विश्व स्तर पर बढ़ रहा है बाढ़ का संकट, मौजूदा नियंत्रण तंत्र बड़ा कारण, नीति पर पुनर्विचार की जरूरत

बाढ़ नियंत्रण का मौजूदा तंत्र अनेक समस्याओं से त्रस्त है और इस कारण बाढ़ नियंत्रण के बढ़ते खर्च के बावजूद विनाशलीला भी बढ़ती जा रही है। स्वार्थों से मुक्त होकर ऐसी नीति अपनानी होगी जो पर्यावरण रक्षा के अनुकूल और टिकाऊ हो और दीर्घकालीन रक्षा की ओर ले जा सके।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

हाल के समय में यूरोप और विशेषकर जर्मनी में जिस तरह की भयंकर बाढ़ देखी गई है, उससे वहां के लोग भी दहल गए हैं। जिस तरह इस बाढ़ में मजबूत और पक्के मकान आसानी से ध्वस्त हुए और बह गए, उसने भविष्य को लेकर चिंता बहुत बढ़ा दी है।

जर्मनी से लेकर भारत तक सामान्य तौर पर देखा जा रहा है कि कम समय में अधिक और केंद्रित वर्षा होने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। जितनी वर्षा महीने में होने की उम्मीद थी, वह तीन-चार दिनों में सिमट जाए तो निश्चय ही बाढ़ की संभावना बढ़ जाएगी। यह प्रवृत्ति जलवायु बदलाव के असर के बारे में पूर्व अनुमान से पूरी तरह मेल खाती है। अतः जलवायु परिवर्तन के दौर में तो यह संभावना बढ़ने वाली है, यह मान कर चलना होगा।

जलवायु परिवर्तन के संकट को कम करने का कार्य दीर्घकालीन है। ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन कम करने में बहुत सफलता मिले (जो कि अपने में अभी संदिग्ध है) तो भी बाढ़ पर इस सफलता का असर देर से ही होगा। अतः इस दौर में यह जिम्मेदारी बहुत बढ़ गई है कि बाढ़ के खतरे को, इसके विनाश को कम करने के सभी उपायों पर समुचित ध्यान दें।

वन-विनाश को रोकने, न्यूनतम करने के महत्व को बहुत समय से इस संदर्भ में रेखांकित किया गया है। इसके बावजूद सबसे संवेदनशील नदियों के जल-ग्रहण क्षेत्र जहां हैं, वहां भी पेड़ों का, वनों का अत्यधिक कटान हो रहा है। हिमालय क्षेत्र तो इस दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण है, पर वहां से भी वृक्षों के निर्मम कटान के समाचार मिलते रहते हैं। इसी तरह बुंदेलखंड एक अन्य अति संवेदनशील क्षेत्र है। वहां मात्र एक परियोजना केन-बेतवा परियोजना में 20 लाख से अधिक वृक्षों को काटने की तैयारी है, जबकि इससे आसानी से बचा जा सकता है और इसकी राह विशेषज्ञ समितियां पहले ही बता चुकी हैं।


फिर भी वन-कटान के दुष्परिणामों के बारे में कम से कम कुछ चेतना तो है। पर जिस तरह वनों का स्वरूप बदला जा रहा है, उसके बारे में तो चेतना ही बहुत कम है। हिमालय क्षेत्र में बांज (ओक) जैसे चौड़ी पत्ती के वृक्षों के समूह को देखें तो यह बाढ़ के संकट को रोकने में और जल-संरक्षण को बढ़ाने के दोनों महत्त्वपूर्ण कार्यों में अमूल्य योगदान देते हैं। पहले तो यह चौड़ी पत्ती के घने वृक्ष वर्षा के वेग को अपने ऊपर झेलते हैं, फिर धीरे-धीरे इसे टपकाते हैं। यह अपनी गिरी पत्तियों से ऐसी मिट्टी तैयार करते हैं जो वर्षा के जल को सोखने, संरक्षित करने में बहुत मूल्यवान है।

दूसरी ओर यदि हम चीड़ के शंकुधारी समूहों (पाईन) को देखें तो इनकी नुकीली पत्तियों से वर्षा के जल सोखने की संभावना अपेक्षाकृत बहुत कम है। पहले चीड़ पाईन और बांज ओक के मिश्रित वनों की बाढ़ के प्रवाह को रोकने की क्षमता अधिक थी, पर जब उनसे होने वाली अधिक व्यापारिक आमदनी के कारण चीड़ के समूहों को अधिक प्रोत्साहित किया जाने लगा तो बाढ़ को रोकने की क्षमता कम हो गई। इसी तरह तराई-भावर क्षेत्र में चौड़ी पत्ती के वृक्षों की जगह यूकेलिप्टस और पापलर जैसे व्यापारिक प्रजाति के वृक्षों को अधिक पनपाने से भी बाढ़ रोकने की क्षमता इन क्षेत्रों और हिमालय की निचली पहाड़ियों, शिवालिक पर्वत श्रृंखला जैसे क्षेत्रों में कम हुई। पश्चिम घाट क्षेत्रों में भी ऐसी प्रवृत्तियों और वन-विनाश से बाढ़ का संकट तेजी से बढ़ा।

बाढ़ का संकट कम करने के नाम पर अनेक बड़े और मध्यम बांध बनाए गए, पर हरियाली उजड़ने के कारण इनमें सिल्ट तेजी से भरती गई, इनकी बाढ़ रोकने की क्षमता कम होती गई और इनके प्रबंधन में भी बाढ़ नियंत्रण से कहीं अधिक ध्यान पन-बिजली का उत्पादन बढ़ाने पर दिया गया। इन विभिन्न कारकों का मिला-जुला असर यह हुआ है कि भारी वर्षा के दिनों में ऐसे समाचार बार-बार पढ़ने को मिलते हैं कि अमुक बांध से अधिक पानी छोड़े जाने के कारण विभिन्न स्थानों पर बाढ़ की स्थिति अधिक गंभीर हो गई हे।

इसके अतिरिक्त हिमालय क्षेत्र की हाल की अनेक बेहद उग्र बाढ़ों के बारे में बार-बार कहा गया है कि विभिन्न बांधों और बांध निर्माण कार्यों के कारण उत्पन्न अवरोधों से बाढ़ की स्थिति अधिक उग्र हुई। तिस पर बांध टूटने से जो प्रलयंकारी बाढ़ उत्पन्न होती है, उसका खतरा अलग से मंडराता रहता है। ऐसी अनेक वारदातें भारत में हो भी चुकी हैं, जिनमें मोरवी शहर (गुजरात) और आसपास के क्षेत्र को जो विनाश झेलना पड़ा वह संभवतः सबसे दर्दनाक रहा। बांध टूटने से इससे कहीं अधिक गंभीर हादसों की संभावना का जिक्र सरकारी मान्यता प्राप्त विशेषज्ञ समितियों की रिपोर्ट में पहले ही किया जा चुका है (विशेषकर टिहरी बांध के संदर्भ में)।


बाढ़ नियंत्रण का दूसरा बड़ा उपाय तटबंध (इम्बैंकमैंट) रहा है जिनसे नदियों को एक संकीर्ण क्षेत्र तक सीमित रखने का प्रयास किया जाता है। इस प्रक्रिया में जो लोग इस संकीर्ण क्षेत्र में रहते हैं, वे तो उजड़ ही जाते हैं पर अन्य लोगों को भी स्थाई सुरक्षा नहीं मिल पाती है क्योंकि संकीर्ण क्षेत्र में गाद सीमित होने के साथ नदियों का जल-स्तर भी बढ़ता जाता है। तिस पर नदियों की ओर जगह-जगह से आने वाले वर्षा के जल का प्राकृतिक बहाव जगह-जगह रुक जाने के कारण बहुत स्थानों पर दीर्घ-कालीन जल-भराव हो जाता है, वह अलग समस्या है। तिस पर जब तटबंध टूटते हैं तो इस कारण होने वाली विनाशलीला भयानक होती है और सामान्य बाढ़ से तो कहीं अधिक विध्वंसक होती है।

अतः बाढ़ नियंत्रण का मौजूदा तंत्र अनेक समस्याओं से त्रस्त है और इस कारण अनेक वर्षों से बाढ़ नियंत्रण के बढ़ते खर्च के बावजूद विनाशलीला भी बढ़ती जा रही है। अतः बाढ़ नियंत्रण पर अधिक ध्यान देने के साथ-साथ बाढ़ नियंत्रण के तौर-तरीकों पर पुनर्विचार भी आवश्यक है। मौजूदा तंत्र इसलिए चलता रहा है क्योंकि इसके साथ अनेक बड़े स्वार्थ जुड़े हुए हैं। इन स्वार्थों से मुक्त होकर ऐसी बाढ़ नियंत्रण नीति अपनानी चाहिए जो व्यापक पर्यावरण रक्षा के अनुकूल और टिकाऊ हो और अधिक दीर्घकालीन रक्षा की ओर ले जा सके।

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