मृणाल पांडे का लेख: दगाबाजी और स्वार्थ पर आधारित तर्कों की राजनीतिक कूटनीति से नहीं समझे जा सकते गांधी जी

गांधी का दर्शन भारतीय किसानों की ताकत में पिरोया हुआ है। गांधी आज की उस राजनीतिक कूटनीति के तर्कों से नहीं समझे जा सकते जिस का आधार दगाबाजी और स्वार्थ पर टिका है। गांधी का मूल आग्रह सत्य पर रहता था, फोटो ऑप या टीवी फुटेज पर नहीं।

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मृणाल पाण्डे

संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ ने गांधी जयंती के आस-पास निकलने जा रहे अंक की आवरण कथा में जेफ बेसोज की ग्लोबल कंपनी ‘अमेजन’ को 2021 में ईस्ट इंडिया कंपनी-2 का नया संस्करण बताया है। संपादकीय ट्वीट के अनुसार, अमेजन का अंतिम उद्देश्य भारत के विशाल खुदरा बिक्री के बाजार को तबाह करना है जिसके लिए भारी रिश्वत का आदान-प्रदान हुआ है। इसके अलावा अमेजन ने कई ऐसी कंपनियों की ओट ले रखी है जिनकी मार्फत उसकी फैलती जकड़ सीधे नजरों में नहीं आती। मसलन, उसके आधिपत्य वाले ओटीटी प्लेटफॉर्म पर लगातार ऐसी फिल्में जारी हो रही हैं जो देश के सांस्कृतिक माहौल तथा भारतीयता की बुनियादी समझ और इतिहास को दूषित करती हैं। संघ की तवज्जो से शिखर सत्ता पर आई सरकार की विदेशी पूंजी न्योतने के उत्कट आग्रह की आलोचना का खुद उसकी मातृ संस्था के मुखपत्र में छपना सामान्य बात नहीं है।

पर सुधार की उम्मीद हम किससे करें? संघ का गांधी से, अहिंसा से और उनके स्वदेशी तथा सांप्रदायिकता के समग्र पैकेज को अहिंसक तरीके से अपनाने पर इनकार ऐतिहासिक है। इतना कि संघ के समर्थकों द्वारा हिंसा को कुछ विशेष समूहों के परिप्रेक्ष्य में जायज ठहराने की कोशिशों को एक खामोश सामाजिक और सांस्कृतिक स्वीकृति मिलती जा रही है। इसलिए विदेशी मालिकी या ‘सांस्कृतिक प्रदूषण’ के नाम पर कभी इंफोसिस या कभी बेसोज के गंजे सर को होली का नारियल बनाना कोई खास फर्क लाएगा, इसमें शक है। तब क्या हम पुराने गांधीवादियों या विदेश यात्रा के दौरान अमेरिका में हमारे प्रधानमंत्री को गांधीवाद की याद दिलाने वालों से पूछें कि भैया आज के भारत में गांधीवाद का मीनिंग सूं छे?

गांधी का दर्शन भारतीय किसानों की ताकत में पिरोया हुआ है। पर इस सप्ताह उनके देशव्यापी भारत बंद पर सरकार और उसके पोसे मीडिया के बड़े भाग की बेरुखी और कड़वी आलोचना से जाहिर है कि यह मान लिया गया है कि किसान धरना उपेक्षा से और तनिक भी हिंसक हुआ तो पुलिसिया दमन से कुचलने लायक है। दरअसल अ-क्रोध और अहिंसा के विचार बार-बार दोहराने के बाद भी आज के प्रशासन की मानसिकता में जज्ब नहीं हुए हैं। सरकारी गांधीवाद कुछ-कुछ परशुराम की धर्म की समझ सरीखा है। और पिता की आज्ञा होते ही उनके बेबुनियाद शक की शिकार मां की जवाबदेही का इंतजार किए बिना आरोपी पर फरसा चलाना आदर्शकर्मी साबित होना है। इतिहास गवाह है कि अपने पक्ष को जिताने के लिए किसी भी ‘वाद’ की निजी व्याख्या करके (वह गांधीवाद हो, नक्सलवाद या मार्क्सवाद) उसे धर्म का दर्जा देकर फौरी जुनून पैदा कर देना बड़ा आसान है। लेकिन अंतत: यह खेल बहुत खतरनाक साबित होता है।

पार्टी के गिर्द अंधभक्ति की वलय रचना मतलब उसकी विचारधारा के बाहर खड़े हर किसी व्यक्ति या गुट को ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी’ का दर्जा देना अंतत: खुद उस पार्टी के भीतर भी हिंसक विचारों का प्रदूषण बढ़ाता जाता है। धर्म, लिंग और जाति की इकहरी समझ और उनके खिलाफ वैचारिक जिद ने ही महाभारत से लेकर कलिंग तक और बंगाल से लेकर भारत-पाक विभाजन तक उन भीषण गृहयुद्धों को पैदा किया है जिन्होंने सभ्यता और मानव जीवन को शर्मसार किया। उत्तेजना के क्षण बीतने पर उस पाशवी और क्रूर युद्ध को कोई गांधी या व्यास, युधिष्ठिर या अशोक कह उठता है कि यह जीत अर्थहीन है। यही कारण है कि अपनी अंतिम घड़ियों में वे हमको इतने एकाकी और उदास दिखाई देते हैं।


गांधी जी का जन्मदिन मनाते हुए सोचना स्वाभाविक है कि अगर आज गांधी जी होते तो क्या वह स्वदेशी के नाम पर सिर्फ प्रतीकात्मक चरखा चला या खादी ग्रामोद्योग से देश की सकल आय में कितना बड़ा मुनाफा आया का प्रचार करते? आजादी के बाद दुनिया के बड़े-बड़े पूंजी निवेशकों और ग्लोबल कंपनियों के मालिकान के सामने भारत को उदारवादी लोकतंत्र की मां बता कर ‘मेक इन इंडिया’ का न्योता देते?

यह सब भरोसेमंद तरीके से जान पाने का तो कोई जरिया नहीं लेकिन गांधी की सत्य पर टिकी नैतिक कमानी कार्य- कारण, साधन तथा सिद्धि को अभिन्न रूप से जुड़ा मानती थी। इसलिए वह सार्वजनिक मंच से कुछ इस तरह की बात कह सकते थे, दुनिया के धन केंद्रित भोगवादी ग्लोबल ढांचे की वजह से लाखों जिंदगियां गईं, हस्पताल नाकाम साबित हुए और करोड़ों हाथों का काम छूटा। हर देश में अब रंग भेद, नस्लभेद और सांप्रदायिकता के विषाणु भारी पैमाने पर फैले दिख रहे हैं और गरीबों, निहत्थों से जैसा अन्यायपूर्ण बरताव हुआ, वह उसी सबके चलते दैवकोपवश हो रहा है। आज से 100 साल पहले हिंदी अनुवाद में छपी अपनी पुस्तिका ‘हिंद स्वराज’ की प्रस्तावना में वह लिखते हैं, ‘आज मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज पाना है। रेलों या अस्पतालों का नाश करने का ध्येय नहीं है। हिंदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्वीकार करे तो और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे तो स्वराज्य हिंद की धरती पर उतरेगा।’

चलिये फिलहाल किसानों को छोड़िए, सरकार के दुलारे शहरों पर आइए जहां ‘मेक इन इंडिया’ नामक स्वदेशी-2 होना है। वहां संसद से सड़क तक बन रही बड़ी-बड़ी इमारतों को आधी रात को हमें दिखा कर गर्व से कहा जा रहा है कि वे लोकतंत्र के मंदिर हैं। और गांधी की परिकल्पनानुसार वे ही गरीबों को शहरी रोजगारों के सबसे बड़े दाता बनेंगे। कॉमनमैन को तमाम ग्राफिक्स में भारत की तरक्की का प्रतीक बना कर उभारा जा रहा है। युग के साथ गांधी के सवाल लगातार बदलते थे। वह होते तो पूछते कि शहर इतने बड़े अन्नदाता हैं तो जब अमेरिका या यूरोप से बड़े निवेशक आते हैं, तो मजूर बस्तियों पर पर्दा या टीन की दीवारें काहे पड़ जाती हैं? अमेरिका जाते तो भी पूछते कि आपकी इन स्मार्ट नगरियों में भी कोविड से बचाव कैसे नहीं हो सका? आपके यहां नस्लवादी पुलिसिया हिंसा और स्लम इलाकों में गोलीबारी बढ़ने की वजहें क्या हैं?

सौ बात की एक बात। गांधी आज की उस राजनीतिक कूटनीति के तर्कों से नहीं समझे जा सकते जिसका आधार दगाबाजी और स्वार्थ पर टिका है। गांधी का सत्ता से टकराने का रास्ता हर बार मौलिक, सामयिक जरूरतों से बनता और बदलता रहता था क्योंकि उनका मूल आग्रह सत्य पर रहता था, फोटो ऑप या टीवी फुटेज पर नहीं। आज सत्य और अहिंसा की गांधीवादी व्याख्या से असहमत रहे संघ के मुखपत्र को भी स्वदेशी पर जेफ बेजोस की कंपनी अमेजन से खतरा दिख रहा है और शांतिवन में गांधी के प्रिय भजन या उनके वचन दोहराने पर लौ भी नहीं देते।


हमारा सभी नेताओं से एक विनम्र निवेदन है। अगर आप में खादी या स्वदेशी या अहिंसा को गांधी की तरह समझने और सार्थक कर्म में बदलने लायक सामर्थ्य नहीं है, तो कोई बात नहीं। आप उन विचारों को सरेआम ईमानदारी से नकार दें, जैसा अब तक लाखों छद्मनामधारी ट्रोल्स कर ही रहे हैं। फेक गांधीवाद से उबर कर आपका पैसा भी बचेगा और समय भी। अपना अघोषित असली अजंडा पारदर्शी तरह से जनता के सामने रख दें, फिर उसके बाद यूएन में भारत का पक्ष रखिये या चुनाव लड़िये। तब भारत की कथनी और करनी में दुनिया को मूलभूत कार्यकारण की कोई तो ऐसी चेन दिखेगी जो सिरे से हास्यास्पद या दु:खद नहीं हो। कुल मतलब यह, कि जो शक्कर नहीं बना सकते, वे उसकी बजाय गुड़ से काम चलाएं। दूसरे दर्जे की पत्रकारिता, तीसरे दर्जे की खादी फैशनलीला और चौथे दर्जे की राजनीति करते हुए यह न समझा जाए कि पुरानी तस्वीरों से बापू के परिधान और मुद्राओं की नकल टीप कर कोई भी गांधी बन सकता है।

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