किसके लिए शांति लाएगा अफगान शांति समझौता, जिसमें ‘शांति’ का जिक्र तक नहीं

अमेरिका, अफगान सरकार और तालिबान के बीच हुए समझौते का पहला निष्कर्ष है कि इससे तालिबान को वैश्विक वैधानिकता मिल गई। भारतीय दृष्टि से देखना होगा कि अगले 14 महीनों में तालिबान का क्या रुख रहेगा, केवल तालिबान का ही नहीं, पाकिस्तान का भी रवैया क्या रहेगा और भारत और अमेरिका के बीच किस तरह का तालमेल होगा।

फोटोः gettyimages
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प्रमोद जोशी

पिछली 29 फरवरी को दोहा के कतर में अमेरिका, अफगान सरकार और तालिबान के बीच हुए समझौते में इतनी सावधानी बरती गई है कि उसे कहीं भी ‘शांति समझौता’ नहीं लिखा गया है। इसके बावजूद इसे दुनिया भर में शांति समझौता कहा जा रहा है। दूसरी तरफ पर्यवेक्षकों का मानना है कि अफगानिस्तान अब एक नए अनिश्चित दौर में प्रवेश करने जा रहा है। अमेरिका की दिलचस्पी अपने भार को कम करने की जरूर है, पर उसे इस इलाके के भविष्य की चिंता है या नहीं, कहना मुश्किल है।

फिलहाल इस समझौते का एकमात्र उद्देश्य अफगानिस्तान में तैनात 12,000 अमेरिकी सैनिकों की सुरक्षित वापसी तक सीमित नजर आता है। यह सच है कि इस समझौते के लागू होने के बाद अमेरिका की सबसे लंबी लड़ाई का अंत हो जाएगा, पर क्या गारंटी है कि एक नई लड़ाई शुरू नहीं होगी? मध्ययुगीन मनोवृत्तियों को फिर से सिर उठाने का मौका नहीं मिलेगा? इस समझौते ने तालिबान को वैधानिकता प्रदान की है। वे मान रहे हैं कि उनके मकसद को पूरा करने का यह सबसे अच्छा मौका है।

अमेरिका का मकसद?

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2016 के अपने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि वह इस ‘अनिश्चित युद्ध’ को समाप्त करेंगे। अफगानिस्तान के पहले उन्होंने सीरिया से अपनी फौजें हटाईं, जहां इन दिनों फिर से युद्ध की ज्वालाएं भड़क रही हैं। अफगानिस्तान में अब क्या होगा, इसे लेकर कयास हैं। बेशक इसे अनंत काल तक नहीं चलाया जा सकता और तालिबान के साथ बात करने में भी कोई खराबी नहीं है, पर इस इलाके से अंतरराष्ट्रीय सेनाओं की वापसी भी कोई विकल्प नहीं है। तालिबान के साथ जो समझौता हुआ उसके ज्यादातर उपबंध गोपनीय हैं। जो सामने है उसके अनुसार अमेरिकी सेनाएं अगले 14 महीनों में अफगानिस्तान छोड़कर चली जाएंगी और अफगान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत शुरू होगी।

‘अल्लाहू अकबर’ के नारों के बीच हुए दस्तखत के इस मौके पर अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो भी मौजूद थे। दोहा में जब यह समझौता हो रहा था तो अमेरिकी रक्षा मंत्री मार्क एस्पर काबुल में अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी के साथ बातचीत कर रहे थे। समझौते के अनुसार अगले 135 दिनों में सैनिकों की वर्तमान संख्या 13,000 से कम करके 8,600 कर दी जाएगी। अमेरिका के सहयोगी देशों यानी नाटो के सैनिक भी अफगानिस्तान में हैं। अनुमान है कि इनकी संख्या 16,000 है। पहले चरण में उनकी संख्या में भी आनुपातिक कमी करके उनकी संख्या 12,000 कर दी जाएगी। समझौते के अनुरूप तालिबान का व्यवहार रहा, तो 14 महीने में सभी सैनिक हट जाएंगे। नाटो के महासचिव जेम्स स्टोल्टेनबर्ग भी 29 को काबुल में थे। भारत के विदेश सचिव भी काबुल गए थे।


समझौते पर भारतीय दृष्टि

समझौते का पहला निष्कर्ष है कि तालिबान को वैश्विक वैधानिकता मिल गई। तालिबान ने अलकायदा से रिश्तों को खत्म करने और इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई जारी रखने का वायदा किया है। देखना होगा कि अमेरिका की वापसी के बाद क्या अफगान सेनाएं देश को अपने कब्जे में रखने में कामयाब हो भी पाएंगी या नहीं। भारतीय दृष्टि से अब कम से कम तीन बातों पर हमें गौर करना होगाः एक, अगले 14 महीनों में तालिबान का रुख क्या रहेगा; दूसरा, केवल तालिबान का ही नहीं पाकिस्तान का रवैया क्या रहेगा और तीसरा, भारत और अमेरिका के बीच तालमेल किस प्रकार का होगा। इन तीनों बातों से जुड़ा एक सवाल और है। क्या भारत की अफगानिस्तान में सैनिक भूमिका संभव है?

पहली नजर में इस बात का जवाब है कि भारतीय सेनाओं की अफगानिस्तान में तैनाती की कल्पना नहीं करनी चाहिए। भारतीय सेनाएं अंतरराष्ट्रीय शांति अभियानों में जाती हैं, पर तभी जब संयुक्त राष्ट्र कहता है। यह बात सही है, पर श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों में जरूरत पड़ने पर हमारी सेना की तैनाती हो चुकी है। अफगान सेना को हमने हथियार, अटैक हेलिकॉप्टर और दूसरे उपकरण दिए हैं। उनके सैनिक अफसरों को भारत में ट्रेनिंग दी जाती है। भारतीय इंजीनियर वहां सड़कों, बांधों और रेल लाइनों के निर्माण में लगे हैं। उनकी सुरक्षा की प्राथमिक जिम्मेदारी भी भारतीय सुरक्षा बलों की है। काबुल स्थित भारतीय दूतावास और चार वाणिज्य दूतावासों की सुरक्षा के लिए भारतीय कमांडो तैनात हैं। दिल्ली में अफगान दूतावास की सुरक्षा की जिम्मेदारी भारतीय कमांडो देखते हैं।

पाकिस्तानी दिलचस्पी

ज्यादा महत्वपूर्ण है पाकिस्तान की भूमिका। पाकिस्तान के विदेश मंत्री महमूद शाह कुरैशी दोहा में समझौते के वक्त उपस्थित थे। पाकिस्तान के इशारे पर अफगानिस्तान में भारतीय प्रतिष्ठानों पर हमले होते रहे हैं। इस समझौते से सबसे ज्यादा उत्साह पाकिस्तान में है। उन्हें लगता है कि अमेरिका की हार हो गई और तालिबान की जीत हो गई, जो अपना ही चेला है। वे मानते हैं कि यह भारत की हार है। अफगानिस्तान को पाकिस्तान अपनी डीप डिफेंस योजना का हिस्सा मानता है। अस्सी के दशक में अफगान मुजाहिदीन को कश्मीर में हिंसा फैलाने के लिए भेजा गया था। क्या पाकिस्तान फिर से उसी रास्ते पर जाएगा?

अफगानिस्तान पर पाकिस्तानी नजरिया हमेशा भारत के संदर्भ में होता है। इसका रोचक नमूना पिछले हफ्ते देखने को मिला। पाकिस्तानी अखबार ‘नवा-ए-वक्त’ के अनुसार, पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा कि भारत ने अफगानिस्तान शांति समझौते में रुकावट डालने की पूरी कोशिश की लेकिन उसमें वह बुरी तरह नाकाम रहा। कुरैशी के अनुसार अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते के लिए पूरी दुनिया पाकिस्तान के किरदार का लोहा मान रही है। उधर अखबार ‘दुनिया’ ने लिखा, अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते से भारत चारों खाने चित हो गया है।


क्या है तालिबानी दर्शन

इस समझौते के बाद कुछ बुनियादी बातें उठेंगी। सिराजुद्दीन हक्कानी ने ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में 21 फरवरी को प्रकाशित अपने ऑप एड में कहा, ‘…हमें उम्मीद है कि विदेशी प्रभुत्व और हस्तक्षेप से मुक्त होकर हम सभी अफगानों की एक ऐसी ‘इस्लामिक व्यवस्था’ कायम करने में कामयाब होंगे, जहां सभी को समान अधिकार प्राप्त होंगे, स्त्रियों को इस्लाम ने जो अधिकार दिए हैं- शिक्षा और काम करने का- उनकी रक्षा होगी और सबको अपनी गुणवत्ता के आधार पर समान अवसर मिलेंगे।’

स्त्रियों और आधुनिक शिक्षा के बारे में तालिबानी दृष्टिकोण से सभी परिचित हैं। शरिया कानूनों के लागू करने के बारे में उनके नजरिए से सभी परिचित हैं। क्या तालिबानी दृष्टि में अब बदलाव आएगा? ऐसा कोई संकेत तो अभी तक नहीं है। कहा जा रहा है कि समझौते के अंतर्गत अफगानिस्तान सरकार 5000 तालिबानियों को जेलों से रिहा करेगी। ऐसा हुआ, तो उसका सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। तालिबान का असर मुख्यतः पश्तून इलाकों में है। देश के हाजरा, उज्बेक और ताजिक इलाके के लोगों पर वे हावी रहने का प्रयास करते हैं। सवाल यह भी है कि क्या अब भारत भी तालिबान के साथ अपने रिश्ते बनाएगा।

अफगानिस्तान युद्ध के दौरान भारत के रिश्ते नॉर्दर्न अलायंस यानी ताजिक मूल के नेतृत्व के साथ थे। पर अब उन तालिबानी समूहों के साथ भी रिश्ते बनाने होंगे, जिनका प्रभाव ईरान से लगी अफगान सीमा पर है। देश के नवनिर्माण में पैसा लगाने वाली सबसे बड़ी क्षेत्रीय शक्ति भारत है। वहां का संसद भवन भारत ने बनाकर दिया है। साल 2011 में भयंकर सूखे से जूझते अफगानिस्तान को ढाई लाख टन गेहूं दिया था। हेरात में सलमा बांध भारत की मदद से बना। यह बांध 30 करोड़ डॉलर (करीब 2040 करोड़ रुपये) की लागत से बनाया गया। कंधार में अफगान नेशनल एग्रीकल्चर साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी की स्थापना और काबुल में यातायात के सुधार के लिए भारत 1000 बसें दे रहा है।

अफगानिस्तान को कराची के विकल्प में बंदरगाह की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए चाबहार बंदरगाह का विकास करने में भी भारत भूमिका निभा रहा है। पाकिस्तान ने सड़क मार्ग से भारतीय माल को अफगानिस्तान भेजने की अनुमति नहीं दी। इसके विकल्प में भारत चाबहार-जाहेदान रेलवे लाइन तैयार कर रहा है। भारत के सीमा सड़क संगठन ने अफगानिस्तान में जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लंबे मार्ग का निर्माण किया है, जो निमरोज प्रांत की पहली पक्की सड़क है। बहरहाल आगे-आगे देखिए होता है क्या।

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