ईश्वर के अस्तित्व पर हुई बहस ने छेड़ा नया संवाद!

मशहूर गीतकार-कवि-लेखक जावेद अख़्तर और इस्लामी विद्वान मुफ्ती शमाइल नदवी की बहस से उठे सवाल प्रमाण हैं कि यह कितनी समयानुकूल थी।

जावेद अख्तर और मुफ्ती शमाइल नदवी के बीच हुई बहस से एक संवाद की शुरुआत तो हुई ही है
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शबनम हाशमी

ऐसे समय में जब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के वह दो लोकप्रिय शब्द ‘वैज्ञानिक सोच’, भारतीय संविधान में किसी विस्मृत किए जा रहे फुटनोट की तरह लग रहे हों, नई दिल्ली के कॉन्सिट्यूशन क्लब में हाल ही में हुई एक घटना ने समाज को व्यापक स्तर पर एक नई बहस में शामिल होने का अवसर दे दिया है।

मशहूर गीतकार-कवि-लेखक जावेद अख़्तर और इस्लामी विद्वान मुफ्ती शमाइल नदवी के बीच ‘क्या ईश्वर का अस्तित्व है?’ शीर्षक से हुई यह बहस, जैसा कि कुछ सार्वजनिक बुद्धिजीवी हमें भरोसा दिलाना चाहते हैं, कोई अकादमिक मनोरंजन नहीं; आलोचनात्मक चिंतन के लिए सार्वजनिक स्थान की ओर फिर से लौटने जैसा था।

समाज का एक वर्ग और कुछ बुद्धिजीवी तर्क दे रहे हैं कि ऐसी चर्चा के लिए यह उपयुक्त समय नहीं है। उनका कहना है कि जब बेरोजगारी, महंगाई और सांप्रदायिक हिंसा से सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा हो, ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाना ‘बौद्धिक विलास’ के अलावा कुछ नहीं है। लेकिन मैं पूछना चाहती हूं कि आखिर वह ‘सही’ समय कब आएगा?

नवगठित अकादमिक संवाद मंच और वाह्यैन फाउंडेशन द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम के बाद तमाम वीडियो रील और छोटी-छोटी क्लिप फिल्मों की जैसी बाढ़ आई और जिस तरह उन तर्कों की चीर-फाड़ या विश्लेषण सामने आया है, भारत के खुले आकाश में वह लंबे समय से नदारद था। बहस की वीडियो क्लिप्स जिस तरह लाखों बार देखी गई हैं, इस बात का प्रमाण है कि आज के दौर में, जब ‘वायरल होना’ प्रमुख लक्ष्य हो चुका हो, यह या ऐसे कार्यक्रम कितने महत्वपूर्ण हैं।

एक ऐसे सभ्य समाज के लिए जहां अक्सर यह कहा जाता है कि आस्था पर सवाल उठाने से कहीं ज्यादा “जरूरी मुद्दे” मौजूद हैं, इस बहस ने साबित कर दिया कि हठधर्मिता पर सवाल उठाना कोई ध्यान भटकाने वाली बात नहीं है, बल्कि यह अधिनायकवाद या तानाशाही के खिलाफ प्रतिरोध की नींव में शुरुआती ईंट-गारा  है।

‘वैज्ञानिक सोच’ पर हमला भारत के समक्ष मौजूद सर्वाधिक गंभीर राजनीतिक और सामाजिक संकटों से अलग नहीं है। जब कोई समाज ‘क्यों?’ पूछना और सबूत मांगना बंद कर देता है, तो किसी भी तरह के अधिनायकवाद के प्रति संवेदनशील हो जाता है। सांप्रदायिकता, जाति आधारित नफरत और आरएसएस से जुड़ी ‘फासीवादी’ विचारधारा का मौजूदा उभार धर्म के दुरुपयोग से गहराई से जुड़ा हुआ है।


हम नए युग के गुरुओं और बाबाओं की बढ़ती तादाद देख रहे हैं, जहां आध्यात्मिक शब्दावली में लिपटे रूढ़िवादी और आमतौर पर प्रतिगामी विचारों का प्रसार ही प्राथमिक होता है। ऐसे धर्मगुरु  और ढोंगी समाज के सबसे हाशिये पर पड़े वर्गों का आसानी से दोहन करते हुए, उन्हें उनके मौजूदा जीवन के दुखों के प्रायश्चित के तौर पर एक बेहतर ‘परलोक’ का वादा बड़ी आसानी से बेच देते हैं।

इस पृष्ठभूमि में, ईश्वर के अस्तित्व पर बहस करना कोई अमूर्त धार्मिक विवाद नहीं; यह सत्ता की उन संरचनाओं को एक सीधी चुनौती है जो अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए अंधविश्वास की आड़ लेते हैं। अपने लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए, हमें अपने ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ का इस्तेमाल करना चाहिए और यही इसका सर्वोत्तम बचाव है।

इस बहस की अहमियत इस बात से भी जाहिर होती है कि तर्कवाद दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों के दिलों और दिमागों में कितना गहरा डर पैदा करता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दक्षिणपंथियों को अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी से ज्यादा डर तर्कवादियों से लगता है। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एम.एम. कलबुर्गी की हत्याएं कोई आकस्मिक हिंसा की घटनाएं नहीं थीं; बल्कि यह तर्कशील व्यक्तियों और जिज्ञासा की भावना के खिलाफ सोच-समझकर किए गए हमले थे।

यह पैटर्न महज भारत तक ही सीमित हो, ऐसा भी नहीं। बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी हमने धार्मिक हठधर्मिता पर सवाल उठाने वाले ब्लॉगरों और तर्कवादियों को इसी तरह बेरहमी से चुप कराए जाते देखा है। मकसद हमेशा एक ही होता है: माहौल को ऐसा बना दिया जाए जहां तर्कशील मन इस कदर भयभीत हो जाए कि कुछ बोलने की हिम्मत ही न कर पाए।

अज्ञात का यह भय हो या इसे उजागर करने की चाह रखने वाले,  वैश्विक स्तर पर व्याप्त हैं। नूनो लौरेइरो के दुर्भाग्यपूर्ण मामले पर गौर करें, जो एक लोकप्रिय सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी और संलयन वैज्ञानिक थे और 2016 में एमआईटी के संकाय में शामिल हुए थे। उनकी हाल ही में हुई हत्या की जांच जारी रहने के बावजूद, उनके जीवन भर के काम मार्मिक उदाहरण हैं।  उन्होंने अज्ञात के दायरे में काम किया, और वास्तविकता के रूप में हम जो स्वीकार करते हैं, उसकी सीमाओं को चुनौती दी। उनकी हत्या किसी ने की हो या किस भी कारण से की हो, लौरेइरो जैसे वैज्ञानिक स्थिर विश्वास प्रणालियों को चुनौती देते हैं; मानवता को सुविधाजनक मिथकों से परे धकेलते हैं, और उन्हें असहज सच्चाइयों की ओर ले जाते हैं।


अख़्तर-नदवी विवाद का एक निर्णायक क्षण गाजा में निर्दोष नागरिकों की पीड़ा और बच्चों की हत्या पर केन्द्रित अंश था। जब उनसे पूछा गया कि एक दयालु ईश्वर हजारों बच्चों के नरसंहार की अनुमति कैसे दे सकता है, तो मुफ्ती शमाइल का बचाव अपने धार्मिक अलगाव के कारण बेहद भयावह दिखा। उन्होंने तर्क दिया कि ईश्वर न सिर्फ दयालु है बल्कि ‘अल-हकीम’ (सर्वज्ञ) भी है, और हम पूरी तस्वीर का केवल एक ‘पिक्सेल’ ही देख पाते हैं। मानो इस भयावहता को जायज ठहराते हुए, मुफ्ती शमाइल ने कहा: “अगर इस दुनिया में कोई बुराई ही न हो, तो फिर ‘परीक्षण’ (ट्रायल) का क्या मतलब है?”

इस बहस से उठे सवालों की झड़ी इस बात का प्रमाण है कि यह बहस पूरी तरह समय के अनुकूल थी। वायरल हुए वीडियो में से एक इस समझदारी को बखूबी दर्शाता है: “हमें हमेशा यही सिखाया गया था कि आस्था नाजुक होती है और उसे सवालों से बचाकर रखना चाहिए, लेकिन इस बहस ने हमें दिखाया कि सच्चाई को पूछताछ से डरने की कोई जरूरत नहीं होती है।”

(शबनम हाशमी मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।)

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