जीएम फसलों से जुड़े दुष्परिणामों को दबा रही सरकार, सही निर्णय लेने के लिए वैज्ञानिकों की निष्पक्ष राय जरूरी

इस संदर्भ में हाल के समय में सबसे चिंता का विषय भारत और अनेक अन्य विकासशील देशों में यह बन रहा है कि कृषि और खाद्य क्षेत्र के विज्ञान पर चंद शक्तिशाली और अति साधन-संपन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण बढ़ता जा रहा है।

फोटो: सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

हाल में जीएम सरसों के विवाद पर केंद्र सरकार बार-बार जीएम फसलों से जुड़े दुष्परिणामों को दबा रही है। इस संदर्भ में यह बताना बहुत जरूरी है कि ठीक इसी तरह के कुप्रयास उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बार-बार किए हैं जो विकासशील देशों की खाद्य और कृषि व्यवस्था को नियंत्रित करना चाहती हैं।

वैसे तो विज्ञान के सभी क्षेत्रों में यह बहुत जरूरी है कि सही निर्णय लेने के लिए वैज्ञानिकों की निष्पक्ष राय उपलब्ध हो, पर कृषि और खाद्य क्षेत्र में यह और भी जरूरी है क्योंकि इस क्षेत्र में नीतिगत निर्णय का असर मनुष्य की सबसे बुनियादी जरूरत पर पड़ता है और भारत जैसे देश में तो कृषि आजीविका का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत भी है। ऐसे में कृषि और खाद्य संबंधी विज्ञान के क्षेत्र में क्या हो रहा है, इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। इस संदर्भ में हाल के समय में सबसे चिंता का विषय भारत और अनेक अन्य विकासशील देशों में यह बन रहा है कि कृषि और खाद्य क्षेत्र के विज्ञान पर चंद शक्तिशाली और अति साधन-संपन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण बढ़ता जा रहा है। तरह-तरह के प्रलोभन देकर और दबाव बनाकर वे कृषि और खाद्य संबंधी अनुसंधान को इस तरह का मोड़ दे रहे हैं जिससे चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों और धनी, विकसित देशों का विश्व कृषि और खाद्य क्षेत्र पर नियंत्रण बहुत बढ़ जाए।

इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एक बहुत अनैतिक उपाय विकसित और विकासशील दोनों देशों में यह बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपनाती हैं कि जिन वैज्ञानिकों का अनुसंधान इन कंपनियों के हितों के विरुद्ध जा रहा होता है, उन वैज्ञानिकों और उनके अनुसंधानों को दबाने का कुप्रयास किया जाता है। इन कुप्रयासों के फलस्वरूप जो निष्ठावान वैज्ञानिक अनुचित तकनीकों और उत्पादों के विरुद्ध समय पर चेतावनी देना चाहते हैं, उनके प्रयास में तरह-तरह के अवरोध उत्पन्न किए जाते हैं। इस तरह की स्थिति पिछले कुछ समय से जी.एम. फसलों पर चल रहे वाद-विवाद के संदर्भ में स्पष्ट देखी जा सकती है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि विश्व के अनेक विख्यात वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने समय पर इस तकनीक के खतरों के बारे में चेतावनी देने के प्रयास किए पर इन प्रयासों को तरह-तरह से दबाया गया। 


इस विषय पर एक बहुत चर्चित पुस्तक है जैफ्री एम. स्मिथ की ‘जेनेटिक रुलेट’। अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के विशेषज्ञों ने इस पुस्तक को अति मूल्यवान बताया है। इस पुस्तक में उन्होंने बताया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के खाद्य और दवा प्रशासन के लिए जो तकनीकी विशेषज्ञ और वैज्ञानिक कार्य करते रहे हैं, वह वर्षों से जी.एम. उत्पादों से जुड़े हुए विभिन्न गंभीर संभावित खतरों के बारे में चेतावनी देते रहे थे। इसके लिए जरूरी अनुसंधान करवाने की जरूरत बताते रहे थे। पर यह काफी देर बाद पता चला कि इस तरह के जी.एम. उत्पादों पर जो प्रतिकूल राय होती थी, उसे यह सरकारी एजेंसी प्रायः दबा देती थी और जब वर्ष 1992 में खाद्य और दवा प्रशासन ने जी.एम. उत्पादों के पक्ष में नीति बनाई तो इस प्रतिकूल वैज्ञानिक राय को गोपनीय रखा गया। पर सात वर्ष बाद जब इस सरकारी एजेंसी के गोपनीय रिकार्ड को एक अदालती मुकदमे के कारण खुला करना पड़ा और 44000 पृष्ठों में बिखरी हुई नई जानकारी सामने आई तो पता चला कि वैज्ञानिकों की जो राय जी.एम. फसलों और उत्पादों के प्रतिकूल होती थी, उसे वैज्ञानिकों के विरोध के बावजूद नीतिगत दस्तावेजों से हटा दिया जाता था। इन दस्तावेजों से यह भी पता चला कि खाद्य और दवा प्रशासन को राष्ट्रपति के कार्यालय से आदेश थे कि जी.एम. फसलों को आगे बढ़ाया जाए। यहां तक कि मानसेंटो के एक पूर्व वकील और बाद में उपाध्यक्ष बनने वाले माईकेल टेलर को इस सरकारी एजेंसी में नीति विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका के लिए लाया गया और फिर तो वैज्ञानिकों की चेतावनी को और भी दबाया जाने लगा।

इसी पुस्तक में जैफ्री स्मिथ ने ब्रिटेन का भी एक उदाहरण दिया है जहां वैज्ञानिकों के अनुसंधान से पता चला कि एक विकसित किए जा रहे जी.एम. आलू की किस्म से प्रयोगों के दौरान चूहों के स्वास्थ्य को व्यापक क्षति देखी गई है। जब यह परिणाम बताया जाने लगा तो सरकार ने यह प्रोजेक्ट ही बंद कर दिया, उसके प्रमुख वैज्ञानिक की छुट्टी कर दी और उसकी अनुसंधान टीम छिन्न-भिन्न कर दी गई।

जैफ्री स्मिथ ने ‘जेनेटिक रुलेट’ में यह भी विस्तार से बताया है कि अपने उत्पादों पर कंपनियों द्वारा जो टैस्ट किए जाते हैं, वे नाममात्र को ही वैज्ञानिक होते हैं क्योंकि उनको जान-बूझकर इस तरह का रूप दिया जाता है कि समस्याएं सामने न आ सकें। कभी सैम्पल साईज बहुत छोटा रखा जाता है, कभी तुलनाएं ठीक से नहीं की जाती हैं, तो कभी उत्पन्न स्वास्थ्य समयाओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है। ससेक्स विश्वविद्यालय में विज्ञान नीति के प्रोफेसर एरिट मिलस्टोन ने कहा है कि जीएम खाद्यों को ठीक से टैस्ट किया ही नहीं गया। जैसे टैस्ट किए गए वे तो ख्याली पुलाव पकाने जैसे थे।


किंग्स कालेज लंदन के मालीक्यूलर जेनेटिसिस्ट माईकेल एन्तोन्यू ने कहा है, “प्रयोगों के दौरान पशुओं को जी.एम.खाद्य खिलाने के जैसे प्रतिकूल परिणाम देखे गए है, वैसे प्रतिकूल परिणाम क्लिनिकल स्थिति में नजर आते तो उस उत्पाद के

उपयोग को रोक दिया जाता और कारण पता लगाने, समाधान खोजने पर नया अनुसंधान करवाया जाता। पर जी. एम. खाद्य के बारे में हम बार-बार देख रहे हैं कि सरकारें और उद्योग इन्हें तैयार करने, स्वीकृति दिलवाने और इनकी बिक्री में आगे बढ़ती जा रही है जैसे कुछ पता ही न चला हो। हम ऐसी स्थिति में है कि सरकारें और उद्योग अपने ही अनुसंधान के परिणामों की उपेक्षा कर रहे हैं।”

आखिर सरकारी स्तर पर गंभीर खतरों की उपेक्षा क्यों हो रही है? इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह है कि विश्व की सबसे बड़ी जीएम कंपनी द्वारा बड़े पैमाने पर अपना कार्य करवाने के लिए रिश्वत देने और भ्रष्टाचार फैलाने की बात सामने आ चुकी है और इसके लिए वह दंडित भी हो चुकी है। इसके बावजूद जब तमाम प्रमाणों और अध्ययनों की अवहेलना करते हुए जीएम फसलों और उत्पादों के खतरों को सरकार नजरअंदाज करती है या इस ओर से आंख मूंद लेती है, तो सरकार की आलोचना अवश्य होनी चाहिए।  

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