पराली जलाने के विकल्प महंगे इसलिए नहीं अपना रहे किसान, मशीनों पर सरकार की सब्सिडी योजना भी एक धोखा!

सरकार सब्सिडी के नाम पर महंगी मशीन उपलब्ध कराती है। माइक्रो लेवल पर किसानों के साथ मिलकर  उनकी व्यावहारिक दिक्कतों को समझते हुए इसके निराकरण के स्थानीय उपाय तलाशना जरूरी है।

फोटो: IANS
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पंकज चतुर्वेदी

पिछले साल कई करोड़ के विज्ञापन छपे और दिखाए गए जिसमें किसी ऐसे घोल की चर्चा थी जिसे डालते ही पराली गायब हो जाती है और उसे जलाना नहीं पड़ता। लेकिन जैसे ही मौसम का मिजाज ठंडा हुआ, दिल्ली-एनसीआर के 50,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को कोहरे ने ढंक लिया था। इस बार भी सितंबर (आश्विन मास) बीता और अक्तूबर (कार्तिक मास) आया कि हरियाणा-पंजाब से  पराली जलाने के समाचार आने लगे। हालांकि इस बार हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश तक हर सरकार आंकड़ों में यह जताने का प्रयास कर रही है कि पिछले साल की तुलना में इस बार पराली कम जली। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि इस बार दिल्ली नवंबर के पहले सप्ताह में ही ग्रेप 4 की ग्रिप में थी। इस बार एक तो मौसम की अनियमितता और ऊपर से बीते चुनाव में पराली जलाने वाले किसानों पर आपराधिक मुकदमे वापस लेना राजनीतिक वादा बन जाना भी उल्लेखनीय रहा। जब रेवाड़ी जिले के धारूहेडा से लेकर गाजियाबाद के मुरादनगर तक का वायु गुणवत्ता सूचकांक साढ़े चार सौ से अधिक था, तो मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और फिर सारा ठीकरा पराली पर थोप दिया गया। हालांकि इस बार अदालत इससे असहमत थी कि करोड़ों लोगों की सांस रोकने वाले प्रदूषण का कारण महज पराली जलाना है।

उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने वर्ष 2018 से 2020-21 के दौरान पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली को पराली समस्या से निबटने के लिए कुल 1726.67 करेाड़ रुपये जारी किए थे जिसका सर्वाधिक हिस्सा पंजाब को 793.18 करोड़ दिया गया। विडंबना है कि इसी राज्य में सन 2021 में पराली जलाने की 71,304 घटनाएं दर्ज की गईं। हालांकि यह पिछले साल के मुकाबले कम थीं लेकिन हवा में जहर भरने के लिए पर्याप्त थीं। पंजाब में सन 2020 के दौरान पराली जलाने की 7,6590 घटनाएं सामने आईं जबकि बीते साल 2019 में ऐसी 5,2991 घटनाएं हुई थीं। हरियाणा का आंकड़ा भी कुछ ऐसा ही है। जाहिर है कि आर्थिक मदद, रासायनिक घोल, मशीनों से पराली के निबटान जैसे प्रयोग जितने सरल और लुभावने लग रहे हैं, किसानों को वे आकर्षित नहीं कर रहे या उनके लिए लाभकारी नहीं हैं।


इस बार तो बारिश के दो लंबे दौर– सितंबर के अंत और अक्तूबर में आए। इससे पंजाब और हरियाणा के कुछ हिस्सों में धान की कटाई में एक से दो सप्ताह की देरी हुई है। यह इशारा कर रहा है कि अगली फसल के लिए अपने खेत को तैयार करने के लिए किसान समय के विपरीत तेजी से भाग रहा है। वह मशीन से अवशेष के निबटान के तरीके में लगने वाले समय के लिए राजी नहीं और वह अवशेष को आग लगाने को ही सबसे  सरल तरीका मान रहा है। कंसोर्टियम फॉर रिसर्च ऑन एग्रोइकोसिस्टम मॉनिटरिंग एंड मॉडलिंग फ्रॉम स्पेस के आंकड़ों के मुताबिक, अवशेष जलाने की नौ घटनाएं 8 अक्तूबर को, तीन 9 अक्तूबर को और चार 10 अक्तूबर को हुईं। पंजाब और हरियाणा में बादल छंटने के कारण 11 अक्तूबर को खेत में आग लगने की संख्या बढ़कर 45 और 12 अक्तूबर को 104 हो गईं। पराली जलाने की खबरें उत्तर प्रदेश से भी आने लगी हैं।

किसानों का पक्ष है कि पराली को मशीन से निबटाने पर प्रति एकड़ कम-से-कम 5,000 रुपये का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। हरियाणा-पंजाब में कानून है कि धान की बुवाई 10 जून से पहले नहीं की जा सकती है। इसके पीछे धारणा है कि भूजल का अपव्यय रोकने के लिए  मानसून आने से पहले धान न बोया जाए क्योंकि धान की बुवाई के लिए खेत में पानी भरना होता है। चूंकि इसे तैयार होने में लगे 140 दिन, फिर उसे काटने के बाद गेहूं की फसल लगाने के लिए किसान के पास इतना समय होता ही नहीं है कि वह फसल अवशेष का निबटान सरकार के कानून के मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान की फसल का रकबा कम नहीं होता या फिर खेतों में बरसात का पानी सहेजने के कुंड नहीं बनते और उस जल से धान की बुवाई 15 मई से करने की अनुमति नहीं मिलती, पराली के संकट से निजात नहीं मिलेगी। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी, उत्कल यूनिवर्सिटी, नेशनल एटमॉसफियर रिसर्च लैब और सफर के वैज्ञानिकों के संयुक्त समूह द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि यदि खरीफ की बुवाई एक महीने पहले कर ली जाए, तो राजधानी को पराली के धुएं से बचाया जा सकता है। अध्ययन कहता है कि यदि एक महीने पहले किसान पराली जलाते भी हैं, तो हवाएं तेज चलने के कारण हवा-घुटन के हालात नहीं होते और हवा के वेग में यह धुआं बह जाता है। यदि पराली का जलना अक्तूबर-नवंबर के स्थान पर सितंबर में हो, तो स्मॉग बनेगा ही नहीं।


किसानों का एक बड़ा वर्ग पराली निबटान की मशीनों पर सरकार की सब्सिडी योजना को धोखा मानता है। उनका कहना है कि पराली को नष्ट करने की मशीन बाजार में 75 हजार से एक लाख रुपये में उपलब्ध है। यदि सरकार से सब्सिडी लो, तो वह मशीन  डेढ़ से दो लाख रुपये की मिलती है। जाहिर है, सब्सिडी उनके लिए बेमानी है। उसके बाद भी मजदूरों की जरूरत होती ही है। पंजाब और हरियाणा- दोनों ही सरकारों ने पिछले कुछ सालों में पराली को जलाने से रोकने के लिए सीएचसी, यानी कस्टम हाइरिंग केन्द्र भी खोले हैं। आसान भाषा में सीएचसी मशीन बैंक है जो किसानों को उचित दामों पर मशीनें किराये पर देती है। किसान यहां से मशीन इसलिए नहीं लेता क्योंकि उसका खर्चा इन मशीनों को किराये पर प्रति एकड़ 5,800 से 6,000 रुपये तक बढ़ जाता है। जब सरकार पराली जलाने पर 2,500 रुपये का जुर्माना लगाती है, तो फिर किसान 6,000 रुपये क्यों खर्च करेगा? यही नहीं, इन मशीनों को चलाने के लिए कम-से-कम 70-75 हार्सपावर के ट्रैक्टर की जरूरत होती है जिसकी कीमत लगभग 10 लाख रुपये है। उस पर भी डीजल का खर्च अलग से करना पड़ता है। जाहिर है, किसान को पराली जला कर जुर्माना देना ज्यादा सस्ता और सरल लगता है। उधर, कुछ किसानों का कहना है कि सरकार ने पिछले साल पराली न जलाने पर मुआवजा देने का वादा किया था लेकिन हम अब तक पैसों का इंतजार कर रहे हैं।

दुर्भाग्य है कि पराली जलाना रोकने की अभी तक जो भी योजनाएं बनीं, वे मशीनी तो हैं लेकिन मानवीय नहीं। वे कागजों-विज्ञापनों पर तो लुभावनी हैं लेकिन खेत में व्यावहारिक नहीं। जरूरत है कि माईक्रो लेवल पर किसानों के साथ मिल कर उनकी व्यावहारिक दिक्कतों को समझते हुए इसके निराकरण के स्थानीय उपाय तलाशें जिसमें दस दिन कम समय में तैयार होने वाली धान की नस्ल को प्रोत्साहित करना, धान के रकवे को कम करना, केवल डार्क जोन से बाहर के इलाकों में धान बुवाई की अनुमति आदि शामिल है। मशीनें कभी भी पर्यावरण का विकल्प नहीं होतीं, इसके लिए स्वनियंत्रण ही एकमात्र निदान होता है।

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