अभूतपूर्व दर से पिघल रहे ग्लेशियर, जल्द ही बर्फ-विहीन हो जाएगा आर्कटिक महासागर

इस रिपोर्ट के अनुसार यदि वैश्विक स्तर पर तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए सख्त कदम नहीं उठाये गए तो इस शताब्दी के अंत तक हिमालय के ग्लेशियर के आयतन में 80 प्रतिशत तक की कमी हो जायेगी।

फोटो: सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

एक नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि वर्ष 2027 में एक ऐसा दिन होगा जब उत्तरी ध्रुव और आर्कटिक महासागर बर्फ-विहीन होगा। संभव है कि यह घटना केवल एक दिन के लिए ही हो, इसके कोई स्थाई प्रभाव नहीं हों, पर इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि मनुष्य में तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के माध्यम से उत्तरी ध्रुव के क्षेत्र में व्यापक बदलाव कर दिया है। इस तरीके के बदलाव से उत्तरी ध्रुव की पहचान ही बदल जाएगी। इन वैज्ञानिकों के अनुसार संभव है कि वर्ष 2030 तक पूरा एक महीना ऐसा हो जिसमें उत्तरी ध्रुव बर्फ-विहीन रहे।

इस अध्ययन को वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने 30 से अधिक कंप्युटर मॉडेल की मदद से किया है। अनेक अध्ययनों के अनुसार उत्तरी ध्रुव के बर्फ का आवरण हरेक दशक में 12 प्रतिशत कम हो रहा है। वर्ष 1979 से 1992 के बीच बर्फ के आवरण का औसत दायरा 65.8 लाख वर्ग किलोमीटर था, पर वर्ष 2024 की गर्मियों में यह क्षेत्र 42.8 वर्ग किलोमीटर ही रह गया था। वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तरी ध्रुव को बर्फ-विहीन तब कहा जाता है जब बर्फ का क्षेत्र 10 लाख वर्ग किलोमीटर से भी कम रह जाए।

 हरेक वर्ष अनेक अध्ययन प्रकाशित किए जाते हैं, जो पूरी दुनिया में ग्लेशियर के तेजी से पिघलने की जानकारी देते हैं। दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र में पहले केवल पश्चिमी भाग में ही ग्लेशियर के तेजी से पिघलने की चर्चा होती थी, जबकि पूर्वी क्षेत्र के ग्लेशियर को सुरक्षित समझा जाता था, पर पिछले 5 वर्षों से इस क्षेत्र के ग्लेशियर भी तेजी से पिघलने लगे हैं। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में फैली 50 संरक्षित प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहरों में लगभग 18600 ग्लेशियर हैं, इनमें से अधिकतर वर्ष 2050 तक खत्म हो चुके होंगे।


काठमांडू स्थित इन्टरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हिन्दुकुश हिमालय के ग्लेशियर अभूतपूर्व दर से पिघल रहे हैं, और तापमान वृद्धि के कारण इस ग्लेशियर क्षेत्र में ऐसे खतरनाक और स्थाई बदलाव हो रहे हैं जिसके बाद भविष्य में यह क्षेत्र अपने सामान्य स्तर पर कभी नहीं आयेगा। इन ग्लेशियर से एशिया में गंगा समेत 12 प्रमुख नदियाँ निकलती हैं जो भारत समेत 16 देशों में बहती हैं और इन नदियों पर पानी के लिए लगभग 2 अरब आबादी आश्रित है। इन ग्लेशियर से उत्पन्न नदियों से पानी की जरूरतों को पूरा करने वाली कुल आबादी में से 24 करोड़ से अधिक आबादी तो हिमालय के क्षेत्रों में ही है, और 1.6 अरब आबादी मैदानी इलाकों में इस पानी पर आश्रित है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इससे पहले भी अनेक रिपोर्ट और अध्ययन हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने और सिकुड़ने की खतरनाक तरीके से बढ़ती दर पर प्रकाश डाल चुके हैं।

 इस रिपोर्ट के अनुसार यदि वैश्विक स्तर पर तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए सख्त कदम नहीं उठाये गए तो इस शताब्दी के अंत तक हिमालय के ग्लेशियर के आयतन में 80 प्रतिशत तक की कमी हो जायेगी। वर्ष 2010 के बाद हिमालय के ग्लेशियर के पिघलने की दर इससे पहले के समय की तुलना में 65 प्रतिशत बढ़ चुकी है। तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने के बारे में सरकारों की लापरवाही का आलम यह है कि पिछले कुछ वर्षों से लगभग हरेक सप्ताह कोई ना कोई अध्ययन प्रकाशित होता है, जो ग्लेशियरों पर तापमान वृद्धि के प्रभावों के बढ़ते दायरे की ओर इशारा करता है, पर कहीं कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। कुछ दिनों पहले बताया गया था कि संभवतः वर्ष 2024 ऐसा पहला वर्ष होगा जब विश्व का औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में थोड़े समय के लिए ही सही पर 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा लांघ गया होगा। इसके बाद बताया गया कि अटलांटिक महासागर के उत्तरी क्षेत्र में पानी का तापमान पिछले सभी पुराने रिकॉर्डों को ध्वस्त कर चुका है। माउंट एवेरेस्ट पर और आसपास के ग्लेशियर पिछले 30 वर्षों में ही इतने पिघल चुके हैं, जितना सामान्य स्थितियों में 2000 वर्षों में पिघलते।

इस रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन से जुड़े तीन प्रमुख कदम हैं – इसे नियंत्रित करना, इसके प्रभावों से आबादी को बचाना और इससे हुए नुकसान की भरपाई करना – पर दुखद यह है कि पूरी दुनिया इनमें से किसी भी कदम की तरफ नहीं बढ़ रही है। पृथ्वी के बढ़ते तापमान से सबसे अधिक प्रभावित ग्लेशियर होते हैं। पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में पृथ्वी का औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है, पर ग्लेशियर पहाड़ों पर जिस ऊंचाई पर बनते हैं – अनुमान है कि उन क्षेत्रों का तापमान पृथ्वी के औसत तापमान वृद्धि की तुलना में दुगुना है। तापमान वृद्धि के कारण ग्लेशियर के पिघलने की दर लगातार बढ़ रही है।

अधिकतर ग्लेशियर से बहने वाला पानी किसी नदी में जाता है पर अनेक ग्लेशियर ऐसे भी हैं जिनसे बहने वाला पानी इसके ठीक नीचे के क्षेत्र में या आसपास के निचले हिस्से में जमा होता है और यह पानी पत्थरों और मलबों से रुककर एक झील जैसी आकृति बना लेता है।

 जब इसमें अधिक पानी जमा होता है तब किनारे के पत्थरों और मलबों पर दबाव बढ़ जाता है जिससे ये टूट जाते हैं। ऐसी अवस्था में झील में जमा पानी एक साथ तीव्र वेग से नीचे के क्षेत्रों में पहुंचता है जिससे फ्लैश फ्लड या आकस्मिक बाढ़ आती है। ऐसी बाढ़ से जानमाल, संपत्ति और इंफ्रास्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचता है। अनुमान है कि दुनिया में कुल 215000 ग्लेशियर है, जिनमें से आधे से अधिक वर्ष 2100 तक पूरी तरह पिघल कर ख़त्म हो चुके होंगें। पिछली शताब्दी के दौरान औसत सागर तल में जितनी बढ़ोत्तरी हुई है, उसमें से एक-तिहाई योगदान ग्लेशियर के पिघलने से उत्पन्न पानी का है। जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि ग्लेशियर के पिघलने की दर बढ़ा रही है और इसके साथ ही ग्लेशियर झीलों की संख्या भी बढ़ रही है। वर्ष 2020 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में ग्लेशियर झीलों की संख्या में पिछले 30 वर्षों के दौरान 50 प्रतिशत से अधिक की बृद्धि हो गयी है। इस अध्ययन को उपग्रह से प्राप्त चित्रों के आधार पर किया गया था। ग्लेशियर झील खतरनाक होती हैं क्योंकि कभी भी इनका किनारा टूट सकता है और निचले क्षेत्रों में भयानक तबाही ला सकता है।


नेचर कम्युनिकेशंस नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के 30 देशों की 9 करोड़ से अधिक आबादी लगभग 1089 ग्लेशियर झीलों के जल-ग्रहण क्षेत्र में बसती है। इसमें से लगभग डेढ़ करोड़ आबादी ग्लेशियर झीलों के जल-ग्रहण क्षेत्र के एक किलोमीटर दायरे में रहती है और इस आबादी पर ग्लेशियर झील के टूटने के बाद आकस्मिक बाढ़ का सबसे अधिक ख़तरा है। यह डेढ़ करोड़ आबादी दुनिया के महज 4 देशों में बसती है – भारत, पाकिस्तान, चीन और पेरू। इसमें से 90 लाख आबादी हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में है, जिसमें से 50 लाख से अधिक आबादी भारत के उत्तरी क्षेत्र और पाकिस्तान में है। ग्लेशियर झीलों पर पहले भी अनेक अध्ययन किये गए हैं, पर यह पहला अध्ययन है जो यह बताता है कि ग्लेशियर झीलों के टूटने के बाद सबसे अधिक ख़तरा कहाँ हो सकता है। हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में ग्लेशियर झील के टूटने के बाद लाखों लोगों की मौत होती है और संपत्ति के साथ ही इंफ्रास्ट्रक्चर का भारी नुकसान होता है, जबकि अमेरिका के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में हिमालय की तुलना में दुगुनी ग्लेशियर झीलें हैं, पर वहां इनके टूटने पर अधिक नुकसान नहीं होता। पिछले वर्ष पाकिस्तान की अभूतपूर्व बाढ़ में ग्लेशियर झीलों का पानी भी शामिल था।

 वैज्ञानिक जर्नल नेचर में हाल में ही प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 1900 की तुलना में ग्लेशियर झीलों के बनने के क्षेत्रों की औसत ऊंचाई बढ़ रही है, ग्लेशियर झीलें पहले की तुलना में कुछ सप्ताह पहले ही बनने लगी हैं और अब ग्लेशियर झीलों में आने वाले पानी का आयतन कम हो रहा है। जाहिर है, ग्लेशियर झीलें अब पहले से अधिक खतरनाक हो गयी हैं क्योंकि पानी के अपेक्शाक्रिय कम आयतन में भी टूट सकती हैं। इस अध्ययन के लिए वर्ष 1900 के बाद से 1500 से अधिक ग्लेशियर झील के टूटने के बाद आई आकस्मिक बाढ़ से बहने वाले पानी का आयतन, सबसे अधिक बहाव, उनके समय और झील की समुद्र तल से औसत ऊंचाई का आकलन किया गया है। यह भी देखा गया है कि साल-दर-साल इनमें क्या अंतर आया है। इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ़ पाट्सडैम के वैज्ञानिक जॉर्ज वेह के नेतृत्व में किया गया है।

 इस अध्ययन के अनुसार पिछले कुछ दशकों के दौरान ग्लेशियर झीलों की संख्या में तेजी आई है, पर अब इन झीलों में एकत्रित पानी का आयतन और इनके टूटने के बाद पानी के सर्वाधिक बहाव में वर्ष 1900 की तुलना में कमी देखी गयी है। ग्लेशियर झीलें वर्ष 1900 में साल के जिस समय बना करती थीं अब उस समय से कई हफ़्तों पहले ही झीलें बन जाती हैं। वर्ष 1900 की तुलना में हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में झीलें औसतन 11 सप्ताह पहले ही बन जाती हैं, जबकि यूरोपियन आल्प्स में 10 सप्ताह पहले और उत्तर-पश्चिम अमेरिका में यह समय 7 सप्ताह पहले का है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि हिमालय के ऊपरी ग्लेशियर के क्षेत्रों में जो तापमान औसतन 11 सप्ताह बाद होता था, अब वही तापमान 11 सप्ताह पहले ही आ जाता है। इस अध्ययन के अनुसार एंडीज, आइसलैंड और उत्तरी ध्रुव के पास स्थित देशों में ग्लेशियर झीलों की समुद्र तल से ऊंचाई 250 से 500 मीटर से अधिक बढ़ गयी है।

 अर्थ साइंसेज रिव्यु नामक जर्नल के अंक में चाइनीज अकैडमी ऑफ़ साइंसेज के वैज्ञानिकों का एक शोधपत्र माउंट एवरेस्ट के सम्बन्ध में प्रकाशित किया गया है। इस अध्ययन के लिए पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस क्षेत्र के बारे में प्रकाशित सभी शोधपत्रों का आकलन किया गया है। इसके अनुसार बीसवीं शताब्दी के दौरान माउंट एवरेस्ट के आसपास के क्षेत्र का तापमान बढ़ना शुरू हुआ था, पर 1960 के बाद से इसमें तेजी आ गयी। वर्ष 1961 से 2018 के बीच तापमान बृद्धि की औसत दर 0.33 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक रही पर इस दौरान चोटियों पर बर्फ गिरने और जमने की दर में कोई प्रभावी अंतर नहीं आया। इस पूरे क्षेत्र के तापमान बृद्धि की दर को देखते हुए अनुमान है कि इस पूरी शताब्दी के दौरान इस क्षेत्र का तापमान तेजी से बढ़ता रहेगा और यह दर गर्मियों की अपेक्षा सर्दियों के समय अधिक रहेगी। इस समय माउंट एवरेस्ट के आसपास के क्षेत्र में ग्लेशियर का कुल विस्तार 3266 वर्ग किलोमीटर है, यह विस्तार वर्ष 1970 से 2010 के औसत विस्तार की तुलना में कम है। इस दौरान ग्लेशियर के पिघलने की दर में बृद्धि के असर से यहाँ से निकलने वाली नदियों में पानी का बहाव बढ़ गया है। ग्लेशियर के तेजी से पिघलने की दर बढ़ने के कारण इस क्षेत्र में ग्लेशियर झीलों की संख्या और क्षेत्र तेजी से बढ़ रहां है। वर्ष 1990 में इस पूरे क्षेत्र में 1275 ग्लेशियर झीलें थीं और इनका संयुक्त क्षेत्र 106.11 वर्ग किलोमीटर था। वर्ष 2018 तक झीलों की संख्या 1490 तक और कुल क्षेत्र 133.36 वर्ग किलोमीटर तक पहुँच गया।


 स्कॉटलैंड स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ सेंट एंड्रिया के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए एक दूसरे अध्ययन के अनुसार जिन ग्लेशियरों के पिघलने के बाद एक कृत्रिम झील बन जाती है, उस ग्लेशियर के पिघलने की दर दूसरे ग्लेशियर की अपेक्षा लगभग दुगुनी हो जाती है। यह तथ्य पहले कभी किसी भी अध्ययन में नहीं बताया गया था। इस अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों के दल ने सेंटिनल-2 उपग्रह द्वारा भेजे गए चित्रों का सहारा लिया है। यह उपग्रह पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए हरेक पांचवें दिन हिमालय के ऊपर से गुजरता है। इसके चित्रों से पूर्वी और मध्य हिमालय के 319 ऐसे ग्लेशियरों का गहन अध्ययन किया गया जिनमे से प्रत्येक ग्लेशियर का क्षेत्रफल 3 वर्ग किलोमीटर या इससे भी अधिक है। ऐसे ही ग्लेशियरों से गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियाँ निकलती हैं। ग्लेशियर के पिघलने से यदि कृत्रिम झील तैयार होती है तब जाहिर है सम्बंधित नदियों में पानी का बहाव कम हो जाता है। दूसरी तरफ झील टूटने पर फ्लैश फ्लड की संभावना बढ़ जाती है।

 इस अध्ययन के अनुसार हिमालय के ग्लेशियर की मोटाई औसतन 20 मीटर प्रतिवर्ष की दर से कम हो रही है, पर जिन ग्लेशियर से बहता पानी ठीक नीचे झील बनाता है, उसके बर्फ पिघलने की दर सामान्य ग्लेशियर से दुगुनी से भी अधिक है। वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय के 20 प्रतिशत से अधिक ग्लेशियर ऐसे हैं, जिनसे बर्फ पिघलकर पास में ही झील का निर्माण कर लेती है। ऐसी झीलें खतरनाक होती हैं क्योंकि जब ये पूरी भर जाती हैं या किसी कारण से इनका किनारा टूटता है तब निचले हिस्सों में भारी तबाही मचाती हैं। माउंट एवरेस्ट के आसपास स्थित कुल 1490 ग्लेशियर झीलों में से 95 झीलों को खतरनाक माना गया है। इनमें से 17 झीलों को अत्यधिक खतरनाक और 59 झीलों को मध्यम श्रेणी का खतरनाक माना गया है।

 दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और वैश्विक स्तर पर नदियों के बहाव में अंतर आ रहा है। नदियों में पानी की कमी से पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है और समाज में अस्थिरता बढ़ रही है।  

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