गांधी जयंती विशेषः सत्य और तर्क से परे शिक्षा बच्चों तक कैसे पहुंच रही है, क्या है प्रतिकार का उपाय

विचारों की लड़ाई सबसे मारक असरदार लड़ाई है। इसके सामने बड़ी से बड़ी फौज और उसकी जीत बेमानी है। राजनीतिक सत्ता हो या सामाजिक सत्ता- दिमाग पर कब्जे की लड़ाई हमेशा सबसे पहले लड़ी जाती है। कई बार यह पता भी नहीं चलता है और कब्जा होता जाता है।

फोटोः सोशल मीडिया
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नासिरुद्दीन

जनवरी का आधा महीना बीत चुका था। हम बिहार के सुदूर इलाके में मेहनतकशों के साथ काम करने वाले अपने कुछ साथियों के साथ थे। इस दौरान हमें एक स्कूल में हाईस्कूल के विद्यार्थियों से बातचीत का मौका मिला। यह उस शहर के सबसे अच्छे स्कूलों में है। हम कोई सिरा तलाश रहे थे ताकि विद्यार्थियों से बातचीत की जाए, तकरीर न की जाए। हमने तय किया कि हम 30 जनवरी, यानी महात्मा गांधी की शहादत के बारे में बात करने की कोशिश करेंगे। हमारे पास पहले से बना-बनाया कोई खाका नहीं था।

बातचीत शुरू हुई- क्या 30 जनवरी कुछ खास है? क्या इस दिन कुछ अहम हुआ था? बात निकली। गांधी जी की शहादत तक पहुंची। फिर यह बात हुई कि किसने मारा, तो नाथूराम गोडसे का नाम आया। लेकिन क्यों मारा, इसके जवाब इस तरह आएः

  • गांधी जी ने देश का बंटवारा करा दिया।
  • गांधी जी सिर्फ मुसलमानों के बारे में सोचते थे। उन्हीं के साथ रहना चाहते थे। वे सब कुछ उन्हें ही दे देना चाहते थे।
  • गांधी जी भारत के खजाने से पाकिस्तान को पैसा दिलाने के लिए अनशन पर बैठ गए थे। वे पाकिस्तान-पक्षी थे। वे पाकिस्तान को सब दे देना चाहते थे।
  • गांधी जी पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच संपर्क के लिए भारत के बीच से रास्ता बनाने को तैयार हो गए थे।
  • गांधी जी इस्लामी राष्ट्र चाहते थे लेकिन भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के खिलाफ थे।
  • सत्ताके लिए जिन्ना और नेहरू ने गांधी जी को मरवा दिया।
  • गांधी जी हिंदू-मुसलमान एकता चाहते थे। वे सेक्यूलर थे।
  • गांधी जी आरक्षण के समर्थक थे।

हकीकत क्या है? ऊपर गिनाई गई बातों में सिर्फ एक बात सही है- ‘गांधी जी हिंदू-मुसलमान एकता चाहते थे।’ तब सवाल है, स्कूल में पढ़ने वालों को यह जानकारी कैसे मिली? क्या पढ़ाने के लिए तय किसी किताब से मिली? नहीं। क्योंकि सीबीएसई या बोर्ड की किताबें महात्मा गांधी की हत्या की ऐसी वजहें नहीं गिनातीं। स्कूल सही जानकारी और ज्ञान की जगह मानी जाती है। स्कूल में पढ़ाई जाने वाली किताबें और उसके पाठ ही जानकारी का स्रोत होते हैं। मगर हाईस्कूल के इन विद्यार्थियों की जानकारी का स्रोत सिलेबस की किताबें नहीं हैं। वे खुद भी इसे मानते हैं।

यह महज इत्तेफाक नहीं हो सकता। इत्तेफाक होता तो देश की सर्वोच्च माने जाने वाली सेवा- आईएएस और आईपीएस के अफसर उन झूठी या मनगढ़ंत बातों को फैलाने वाले नहीं बनते जो एनसीईआरटी की उन किताबों में थी ही नहीं, जिन्हें पढ़कर उन्होंने सिविल सेवा का बेड़ा पार किया था।

यानी स्कूल की किताबों का इस्तेमाल महज इम्तेहान पास करने के लिए है। समाज के बड़े हिस्से के लिए उनकी उपयोगिता बहुत ही सिमटी हुई है। इनके सामाजिक-राजनीतिक ज्ञान या जानकारी का जरिया स्कूली किताबों से अलग है। वही जरिया देश, समाज और भारत के लोगों को देखने और देश में होने वाले घटनाक्रम को देखने के वास्ते उनका नजरिया बना रहा है।

संसद के गुजरे मानसून सत्र में वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि नेहरू जी ने 1948 में एक शाही आदेश की तरह प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष बनाने का आदेश दिया था लेकिन उसका पंजीकरण आज तक नहीं हो पाया है। इसे नेहरू जी ने नेहरू-गांधी परिवार को फायदा पहुंचाने के लिए बनाया था। सवाल है, यह जानकारी तथ्यपरक है या तथ्य से परे है? अगर तथ्य से परे है तो एक मंत्री के जहन में यह कैसे पैठी है? यह इनके जेहन में कितनी गहरी पैठी है, इसी से पता चलता है कि वे इसे सच मानकर संसद में बोलते हैं। यानी, हमारे मुल्क में जानकारी की एकऔर धारा चल रही है। वह धारा कई मामलों में देश के कई हिस्सों के ज्यादातर स्कूलों में दी जाने वाली जानकारी से ज्यादा मजबूत है। तब ही तो वह धारा स्कूल के विद्यार्थी से शुरू होते हुए ऊपर तक चली जाती है।

और यह हालत उन लोगों की है जिन्हें ज्ञान के आधुनिक मंदिरों में जाने का मौका मिला है। इसी से हम आसानी से उन सबकी हालत का अंदाजा लगा सकते हैं जिनके पास आधुनिक मंदिरों में जाने का मौका नहीं था, जानकारी के पुख्ता स्रोत भी नहीं थे और जानकारी का कोई और जरिया भी नहीं था। उन तक जो पहुंच गया और जो बताया गया, उनके लिए वही पुख्ता जानकारी बन गई। वही उनके ज्ञान का स्रोत है। सवाल है, किसने उन्हें, क्या और कैसे बताया? क्यों बताया? उन तक कौन, कैसे पहुंचा?

जहनों में पैठी इन ‘जानकारियों’ का आधार तर्क की कसौटी पर खरे और वैज्ञानिक तथ्य नहीं हैं। सत्य नहीं है। कई बार अर्धसत्य है तो कई बार सत्य और तथ्य का कटा-छंटा रूप हैं। यही नहीं, ऐसी जानकारियां उन्हें कहीं से भी सत्य की तलाश के लिए नहीं उकसातीं। ज्ञान का तो यही काम है न? बल्कि इसके उलट वे कह रही होती हैं कि यही अंतिम सत्य है। यही तथ्य है। इसे आंख मूंदकर मानो।

अगर पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि ऐसी ‘जानकारियों’ का खास सामाजिक-राजनीतिक मकसद होता है। हम ऐसी किसी भी समानांतर जानकारी को सामने रखकर इस बात को तौल सकते हैं। ये जानकारियां आमतौर पर किसी समूह, समुदाय, जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र के खिलाफ होती हैं। इन जानकारियों का सबसे बड़ा मकसद दुश्मन पैदा करना होता है। नफरत पैदा करना होता है।

यह बात भी गौर करने लायक है कि समाज के पास ज्ञान और जानकारियों का जरिया सिर्फ स्कूल नहीं है। स्कूल और यूनिवर्सिटियों में पढ़ाई जाने वाली किताबें नहीं हैं। इतिहास-समाज की तथ्यपरक और तर्क से भरपूर उन विद्वानों की किताबें भी नहीं हैं जिनके मकसद नफरत फैलाना या दुश्मन पैदा करना नहीं है। ज्ञान और जानकारी की इससे उलटऔर समानांतर एकधारा चल रही है। उसके कई स्तर हैं। वह किताबों में है भी और नहीं भी। वह विद्वानों के भरोसे है और ज्यादातर नहीं भी है। वह समाज के बीच उन लोगों के भरोसे अपना दायरा और पैठ बढ़ा रही है जो ज्ञान और जानकारी का इस्तेमाल नफरत की दुनिया बसाने के लिए कर रहे हैं। शत्रु पैदा करने के लिए कर रहे हैं।

इस समानांतर ज्ञान और जानकारी की मुहिम में वे लोग अभी कमजोर पड़ते दिख रहे हैं जो सत्य के खोजी हैं। जो ज्ञान का इस्तेमाल इंसानियत और समाज की बेहतरी के लिए करते हैं। जिनका सत्य अंतिम और दुश्मन पैदा करने वाला नहीं होता है। उनकी पकड़ दिमागों पर ऐसी मजबूत नहीं दिख रही है जैसी पकड़ नफरत पैदा करने वाली जानकारियों की दिखाई दे रही है।

विचारों की लड़ाई सबसे मारक असरदार लड़ाई है। इसके सामने बड़ी से बड़ी फौज और उसकी जीत बेमानी है। राजनीतिक सत्ता हो या सामाजिक सत्ता- दिमाग पर कब्जे की लड़ाई हमेशा सबसे पहले लड़ी जाती है। कई बार यह पता भी नहीं चलता है और कब्जा होता जाता है। मौजूदा दौर में गांधी जी की हत्या की ये वजहें लोगों के दिमाग में कब और कैसे पैठती गईं, इसका सही-सही पता किसे है?

दिलचस्प है, लेकिन ऐसा लगता है कि इन वजहों की आड़ में महात्मा गांधी की हत्या को जायज ठहराने के तर्क मुहैया कराए गए हैं। ये तर्क गढ़े गए हैं। ये सत्य से परे हैं। चूंकि ये गढ़े गए तथ्य या तर्क हैं, इसलिए ये खुद-ब-खुद लोगों तक आसानी से नहीं पहुंचे होंगे। लोगों तक इन्हें पहुंचाने के लिए सोचा-समझा गया होगा। मजबूत मशीनरी लगी होगी। यह एक दिन में भी मुमकिन नहीं हुआ है। इसमें वक्त लगा और लगाया गया है- बिना इसकी परवाह किए कि नतीजा कितनी जल्दी मिलेगा, लगातार आम दिमागों पर काम किया गया है।

इसलिए अगर जबरदस्त धीरज, खामोशी से काम करने की हिम्मत, सत्य, तथ्य और वैज्ञानिक तर्क पर भरोसा, उसे किताबों से बाहर ले जाने की ख्वाहिश और आम जन तक इसे पहुंचाने की मिशनरी लगन- ये सब नहीं हैं तो भारत के लोगों के दिमागों को बंटने और हमें एक नफरती समाज बनने से कोई नहीं रोक सकता।

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