पुतिन की यात्रा से लेकर एप्सटीन की आंच तक, राजनीतिकता, गैरराजनीतिकता और अराजनीतिकता
रूस और भारत की वार्ता होती तो विपक्ष को बुलाया जाता। मगर जब दोनों तरफ के कॉरपोरेट वर्ग के राजनीतिक मोर्चे के प्रमुख मिलें हों, तब आदान-प्रदान चेखव के साहित्य, हक के विचार, मजदूर, किसान, महिला, छात्र के संघ को मान्यता और सांप्रदायिकता पर रोक का नहीं होता।

अक्सर बड़े गर्व से अपने गैरराजनीतिक होने की उद्घोषणा कुलीन वर्ग करता है। यहां तक कि विशुद्ध राजनीतिक अभियान या मुहिम को भी गैर राजनीतिक लिबास पहनाया जाता है। राजनीति से ऊपर उठकर कार्य करने का एलान मध्य वर्ग के विचार सौंदर्य बोध को बहुत भाता है। तब सवाल है कि क्या सचमुच गैरराजनीतिकता कुछ होती भी है? राजनीति दूरगामी सामाजिक-आर्थिक-तहजीबी बोध का बदलाव है। तब क्या कुछ गैरराजनीतिक हो सकता है? हाल की कुछ घटनाओं के साथ इसका अन्वेषण किया जाना चाहिए।
रूसी राष्ट्रनायक का भारत दौरा हुआ। दो देश के राष्ट्रनायक मिले, यह कोई पहली बार नही हुआ। सामरिक समझौते के लिए ऐसा होता ही रहा है। कोविड संकट में ट्रंप का भव्य स्वागत करने के लिए आसन्न महामारी से बचाव को विराम दे दिया गया। चीनी राष्ट्रनायक को झुलाकर देख लिया और गले लगाकर देख लिया। दुर्भाग्य से आज भारत को कोई गले लगाना नही चाहता। लोग गले की हड्डी सा असहज महसूस करते हैं।
खैर, सामरिक संबंधों को दरकिनार करके देखें तो कुछ परतें खुलती हैं। असल दौरा किसका था और किससे गले मिला जा रहा है। कई बार औपचारिक वार्ता से परे जो किया जाता है, उससे समझ के सूत्र मिलते हैं। पुतिन के रात्रि भोज ने कलई खोलकर रख दी। उस भोज में दोनों सदनों के विपक्षी नेताओं को आमंत्रण नही दिया गया। मगर उस विपक्षी दल के एक नेता को आमंत्रण मिला- इस प्रचार के साथ कि राजनीति से ऊपर उठकर एक ऐसे व्यक्ति को बुलाया जा रहा है जो विदेश मामलों की समझ रखते हैं। सभ्रांत वर्ग को यह बहुत अच्छा लगा। इस पर किसी भी प्रतिक्रिया को खिसियाई बिल्ली के मुहावरे से जोड़ा गया। मगर सच को प्रकट नहीं करना, निर्लिप्तता नहीं होती।
भोज ने कई सच उघाड़े। पहला तो यह कि मौजूदा दशक में दो राष्ट्रों के बीच वार्ता होना बंद पड़ गया है। वार्ता होती है दो राष्ट्रनायकों के मध्य नहीं, दो तहजीबी और सामरिक महत्व के साझेदारों के बीच नहीं, बल्कि दो या अधिक निहित स्वार्थी, आर्थिक कॉरपोरेटी एकाधिपत्य स्थापित करने वाले व्यावसायिक हितसाधकों के बीच, ताकि तमाम टैरिफी लगाम के बावजूद 'नियारा' तेल का आयात किसी तरह एक निजी उद्योगपति को लाभ पहुंचाता रहे।
चाहे तेल के आयात से हिंदुस्तान के आमजन अतिशय टैरिफ झेलें, पेट्रोल डीजल के दाम भी आसमान छूते रहें, पर दो सत्तारूढ़ मिलकर अपने-अपने उद्योगपति मित्रों को सहायता प्रदान करते रहें। भले कुछ दिन तेल आयातित न हो पाए, मगर सौदा बना रहे, चाहे हथियारों का ही क्यों न हो।
एक समय में भारत द्विध्रुवी विश्व मे सम दूरी रखने में कामयाब रहा। अब भारत बहुत पीछे है। एक तरफ वार्ता पूंजीवादी एकाधिपत्य की घनिष्टता को आबाद करने के लिए होती है, दूसरी तरफ इतनी टैरिफ के बीच एक समुदाय के मंदिर हेतु देश के हुक्मरान संधि कर लेते हैं। भोज पर आमंत्रण बेहद सुनियोजित राजनीति है। चूंकि लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष ने इस आर्थिक एकाधिपत्य को ललकारा है, गठजोड़ और उससे निकलती तथाकथित विकास की राजनीति का विकल्प पेश किया है, तो भोज पर आमंत्रण कैसे मिलता?
प्रमुख विपक्षी दल में भी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक सत्ता केंद्रीकरण और हस्तांतरण के बीच समुद्री मंथन चल रहा है। जिनके प्रति राजनीति से ऊपर उठकर प्रेम दिखाया गया, आमंत्रित किया गया, उन्हें एकाधिपत्य से कोई गुरेज नहीं। रूस और भारत की वार्ता होती तो प्रतिपक्ष को बुलाया जाता। मगर जब दोनों तरफ के कॉरपोरेट वर्ग के राजनीतिक मोर्चे के प्रमुख मिलें हों, तब आदान-प्रदान चेखव के साहित्य, हक के विचार, मजदूर, किसान, महिला, छात्र के संघ को मान्यता और सांप्रदायिकता पर रोक का नहीं होता।
सत्ता के गठजोड़ को पूंजी से जोड़ने भर की कवायद है। यहां किसी पाश्चात्य अधिनायकत्व से कोई टकराव का फलसफा नहीं है। अमेरिकी चौधराहट को समझने की दरकार नहीं है क्योंकि उनको अत्याधुनिक हथियारों से लैस करते, गाजा के मजलूमों को भूख से मरने के लिए त्यजने वाले भी तो गले लगाए जा रहे हैं।
मुल्क की आवाम को चाहिए कि वह राजनीति को समझे। गैरराजनीतिक होने और अराजनीतिकता में बहुत गहरा अंतर है। राजनीतिक होना गर्व की बात नहीं, सुप्त चेतना का प्रतिबिंब है।
यदि कोई सरकार के नुमाइंदे अपने से ठीक विपरीत विचार के मुख्यमंत्री का स्वागत कर अपने राज्य में होने वाले वैश्विक सम्मिट पर निमंत्रित कर आते हैं, तो यह ग्लोबल सम्मिट की मर्यादा नहीं है, राजनीति से ऊपर उठकर विकास का आरोहण नहीं है। विकास की हर अवधारणा किसी-न-किसी राजनीति से उपज रही है। जब दो ध्रुव पर खड़ी सरकार एक सा काम करें, तो सोचना चाहिए कि क्या हो रहा है? दोनो प्रदेश में रिवर फ्रंट बनते हैं, बुलडोजर चलते हैं, भूमि अधिग्रहण होता है, तो यह एक जैसी विकास की अवधारणा का प्रतिफल है।
जब अलग-अलग दल की इन सरकारों के मंत्री एक-दूसरे को सम्मानित करते हैं तो वह गैर राजनीतिक नहीं है। उसके पीछे की राजनीति और राजनीतिक अर्थशास्त्र एक है। जनप्रतिनिधियों को चाहिए कि वे इतने अराजनीतिक न हो जाएं। सतही तौर पर सम्मानित करके इसे कूटनीति का नाम न दें क्योंकि इसके मायने राजनीतिक हैं। यह एक-दूसरे की विकास की राजनीति को प्रमाणित करता है, एक ऐसा विकास जिसमें लोग और हक गौण हैं। सांप्रदायिकता से लड़ते हुए यदि किसी मजहबी राष्ट्र के पैरोकार फर्जी बाबा को अंगीकृत किया जाता है तो वह गैर राजनीतिक नहीं है। सत्ता की मोहिनी में अंधा होना, जन को चकाचौंध से अंधा करना अराजनीतिकता है। यह जन को अचेत करता है और सत्तारूढ़ को मदांध।
हाल की तीसरी घटना भी इससे जुड़ी है। बड़े चर्चित विचारवंत चोम्स्की ने एप्सटीन से अपनी मित्रता की पुष्टि की है। यह भी गैर राजनीतिक होने के नाम पर हुई। चोम्स्की बेहद समतावादी ख्यालात के हैं। पर जब लैंगिग शोषण को देखते समय समता का लेंस उतर जाता है तो वह एक राजनीतिक कदम है। खासकर स्त्री के खिलाफ जिसको सदियों दैहिक शोषण का सामना करना पड़ा और कई बार उसे मर्जी का नाम दिया जाता है जबकि असमान सत्ता में कमजोर की मर्जी मायने नहीं रखती।
ऐसे में कभी यह सवाल उठ सकता है कि क्या पूरी तरह विपरीत विचार रखने वाले मित्र नहीं हो सकते? फिल्म जगत के हाल ही में विदा हुए हास्य अभिनेता दक्षिणपंथी थे और कटु हो गए थे। उनके साथ एक हास्य धारावाहिक में काम करने वाले पूरे साथियों ने बहुत स्नेह से उनको विदा किया। सह अभिनेत्री के विचार खुले तौर पर प्रगतिगामी हैं। मगर उनकी मित्रता भी पक्की रही। इसको क्या कहा जाए।
अपने विचार के प्रति अडिग रहकर मानव के तौर किसी के साथ होना और उसके द्वारा दी गई टिप्पणी को सीरे से नकारकर मित्र होना अलग है। मगर पूरी तरह से मानवता और प्रगतिगामी विचार के विपरीत आचरण को जानकर मित्रता का एलान अन्याय के साथ खड़ा होना है। वैसा ही जैसा विपरीत विचार व्यवस्था के नुमाइंदे को सम्मानित करना। यह साबित करना कि असल में तो हम साथ-साथ हैं, चाहे किसी चिन्ह से लड़ें। यह मात्र विकास पर अपनी-अपनी अवधारणा को प्रस्तुत करने जैसा राजनीतिक कदम नहीं।
जहां खुले दिलोदिमाग से जिज्ञासावश हर पहलू को जानने के लिए विपरीत विचार को सुना जाता है, वहां स्वार्थ नहीं होता, सच के करीब जाने की कोशिश होती है। मरहूम अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री वाम और हक आधारित विचारवंत और असमानता के विरुद्ध काम करने वाले चिंतकों को सहजता से सुनते थे। वे विचारक भी उस महान शख्सियत के आर्थिक अध्ययन और ईमानदारी के आगे नमते थे, बिना झुके दोनों पक्ष संवाद कर सकता था। वहां स्वार्थ नहीं था, सच के तरफ बढ़ने की गरज थी। यह राजनीतिक कदम होता है। अराजनीतिकता की स्वार्थ सुविधा नहीं।
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