बिक्री, खाद की कमी, खनन और उद्योग के लिए खेती की जमीन का अधिग्रहण। आजिज किसान सड़क जाम कर रहे हैं, रेलवे ट्रैक पर धरना दे रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर इसे तुरंत नहीं सुलझाया गया, तो यह खतरनाक रूप ले सकता है।

फोटो सौजन्य - डाउन टू अर्थ
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रश्मि सहगल

राजस्थान की टिब्बी तहसील में 10 दिसंबर को प्रदर्शन कर रहे किसानों और पुलिस में झड़प हो गई। हनुमानगढ़ जिले में इथेनॉल प्लांट बनने के विरोध में बुलाई गई किसान महापंचायत में आस-पास के गांवों से हजारों किसान जुटे थे। महापंचायत के बाद किसान पैदल ही ट्रैक्टरों के काफिले के साथ फैक्ट्री पहुंच गए। वहां दीवार गिरा दी गई, जिसके बाद पुलिस ने उन्हें रोकने के लिए आंसू गैस, लाठियों और प्लास्टिक की गोलियों का इस्तेमाल किया। लेकिन भारी भीड़ के आगे उसे पीछे हटना पड़ा। इसके बाद कई गाड़ियों में आग लगा दी गई। 

झड़प से घबराकर प्रशासन ने चंडीगढ़ की ड्यून इथेनॉल प्राइवेट लिमिटेड को कहा कि ऐसे हालात में काम रोक देना चाहिए। इस प्रस्तावित प्लांट को एशिया का सबसे बड़े इथेनॉल प्रोजेक्ट बताया जा रहा है। जबकि ड्यून इथेनॉल का कहना है कि प्लांट से न तो भूजल खराब होगा, न हवा।

पूर्व विधायक और ऑल इंडिया किसान सभा के संयुक्त सचिव बलवान पूनिया कहते हैं- ‘वैज्ञानिक आंकड़ों से पता चलता है कि इथेनॉल फैक्ट्रियों से खतरनाक वायु प्रदूषक निकलते हैं और इनमें पानी भी काफी ज्यादा इस्तेमाल होता है। एक किलो इथेनॉल बनाने के लिए 2,800 लीटर पानी चाहिए! हमने गंगानगर जिले में लगे इथेनॉल प्लांट के प्रभाव का अध्ययन किया और पाया कि इसका जहरीला गंदा पानी भी भूजल को खराब करता है।’ 

किसानों के डेढ़ साल के शांतिपूर्ण विरोध का न सरकार पर असर हुआ और न कंपनी पर, जिसके बाद किसानों का धैर्य चुक गया। 

राजस्थान से लेकर ओडिशा तक किसानों के विरोध प्रदर्शनों पर मोटे तौर पर किसी का ध्यान नहीं गया। मेनस्ट्रीम मीडिया ने जिन विषयों को जानबूझकर नजरअंदाज किया है, स्थानीय और क्षेत्रीय मीडिया उन्हें रिपोर्ट कर रहा है। हैरानी की बात है कि मुद्दे वही पुराने हैं: हताशा भरी बिक्री, खाद की कमी, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी उपज न बेच पाना, घटता भूजल, खनन और उद्योग के लिए खेती की जमीन का अधिग्रहण। अनदेखी से आजिज किसान अब सड़क जाम कर रहे हैं, रेलवे ट्रैक पर धरना दे रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि उनका आंदोलन ऐसा है कि अगर इसे तुरंत नहीं सुलझाया गया, तो यह रातों-रात खतरनाक रूप ले सकता है।

8 दिसंबर को पंजाब के किसानों ने कई शहरों में इस जनविरोधी, उपभोक्ता विरोधी विद्धुत संशोधन विधेयक 2025 के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। उनका कहना है कि इससे कीमतों में भारी बढ़ोतरी होगी। किसानों ने बीज बिल 2025 के मसौदे की प्रतियां भी जलाईं, जिसे अगर लागू किया गया तो भारत की बीज संप्रभुता खत्म हो जाएगी और राज्यों के संघीय अधिकार कम हो जाएंगे। इन दोनों बिलों को तुरंत वापस लेने की मांग के अलावा किसानों ने खेती की बढ़ती लागत को लेकर भी अपनी पुरानी चिंताएं जताईं जिससे कपास, दालें, सोयाबीन और सरसों की बिक्री में कमी आ रही है।


मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के किसान भी दो-दो हाथ के रास्ते पर हैं। मध्य प्रदेश में, जहां हाल ही में नौ किसानों ने आत्महत्या कर ली, हजारों लोगों ने 1 दिसंबर 2025 को बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया। राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के बैनर तले बड़वानी, धार, खरगोन और खंडवा जिलों के किसानों ने खलघाट तक मार्च किया और एनएच- 52 को आठ घंटे तक बंद रखा। लोन माफी, बेहतर दाम और फसलों के लिए एमएसपी जैसी अपनी बुनियादी मांगों को केन्द्र तक पहुंचाने के लिए उन्हें ऐसा करना पड़ा। 

खाद की कमी एक और बड़ा मुद्दा है। इस साल अगस्त में हमने उत्तर प्रदेश में किसानों को यूरिया के लिए चिलचिलाती धूप में घंटों लाइन में खड़े देखा। मध्य प्रदेश में भी अगस्त से लेकर अक्तूबर तक ऐसे ही नजारे रहे। मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में 50 साल के किसान जमुना कुशवाहा की 8 दिसंबर को मौत हो गई। वह बदोराघाट वितरण केन्द्र पर लगातार तीन दिन से खाद की लाइन में खड़े थे। ठीक एक हफ्ते पहले गुना के एक खाद सेंटर पर 48 घंटे इंतजार करने के बाद भ्रुइया बाई की मौत हो गई। हमेशा की तरह नीतीगत नाकामी का नुकसान उन लोगों को उठाना पड़ा जो अपना हक पाने का इंतजार कर रहे थे। 

8 दिसंबर को किसानों ने मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में व्यवस्था की नाकामी को दिखाने और यूरिया बांटने में प्रशासन के कुप्रबंधन पर सवाल उठाने के लिए नाकाबंदी की। किसान नेता रामकृपाल शर्मा कहते हैं, ‘हमारा मानना ​​है कि यह कमी जानबूझकर की गई है और कोऑपरेटिव बैंक मैनेजर और कमेटी के कर्मचारियों के बीच झगड़े की वजह से हुई है।’

जब किसानों की आत्महत्या की बात आती है, तो महाराष्ट्र इस दुखद मामले में सबसे ऊपर रहता है। एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि केवल 2025 में 781 किसानों ने खुदकुशी की। किसान मजदूर परिषद के नेता शिवाजी रुस्तम गायकवाड़ कहते हैं, ‘2014 के बाद से इनपुट लागत दोगुनी हो गई है, जबकि पैदावार की कीमतें गिरती जा रही हैं। ऐसे में किसानों की खुदकुशी लाजिमी है।’

गायकवाड़ का नासिक में अपना खेत इसका एक उदाहरण है। उनके पास 500 मौसमी (मीठा नींबू) के पेड़ हैं। फल तोड़ने के लिए तैयार हैं। लेकिन मजदूरी की लागत इतनी बढ़ गई है कि उन जैसे छोटे किसान मजदूर नहीं रख सकते। फल पेड़ों पर ही हैं। वह कहते हैं, ‘बिचौलिए मुझे 15 रुपये प्रति किलो देते हैं जिसे वे शहरों में 100 रुपये से ज्यादा में बेचेंगे।’ सोने, चांदी और हर चीज की कीमत बढ़ रही है, लेकिन किसानों को अब भी बहुत कम पैसे मिल रहे हैं। गायकवाड़ ने कहा, ‘मेरे पास अपनी जमीन बेचने के अलावा कोई चारा नहीं।’

वह कहते हैं, ‘सोयाबीन के बीज की कीमत 10,000 रुपये प्रति क्विंटल है, लेकिन हमें इसे 3,000 रुपये प्रति क्विंटल में बेचने के लिए मजबूर किया जा रहा है। दालों, मक्का, कपास और सरसों के साथ भी यही है। देखिए, बाजार में सरसों की खुदरा कीमतें कितनी ज्यादा हैं। क्या हमें इससे फायदा हुआ? नहीं। हमारी कमाई घटती जा रही है।’ 


गुजरात में बेमौसम बारिश ने 16,000 गांवों में फसल बर्बाद कर दिया, जिससे 13 लाख किसान प्रभावित हुए हैं। वे अब फसल के नुकसान के लिए मुआवजे, सौ फीसद कर्ज माफी और पूरे फसल बीमा की मांग के साथ धरने पर बैठे हैं। भावनगर के लिमडा गांव के किसान शक्ति सिंह गोहिल सवाल करते हैं, ‘अगर उद्योगपतियों का कर्ज माफ किया जा सकता है, तो किसानों का क्यों नहीं?’

इस बीच, ओडिशा में खनन गतिविधियों का शिकंजा कस रहा है। नियमगिरी पहाड़ियों के आस-पास के किसान और आदिवासी एक बार फिर तब परेशान हैं, जब वेदांता के चीफ अनिल अग्रवाल ने अक्तूबर 2025 में मुख्यमंत्री के साथ मीटिंग के बाद ऐलान किया कि उन्हें उम्मीद है कि इलाके में बॉक्साइट माइनिंग को मंजूरी देने के लिए दूसरा जनमत होगा। यह 2013 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुए जनमत के बावजूद हुआ है, जिसमें डोंगरिया कोंध आदिवासी जनजाति ने एकमत से इस प्रोजेक्ट के खिलाफ वोट दिया था।

दांव बहुत बड़े हैं। नियमगिरी पहाड़ियों में लगभग 7.3 करोड़ टन बॉक्साइट होने का अनुमान है । डोंगरिया कोंध के लिए अग्रवाल का नया जोक एक तय लोकतांत्रिक फैसले को पलटने की कोशिशों का संकेत है। वे अपनी पवित्र पहाड़ियों को बचाने के लिए एक लंबी लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं।

समाजवादी जन परिषद के महासचिव अफलातून के मुताबिक, वन सलाहकार समिति ने 2 दिसंबर 2025 को वेदांता की सिजीमाली बॉक्साइट माइंस को स्टेज-1 क्लीयरेंस पहले ही दे दिया था, जिससे 708.24 हेक्टेयर वन भूमि के डायवर्जन की इजाजत मिल गई थी। अफलातून का कहना है कि यह बड़े पैमाने पर भू-अधिग्रहण शेड्यूल-वी क्षेत्र में ग्राम सभाओं की पहले से मंजूरी के बिना हो रहा है। जब किसानों ने विरोध किया, तो उन्हें परेशान किया गया और जेल में डाल दिया गया।

अफलातून का मानना ​​है कि जैसे-जैसे अफ्रीकी देश वेदांता के माइनिंग ऑपरेशन पर सख्ती कर रहे हैं, सिजीमाली प्रोजेक्ट को चालू करना अग्रवाल की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गई है। रायगढ़ जिले के बांतेजी गांव के कार्तिक नाइक चेतावनी देते हैं कि एक बार ये खदानें चालू हो गईं, तो वेदांता के दावे के मुताबिक 18 नहीं, बल्कि 50 गांवों पर बुरा असर पड़ेगा। नाइक कहते हैं, ‘इस पैमाने पर खनन के लिए रोजाना 725,000 लीटर ताजे पानी की जरूरत होगी जिससे पानी की कमी होगी, पैदावार कम हो जाएगी, और हवा का प्रदूषण और भी बिगड़ जाएगा।’

सभी राज्यों और सेक्टरों में, किसानों से कहा जा रहा है कि वे मौसम में उतार-चढ़ाव, मार्केट में हेरफेर और ज्यादा पैसे ऐंठने वाली नीतियों के झटके झेलें, जबकि सरकार ने अपना मुंह फेर लिया है। जाहिर है, सरकार के लिए चेत जाने का समय आ गया है- अगर वह किसानों को नजरअंदाज करती है, तो उसे ही नुकसान होगा।

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