महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा और उत्पीड़न का बड़ा कारण है तेजी से फैलता पॉर्न

इंटरनेट पर उपलब्ध पॉर्न वीडियो का सर्वे किया जाए तो इनमें से कई वीडियो यौन अपराध के उत्प्रेरक की भूमिका निभाने की संभावना रखते हैं। कुछ ऐसे हैं जो पहली बार में तो हानिकारक नहीं लगते, लेकिन बार-बार देखने पर यह एक अति भोगवादी लैंगिक सोच को बढ़ावा देते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

हाल के वर्षों में नई तकनीकों की मदद से पोर्नोग्राफी या पॉर्न का तेज प्रसार लगभग सभी देशों में देखा गया है। अतः इसके सामाजिक असर के संदर्भ में समझ बनाना जरूरी है। इस संदर्भ में जापान के दो अध्ययन बहुत चर्चित हुए हैं।

पहला अध्ययन एक ऐसे दौर में किया गया जिसमें जापान में शेष सभी तरह के अपराध कम हो रहे थे, केवल यौन अपराध बढ़ रहे थे। जब सब अपराध कम हो रहे थे तब भला यौन अपराध क्यों बढ़ रहे थे? इस प्रश्न का उत्तर खोजने पर अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि यह वही दौर था जब पाॅर्न वीडियो का तेज प्रसार इस देश में पहली बार हुआ। इस दौर में यौन अपराधों के बढ़ने का यह मुख्य कारण माना गया (जिस दौर में अन्य सभी अपराध घट रहे थे)।

दूसरा अध्ययन उन यौन अपराधों के अपराधियों के सर्वेक्षण पर आधारित था जिनका जुर्म सिद्ध हो चुका था और वे उसकी सजा भुगत रहे थे। इस सर्वेक्षण में इस तरह के सवाल पूछे गए- जब आप पोर्नोग्राफी देखते थे, तो क्या वास्तविक जीवन में कुछ ऐसा ही करने का विचार आता था? इस सर्वेक्षण में लगभग 40 प्रतिशत अपराधियों से सकारात्मक उत्तर प्राप्त हुआ। जो कम उम्र के अपराधी थे, उनसे और भी अधिक सकारात्मक उत्तर प्राप्त हुआ।

इस तरह के अन्य अध्ययन भी हैं जो पॉर्नोग्राफी के तेज प्रसार के बहुत प्रतिकूल सामाजिक परिणामों के बारे में बताते हैं। यदि भारतीय संदर्भ में हम यौन अपराधों की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रिर्पोटिंग को देखें, तो समय-समय पर इसके प्रतिकूल सामाजिक असर के उदाहरण भारतीय संदर्भ में भी मिलते हैं। ऐसे कई अपराधों में पाया गया कि अपराधी प्रायः पाॅर्न देखते थे या अपराध से कुछ समय पहले ही पॉर्नोग्राफी देखी थी। कुछ अपराधियों, विशेषकर कम उम्र के अपराधियों ने यह भी कहा कि उन्हें एहसास था कि जो वह करने जा रहे हैं वह बहुत अनुचित है पर वह अपने को रोक नहीं सके।

दूसरी ओर कुछ व्यक्तियों ने यह कहा है कि वह तो अरसे से पोर्नोग्राफी देखते हैं पर कभी उनकी प्रवृत्ति यौन अपराध करने की नहीं रही। पर इससे तो महज इतना ही पता चलता है कि विभिन्न व्यक्तियों पर असर अलग-अलग तरह का होता है। मान लीजिए कि एक महानगर में दस लाख लोग पाॅर्न देखते हैं और उनमें से मात्र 10 प्रतिशत में पॉर्न देखने से किसी तरह के यौन अपराध की ओर झुकाव होता है तो भी इसका अर्थ यह हुआ कि इस महानगर में एक लाख लोगों का झुकाव यौन अपराध की ओर होता है। यह अपने में एक बहुत चिंताजनक संभावना है।

दूसरी ओर जो लोग कहते हैं कि अधिक पाॅर्न देखने का उन पर कोई प्रतिकूल असर नहीं होता है, उन्हें भी नये सिरे से यह सोचना चाहिए कि बेशक उनकी कोई प्रवृत्ति यौन अपराध के प्रति न हो, पर बार-बार पाॅर्न देखने से उन पर क्या अन्य प्रतिकूल असर नहीं पड़ते हैं? क्या साहित्य और कलाओं के लिए अब उनके पास बहुत कम समय नहीं बचता है? क्या यह सच नहीं है कि अधिक पाॅर्न देखने से महिलाओं के प्रति भोगवादी नजरिया अधिक प्रबल होता है और सहज, मित्रता के संबंध बनाने में कठिनाई आती है? क्या इसका वैवाहिक जीवन पर प्रतिकूल असर पड़ता है?

कुछ समय पहले इस लेखक को ग्रामीण संदर्भ में महिला-हिंसा पर एक कार्यशाला में वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया। वहां उपस्थित अधिकांश महिला कार्यकर्ताओं को तेजी से बदलते ग्रामीण समाज में महिलाओं की समस्याओं की विस्तृत जानकारी थी। उन्होंने बताया कि जब से स्मार्टफोन पर पाॅर्न तेजी से फैला है तब से यौन हिंसा की समस्या और बढ़ गई। उनके अथक प्रयासों से इसमें कमी आई थी, पर पाॅर्न और विशेषकर मोबाईल फोन के पाॅर्न के कारण यह और बढ़ गई।

एक महिला कार्यकर्ता ने बताया कि नवविवाहित महिलाएं उनके पास यह समस्या लेकर आ रही हैं कि शादी के बाद उनके पति ने मोबाईल पर विशेष तरह के यौन संबंध दिखाए और उनसे कहा कि मुझे तुमसे यह चाहिए। ग्रामीण संस्कृति में पली-बढ़ी युवती को यह बहुत अरुचिकर लगा और उसने इनकार किया तो पति ने उसे बुरा-भला कहा या सताया। बात आगे बढ़ी तो तलाक तक की नौबत आ गई।

इसके अतिरिक्त रेप के वीडियो से भी बहुत नुकसान हुआ है। खबरें यहां तक हैं कि कुछ बलात्कार विशेष तौर से ऐसे वीडियोज बनाने के लिए ही किये जा रहे हैं और ऐसे वीडियोज की धड़ल्ले से बिक्री हो रही है।

यदि इंटरनेट पर निशुल्क उपलब्ध वीडियो और ऑडियो का सर्वेक्षण किया जाए तो इनमें से अनेक वीडियो ऐसे हैं जो यौन अपराध के लिए उत्प्रेरक की भूमिका निभाने की संभावना रखते हैं। कुछ अन्य वीडियो ऐसे हैं जो पहली दृष्टि में तो हानिकारक नहीं लगते हैं पर इन्हें बार-बार देखा जाए तो यह एक अति भोगवादी लिंग सोच को और महिलाओं के प्रति वस्तुतीकरण आधारित सोच को बढ़ावा देते हैं। जब इन्हें स्थानीय पात्रों और स्थितियों के साथ दिखाया जाता है तो इनका असर और बढ़ जाता है।

इस बारे में शिकायतें बढ़ने पर कुछ वीडियो हटाए भी गए हैं पर कुल मिलाकर स्थिति अभी चिंताजनक है। इस बारे में अल्पकालीन और दीर्घकालीन दोनों तरह के समाधान जरूरी हैं। अल्पकालीन समाधानों में कुछ विशेष तरह के वीडियोज पर रोक जरूरी है। दीर्घकालीन समाधान में सामाजिक सोच और माहौल में ऐसे बदलाव शामिल हैं जिनसे पाॅर्न का चलन और इसकी स्वीकृति कम हो सके। दोनों स्तरों पर एक साथ कार्य करना जरूरी है।

इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि समाज और संस्कृति को दकियानूसी बनाना है। मानव शरीर के सौन्दर्य को कलात्मक ढंग से निखारने की अपनी जगह है। मर्यादाओं के माहौल में यौन शिक्षा की भी अपनी उपयोगिता है। पर इसके साथ तेजी से फैलती सामाजिक विकृतियों को नियंत्रित करना भी जरूरी है।

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