उत्तर प्रदेश की एकरंगी राजनीति में किसानों के आंदोलन ने जगाई उम्मीद, सांप्रदायिकता की काट बनेंगे मौलिक मुद्दे

किसान आंदोलन ने एकरंगी होती यूपी की राजनीति में ऐसी उम्मीद जगाई है जिसका सिरा पकड़कर विपक्ष इसे बड़ी लड़ाई में तब्दील कर सकता है। उसे बस किसानी के साथ-साथकिा रोजी- रोटी-रोजगार, सस्ती-सुलभ चिकित्सा-शिक्षा के मूलभूत अधिकार को जोड़कर एक बड़ी लड़ाई में बदलना होगा।

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नागेन्द्र

दिल्ली की सीमाओं पर नौ माह पहले जो किसान जमावड़ा शुरू हुआ था, मुजफ्फरनगर किसान महापंचायत के साथ वह नई रफ्तार ले चुका है। लंबे अंतराल के बाद उत्तर प्रदेश में यह एक नई तरह की राजनीति का प्रस्थान बिंदु बनने को है। अब इसकी भावी रूपरेखा चंद माह बाद के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर पड़ने वाले असर और प्रदेश व्यापी विस्तार पर नजर रखने का दौर है। किंतु-परंतु भी हैं! सबसे बड़ा तो पश्चिम के अलावा शेष उत्तर प्रदेश में इसके अब तक के नामालूम से दिखे असर को लेकर है!

पहले अवध-पूर्वांचल की बात करें। बड़ा सवाल है कि संघर्षपूर्ण नौ महीने यूपी बॉर्डर पर बीतने के बावजूद आंदोलन की धमक यहां उस तरह क्यों नहीं दिखी? इतना तो होना ही था कि धमक राज्य के उस इलाके तक तो पहुंच ही जाती जिसका न सिर्फ दिल्ली की राजनीति में हमेशा दबदबा रहा बल्कि अभी तो देश का प्रधानमंत्री और सूबे का मुख्यमंत्री ही उसने चुनकर भेजा है। जरूरत इसलिए भी ज्यादा थी कि जब चुनाव से काफी पहले ही ‘अंततः सांप्रदायिक ध्रुवीकरण’ के हथियार के इस्तेमाल की आशंका जताई जा रही हो, किसानों की इस आवाज को इस खतरे की आसान काट बनाया जा सकता था। पूर्वांचल हमेशा से प्रयोग की धरती रही है। फिर इस बार ऐसा क्या हुआ कि एक कोने से मिली बड़ी ताकत के बावजूद इधर कोई कोलाहल नहीं है! लेकिन क्या वाकई ऐसा ही है! या फिर दिखने और होने के बीच कुछ ऐसा है जो समझ नहीं आ रहा है!

पूर्वांचल-अवध और पश्चिम के किसान की आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक स्थिति में मूलभूत अंतर है। पूर्वांचल-अवध का किसान आर्थिक रूप से कमजोर, सामाजिक रूप से पिछड़ा और भौगोलिक रूप से भी खुद को किसी ऐसे से जुड़ा नहीं पाता जो उसे उत्साहित करे। पड़ोसी के तौर पर पंजाब-हरियाणा-जैसा कृषि सम्पन्न राज्य भी नहीं है। पड़ोसी भी उसे बिहार (और नेपाल)-जैसे मिले जो खुद विपन्न हैं।

इधर का किसान छोटी जोत वाला है। खेती करता है और उपज का ‘वाजिब दाम’ पाकर संतोष कर लेता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान की तरह कल्पना भी नहीं कर सकता कि ट्रॉली में फसल लेकर जाए और उसे अच्छे दाम बेच ले। इसकी तो ट्रॉली भी किराये की होती है। यही कारण है कि वह आज तक न तो अपनी उपज के प्रति उतना गंभीर हो पाया, न लागत-बिक्री के गणित में उलझना जरूरी समझा। न संगठित हुआ और न संगठन की सोची। सो, वह प्रचलित अर्थों में तो जमीन पर दिखाई ही नहीं दिया। इसके उलट, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लगभग हर घर में अपना ट्रैक्टर है जबकि अवध-पूर्वांचल के हर गांव में भी ट्रैक्टर हो, जरूरी नहीं है। दरअसल, पश्चिम के अलावा शेष उत्तर प्रदेश की जमीन पर आंदोलन की वैसी धमक का सवाल और उसका जवाब इसी जमीनी हकीकत में छिपा है।


अनायास तो नहीं है कि कभी चौधरी चरण सिंह और बाद के दिनों में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत-जैसे सर्वमान्य किसान नेताओं के बावजूद इधर वाले उत्तर प्रदेश के किसान की दशा-दिशा बहुत नहीं बदली। बहुत पुराना अतीत छोड़ दें तो यह किसान आंदोलन की वैसी जमीन भी नहीं रही। हां, परिवर्तन की हर लड़ाई में जरूर शामिल दिखा। आज यह छोटी जोत वाला किसान अपनी मूलभूत जरूरतों के साथ मुखर नहीं दिख रहा तो उसके अपने कारण हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं कि वह ‘गाजीपुर- सिंघु’ से गाफिल है और कुछ सोच नहीं रहा है। अब जब मुजफ्फरनगर की महापंचायत ने बड़ा संदेश दे दिया है, तो यह भी कुछ होने की उम्मीद में उत्साहित है और विपक्ष भी चार्ज दिखने लगा है। 27 सितंबर के प्रस्तावित भारत बंद के साथ पूरे उत्तर प्रदेश में मंडलवार सक्रियता और बैठकों की घोषणा के बाद माना जाना चाहिए कि देर नहीं हुई है!

दरअसल बुंदेलखंड और अवध से लेकर पूर्वांचल का किसान इस पूरे दौर में ‘अपने मुद्दों’ के प्रति निष्क्रिय तथा शिथिल दिख तो रहा है, पर ऐसा ही नहीं है। घर-घर भयावह कोविड दंश के कारण चिकित्सा-स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और बाढ़ इस बार यहां मुद्दा बनें, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सांप्रदायिकता की जिस हरित पट्टी पर भाजपा-संघ अपनी फसल न सिर्फ फिर से लहलहाने का कोई जतन नहीं छोड़ रहे, उन्हें शायद याद नहीं कि कमजोर किसान के लिए एमएसपी नहीं, काम चलाऊ लाभकारी मूल्य असल मुद्दा है और असली चिंता सस्ती चिकित्सा, पढ़ाई और रोजगार के साथ आपस का ‘सांप्रदायिक सौहार्द्र’ है जो हर दिन उससे दूर किया गया है। वह पश्चिम के उस किसान से एकदम उलट है जहां ‘न्यूनतम जोत वाला’ भी पूरब के ‘सम्पन्न किसान’ पर भारी है। लेकिन इस हिस्से के उत्तर प्रदेश में उसके लिए कोई लड़ने वाला नहीं है। शायद यही कारण है कि पश्चिम छोड़ शेष उत्तर प्रदेश का किसान कृषि कानूनों के रूप में गले में फंस बन चुकी बड़ी समस्या से अब तक उदासीन, आज भी ‘खाते में जाते पैसे’, ‘खाद्यान्न भरे 5 किलो के मोदी-योगी फोटो वाले झोले’ और अत्यं तमहंगे हो चुके गैस सिलेंडर के बावजूद बड़ी खामोशी से बंटते ‘फ्री गैस कनेक्शन’ के मायालोक में उलझा हुआ है।

बंगाल सब याद कर रहे हैं! ‘बीजेपी के अलावा किसी को भी वोट का अभियान’ भी सबको याद है लेकिन वहां उम्मीद के तौर पर मजबूती से खड़ी जुझारू ममता बनर्जी याद नहीं। यहां विपक्ष की हालत भिन्न है। पर किसान आंदोलन-जैसी ऐतिहासिक पहल ने जो जमीन बनाई है, उसके इस्तेमाल में सड़क पर उतरने की राह में आड़े आ रहा ‘किंतु-परंतु’ और ‘अज्ञात भय का भूत’, घनघोर ‘सांप्रदायिक खेल’ के आसन्न खतरे के खिलाफ ‘किसान एका’ के रूप में सहज हाथ आया यह हथियार कहीं हाथ से न फिसला दे।

दरअसल इस आंदोलन ने एकरंगी होती उत्तर प्रदेश की राजनीति में ऐसी उम्मीद जगाई है जिसका कोई भी सिरा पकड़कर विपक्ष इसे बड़ी लड़ाई में तब्दील कर सकता है। उसे बस किसानी के साथ-साथ रोजी- रोटी-रोजगार, सस्ती-सुलभ चिकित्सा-शिक्षा के मूलभूत अधिकार को जोड़कर एक बड़ी लड़ाई में बदलना होगा। भूलना नहीं चाहिए कि सांप्रदायिकता की काट का हथियार इन्हीं मौलिक मुद्दों से धार पाएगा। और अगर इस बार चूक हुई तो शायद लंबे समय के लिए अवसर हाथ से निकल जाएगा। वक्त अब भी हाथ से निकला नहीं है!

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