कहीं 5 अगस्त की चौखट का विस्तार होकर न रह जाए 15 अगस्त, जब से पंथ निरपेक्षता की आधारशिला धसकना शुरू हुई

तंत्र मात्र अब हुक्मरानों की सत्ता लिप्सा और नियंत्रण को वैधानिकता देने का अस्त्र हो चला है। ईडी, सीबीआई सभी एजेंसी विरोध को दबाने का हथियार हैं। केवल राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ही नहीं, हक-न्याय का सवाल उठाते आंदोलन के खिलाफ भी सरेआम इनका उपयोग हो रहा है।

फोटोः सोशल मीडिया
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मीनाक्षी नटराजन

आजादी बिना स्वतंत्रता के असंभव है। आधुनिक काल में उपनिवेशी ताकतों से मुक्ति राष्ट्र-राज्य के निर्माण की आवश्यक शर्त साबित हुई है। इस मान से 15 अगस्त भारत के 138 करोड़ लोगों की अस्मिता का प्रतीक है। लेकिन 2019 के बाद से ही 5 अगस्त की चौखट लांघे बगैर 15 अगस्त को मनाना नामुमकिन हो चला है। 5 अगस्त की परछाई 15 अगस्त को लीलती हुई प्रतीत होने लगी है। 2019 के बहुत पहले इसकी योजना बनाई गई होगी। आखिर सत्तारूढ़ दल की वैचारिक अभिव्यक्ति और कथानक में यह सब तो वे भी नहीं करना चाहेंगे।

लेकिन सब गलत साबित हुए। देखते ही देखते 5 अगस्त के दिन इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत को खामोश कर दिया गया। वह वचन जो कि विलय के समय कश्मीर के बहुसंख्य धर्म का पालन करते शासक को दिया गया था, वह ‘रघुकुल रीति’ पर चलने का दंभ भरते हुक्मरानों ने ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ को तार-तार कर निभाया। इसके ठीक एक साल बाद ‘रघुकुल दीपक’ को कथित तौर पर समर्पित भव्य मंदिर का शिलान्यास हुआ। पंथ निरपेक्षता की आधारशिला धसकने लगी।

वैसे, तारीख मात्र प्रतीक है। अब तो हर दिन ऐसी घटनाएं देखने को मिल ही जाती हैं। अब तो मन में यह सवाल उठने लगा है कि आखिर हम कितने आजाद हैं? हैं भी या नहीं। आजादी को नापा नहीं जा सकता। हालांकि मानव आजादी के वैश्वविक सूचकांक में 2014 के बाद से ही भारत नीचे खिसकता जा रहा है। चाहे सत्तारूढ़ दल द्वारा सम्मानित अभिनेत्री 2014 को ही आजादी का वर्ष क्यों न कहे। वैश्वविक मानदंड कुछ और साबित कर रहे हैं। आजादी तो अब कोसों दूर लगती है।

तंत्र पराधीन होता जा रहा है। तंत्र मात्र अब हुक्मरानों की सनक, सत्ता लिप्सा और नियंत्रण को वैधानिकता प्रदान करने का अस्त्र हो चला है। ईडी, सीबीआई, सीआईडी तमाम एजेंसी प्रतिश्रुति को दबाने का हथियार है। केवल राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ही नहीं, सामाजिक हक और न्याय का सवाल उठाते आंदोलन के खिलाफ भी सरेआम इनका उपयोग हो रहा है। लेखक, उपन्यासकार कलाकार, रंगकर्मियों की अभिव्यक्ति सत्ता के अधीन हो गई है। विश्व स्तर पर सम्मानित लेखकों की पुस्तक चर्चा का आयोजन रद्द हो जाता है। मात्र इसलिए कि सत्तारूढ़ दल की छात्र शाखा को उनके विचार पसंद ही नहीं बल्कि उनकी भावनाएं आहत होती हैं। हलाल, हिजाब, सार्वजनिक स्थान पर नमाज अदायगी की पाबंदी के लिए स्वयंभू सचेतकों का दल तैयार हो गया है जबकि जगराते, कांवड़ और अनेक ऐसे जुलूस सार्वजनिक स्थान से गुजरते हैं।


प्रशासन तंत्र का महत्वपूर्ण स्तंभ है। लेकिन अब प्रशासन की भाषा लज्जित करने लगी है। जब सरकारी आदेश में कांवड़ के दौरान मांसाहार को रोकने के लिए बहुजन समाज के एक तबके को दूर रहने की सलाह दी जाती है। आधिकारिक तौर पर दी जाती सलाह चेतावनी ही होती है। तो क्या इस तरह के आदेश को सामाजिक प्रभुत्व संपन्नता थोपने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए? प्रशासन पर फिर भी टिप्पणी की जा सकती है। मगर न्यायपालिका को तो गलतियों से न्यून ठहरा दिया गया है। तो क्या यह अपने आप में पराधीनता का सूचक नहीं?

तंत्र का हर हिस्सा हुक्मरानों की मर्जी से चलने पर विवश है। मीडिया के बड़े और लोकप्रिय वर्ग को प्रशंसावली गाने से फुर्सत नहीं। तब आजादी का जश्न कैसे मनाया जाए? 15 अगस्त कहीं 5 अगस्त की चौखट का विस्तार होकर न रह जाए? इस 15 अगस्त को ध्वज संहिता को शिथिल करते हुए हर एक घर में झंडा लहराने का आदेश है। असंख्य घरों में कदाचित चीन से आयातित पॉलिएस्टर के झंडे लगेंगे।

हुक्मरानों की नजर हर घर पर होगी। उनके स्वयंभू देशभक्त प्रमाणीकरण केन्द्र और उसके रक्षक दल की निगाह से कोई नहीं बचेगा। हुक्म उदूली की भरपाई कैसे की जाएगी, कल्पना करना कठिन नहीं। सिवनी के आदिवासी भाई, अखलाक आदि अनेक उदाहरण सामने हैं। विशेषकर एक समुदाय विशेष के मोहल्लों को ‘देशभक्त’ होने का खास प्रमाण देना ही होगा। चाहे जो परिस्थिति हो, घर में बढ़ती महंगाई के कारण चूल्हा न जले, काम के लिए दर-दर भटकते रहें। मगर झंडा तो लगाना है। वरना उनके साथ-साथ उनके न्याय और हक की लड़ाई लड़ते साथी भी द्रोही कहकर बंद किए जाएंगे।

ऐसे में 15 अगस्त को वे सब जो आजादी के लिए झंडा फहराना चाहते हैं, उन सबका नमन करते हैं जिन्होंने झंडा फहराते हुए औपनिवेशी हुकूमत की लाठी-गोली को झेला है। वे क्या करें? शायद उन्हें इस संकल्प के साथ झंडा फहराना चाहिए कि वे पांच अगस्त को ऐतिहासिक अपवाद साबित करेंगे। भारत की इंद्रधनुषी विभिन्नता, बहुजन समाज की अस्मिता से आगामी दशकों का क्षितिज लहलहाएगा। इस संकल्प का झंडा लेकर वे गलियों-चौराहों पर एकजुट हो सकते हैं। एक-दूसरे का साथ देने के लिए झंडा फहरा सकते हैं। चाहे अकारण या किसी भी वजह से वे जो नहीं फहराना चाहते, उनकी निजता के सम्मान में फहरा सकते हैं। वही आजादी का असल उत्सव हो सकता है।

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