बेहूदा चुटकुले हैं वायु प्रदूषण पर सरकारी वक्तव्य

झूठ और लापरवाही से लबरेज ऐसे संस्थान कैसे प्रदूषण से निजात दिला पाएंगे, यह समझना कठिन नहीं है। एक कहावत है, जोकरों का झुंड, पर अफ़सोस यह है कि इन संस्थानों को जोकरों का झुंड भी नहीं कह सकते क्योकि जोकर भी अपना काम लगन से करते हैं।

बेहूदा चुटकुले हैं वायु प्रदूषण पर सरकारी वक्तव्य
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महेन्द्र पांडे

हाल में ही संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, ग्लोबल एनवायरनमेंट आउट्लुक। लगभग 82 देशों के 287 वैज्ञानिकों द्वारा लिखी गई इस रिपोर्ट के अनुसार जलवायु, स्वस्थ्य पर्यावरण, भूमि संरक्षण, और प्रदूषण नियंत्रण पर भारी निवेश से वैश्विक जीडीपी वृद्धि की दर में तेजी आएगी, करोड़ों असामयिक मृत्यु को रोका जा सकेगा और वैश्विक स्तर पर भूखी और कुपोषित आबादी को कम किया जा सकेगा। इसमें निवेश से कई गुणा अधिक का फायदा होगा।

जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता के विनाश, भूमि को नुकसान, मरुभूमिकरण, प्रदूषण और अपशिष्ट का कुप्रभाव पूरी पृथ्वी, आबादी और अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। वर्तमान में हम विकास के नाम पर जो गतिविधियां कर रहे हैं इससे विनाश की गति बढ़ती जा रही है। यदि हम प्राकृतिक विनाश पर लगाम लगा दें तो वर्ष 2070 तक प्रतिवर्ष अर्थव्यवस्था में 20 खरब डॉलर की वृद्धि हो जाएगी। केवल वायु प्रदूषण के कारण वर्ष 2050 तक वैश्विक स्तर पर 90 लाख लोगों की मृत्यु हरेक वर्ष होगी। वर्ष 2019 में वायु प्रदूषण के कारण अर्थव्यवस्था में 8.7 खरब डॉलर का नुकसान हुआ जो वैश्विक जीडीपी का 6.1 प्रतिशत है। पर्यावरण संरक्षण के प्रभाव से वर्ष 2050 तक 20 करोड़ लोगों में कुपोषण खत्म होगा और 10 करोड़ से अधिक लोग अत्यधिक गरीबी के जाल से बाहर निकल जाएंगे।

पर्यावरण विनाश पर यह एक विस्तृत रिपोर्ट है, पर हमारे देश के लिए एक कचरे से अधिक कुछ नहीं है। हमारे देश की सत्ता बार-बार यह प्रचारित करती है कि प्रदूषण से न कोई मरता है और न कोई बीमार पड़ता है, हमारी जीडीपी बेतहाशा बढ़ती जा रही है, देश में कुपोषण नहीं है और गरीबी तो कोई जानता ही नहीं है। हम विश्वगुरु हैं और नरेंद्र मोदी हमारे प्रधानमंत्री हैं इसलिए देश में समस्या हो ही नहीं सकती।

दरअसल पर्यावरण पर सत्ता के वक्तव्य किसी चुटकुले से कम नहीं होते। यहां पर्यावरण का कोई विज्ञान नहीं है, समाजशास्त्र नहीं है – पर्यावरण नेताओं के मूड पर निर्भर करता है। देश की सदन को और जनता को वर्ष 2014 से लगातार बताया जा रहा है कि वायु प्रदूषण से ना कोई बीमार होता है और ना कोई मरता है। जिस देश में भोपाल गैस कांड त्रासदी हुई हो उसमें ऐसे वक्तव्य बेहूदा चुटकुले से कम नहीं हैं। उस समय गैस हवा से ही हर जगह पहुंची थी|

सरकारों की जनता के प्रति जवाबदेही देखिए, वायु प्रदूषण से कोई बीमार नहीं पड़ता फिर भी सरकार इसके नियंत्रण का वार्षिक नाटक करती है। यह नाटक जनता के लिए भले ही त्रासदी हो पर सत्ता, न्यायपालिका और पर्यावरण संरक्षण वाली संस्थाएं इसे पूरे जतन से खेलती हैं। दीवाली के आसपास से नाटक शुरू होता है और फरवरी अंत तक चलता ही रहता है।

इस नाटक के नेपथ्य में हांफते-कांपते दर्शक और जनता है। इस नाटक का सूत्रधार वायु प्रदूषण है और कलाकार तमाम संस्थान जिन्हें प्रदूषण नियंत्रण का काम सौंपा गया है, केन्द्रीय पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, तमाम दूसरे संस्थान और वैज्ञानिक संस्थाएं जो वायु प्रदूषण के दम पर फल-फूल रही हैं, तमाम न्यायालय और विशेष कलाकारों में अब देश का मेनस्ट्रीम मीडिया भी जुड़ गया है। सूत्रधार पूरे 4 महीने नाटक के मंच पर सक्रिय नजर आता है, जबकि तथाकथित प्रदूषण नियंत्रण संस्थानों के खर्राटों की आवाज ऑडिटोरियम से बाहर भी सुनाई देती है। न्यायालय बीच-बीच में जब नींद में खलल पड़ती है तब आर्डर-आर्डर की आवाज लगाकर हथौड़ा पीट लेते हैं और मीडिया के भौकने की आवाज बहरा बना देती है।


वायु प्रदूषण के मुख्य किरदार- वाहन, उद्योग, इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं -सभी ग्रीन रूम से कभी बाहर आते ही नहीं, वे सरकारी संरक्षण में अन्दर ही सजे-संवरे बैठे रहते हैं। नाटक का अंत मार्च में होता है, जब हवा की गति तेज होती है- हवा आती है, प्रदूषण का स्तर कुछ कम करती है। फिर नाटक के अंतिम दृश्य में सभी किरदार प्रदूषण कम करने का श्रेय लेने के चक्कर में एक दूसरे से हाथा-पाई करते रहते हैं और हवा धीरे से मुस्कराकर गायब हो जाती है। इसके बाद मंच का पर्दा गिर जाता है, जो अक्टूबर में ही उठता है।

यह एक वार्षिक नाटक है, जिसका मंचन वर्षों से दिल्ली के मंच पर सफलतापूर्वक किया जा रहा है, लेकिन कलाकार अब तक थके नहीं हैं। एक रात की दिवाली के बाद प्रदूषण नियंत्रल वाले संस्थानों और सरकारों को अगले दस दिन का प्रदूषण का कारण मिल जाता है, फिर सरकारें, संस्थान और मीडिया सभी एक सुर में गाने लगते हैं। दस दिनों बाद पराली को कारण बताया जाने लगता है, जो सदियों से खेतों में जलाई जा रही है, पर इसका चमत्कारिक प्रभाव हाल में ही पता चला है। खेतों में पराली तो मुश्किल से 20 दिन जलती है, पर सरकारों और मीडिया के लिए यह अगले चार महीने तक प्रदूषण का कारण बना रहता है।

हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों में जो सबसे बड़ा बदलाव आया है, वह है हरेक आपदा का इवेंट मैनेजमेंट। प्रदूषण भी अब एक इवेंट मैनेजमेंट बन गया है। इस दौर में गुमराह करने का काम इवेंट मैनेजमेंट द्वारा किया जाता है, इसके माध्यम से सबसे आगे वाले को धक्का मारकर सबसे पीछे और सबसे पीछे वाले को सबसे आगे किया जा सकता है। अब तो प्रदूषण नियंत्रण भी एक विज्ञापनों और होर्डिंग्स का विषय रह गया है, जिसपर लटके नेता मुस्कराते हुए दिनरात गुबार में पड़े रहते हैं।

पब्लिक के लिए भले ही वायु प्रदूषण ट्रेजिक हो, हमारी सरकार और नेता इसे कॉमेडी में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ते। सरकारें विरोधियों पर हमले के समय वायु प्रदूषण का कारण कुछ और बताती हैं, मीडिया में कुछ और बताती हैं, संसद में कुछ और बताती हैं और न्यायालय में कुछ और कहती हैं। दूसरी तरफ मीडिया कुछ और खबर गढ़ कर महीनों दिखाता रहता है। न्यायालय हरेक साल बस फटकार लगाता है, मीडिया और सोशल मीडिया पर खबरें चलती हैं, फिर दो-तीन सुनवाई के बाद मार्च-अप्रैल का महीना आ जाता है और न्यायालय का काम भी पूरा हो जाता है।

कॉमेडी इस कदर है कि वैज्ञानिकों के अनुसार तथाकथित पराली जलाने से कुल 4 से 7 प्रतिशत प्रदूषण होता है, पर सरकारें इसी भरोसे पूरा साल निकाल देती हैं। कुछ वर्ष पहले जब महान पर्यावरण और स्वास्थ्य विनाशक डॉ हर्षवर्धन पर्यावरण मंत्री थे, तब मंत्री जी, भारतीय मौसम विभाग के प्रवक्ता, दूसरी सरकारी संस्थाएं, मीडिया और दिल्ली सरकार लगातार पराली जलाने को दिल्ली और आसपास वायु प्रदूषण का कारण बताते रहे, पर इसी बीच में डॉ हर्षवर्धन ने दिल्ली में वायु प्रदूषण का कारण अरब देशों से उड़ती रेतों को बता दिया। इसी तरह इस वर्ष भी पराली के शोर के बीच यह पता चला कि इसका तो योगदान ही लगभग नगण्य है तो अफ्रीका से राख को बुला लिया गया।

दिल्ली दुनिया में अकेला ऐसा शहर है जहां वायु प्रदूषण के लिए हवा की गति और बादलों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसके लिए कोई संस्थान या फिर सरकार कभी जिम्मेदार नहीं होती। केंद्र सरकार का मौसम विभाग भी समय-समय पर ऐसा ही बताता है कि हवा धीमी है इसलिए प्रदूषण का स्तर अधिक है। इस तरह के वक्तव्य केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की तरफ से भी आते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण के नियंत्रण की जिम्मेदारी केवल हवा और बादलों की है। संभव है आने वाले वर्षों में किसी न्यायालय में हवा और बादलों के विरुद्ध किसी पीआईएल की सुनवाई चल रही हो।


लगभग 5 वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय में दिल्ली के वायु प्रदूषण से संबंधित मुकदमे की सुनवाई के दौरान किसी न्यायाधीश ने कहा था, अब इस मामले में जिम्मेदारी तय करने का समय आ गया है। इसका सीधा सा मतलब है कि वायु प्रदूषण से भले ही लोग मरते और बीमार पड़ते हों पर इसके नियंत्रण की जिम्मेदारी किसी की नहीं है। यदि जिम्मेदारी ही नहीं है, तो फिर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और हरेक राज्य में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जैसे संस्थान खड़े ही क्यों किये गए हैं। बिना किसी जिम्मेदारी वाले ऐसे संस्थान क्या जनता की मेहनत की कमाई पर डाका नहीं हैं? जाहिर है जब तक किसी संस्थान की जिम्मेदारी इस मामले में तय नहीं की जाती, दिल्ली वाले साल-दर-साल ऐसे ही प्रदूषण से जूझते रहेंगे और जनता एक वार्षिक नाटक देखती रहेगी।

वर्ष 1981 में वायु अधिनियम के कुछ वर्ष बाद ही दिल्ली को एयर पोल्यूशन कण्ट्रोल एरिया घोषित कर दिया गया था, पर कोई योजना नहीं बनाई गई। इसके बाद देश भर में कुछ क्षेत्र या शहर को गंभीर तौर पर प्रदूषित क्षेत्र घोषित किया गया। इसमें भी दिल्ली का नजफगढ़ ड्रेन बेसिन क्षेत्र सम्मिलित था। नजफगढ़ ड्रेन बेसिन क्षेत्र दिल्ली के लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्र में फैला है, जिसमें लगभग पूरा का पूरा दक्षिण दिल्ली और पश्चिम दिल्ली का क्षेत्र आता है। सबसे बड़ा रहस्य तो यही है कि ऐसे क्षेत्र का निर्धारण करने के समय किसे दिल्ली का नजफगढ़ ड्रेन बेसिन क्षेत्र के बाहर का हिस्सा गंभीर तौर पर प्रदूषित नहीं लगा होगा। यदि पूरी दिल्ली बेहद प्रदूषित होने के बाद भी इस सूची में नहीं थी, तब भी नजफगढ़ ड्रेन बेसिन क्षेत्र कौन सा प्रदूषण से मुक्त हो गया?

संवेदनहीनता का सिलसिला यहीं नहीं थमा, कुछ वर्ष पहले केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने औद्योगिक प्रदूषण के आधार पर फिर से गंभीर तौर पर प्रदूषित क्षेत्रों और शहरों की सूची जारी की, इसमें पहले की सूची के सभी क्षेत्र मौजूद थे। इसका सीधा सा मतलब यह है कि केन्द्रीय बोर्ड केवल यह आकलन कर पाता है कि कहां प्रदूषण अधिक है, पर कहीं के प्रदूषण को नियंत्रित कर पाना इसके बस में नहीं है, कोई प्रभावी योजना भी इस सन्दर्भ में नहीं है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि केन्द्रीय बोर्ड और पर्यावरण मंत्रालय निहायत ही बेशर्मी से अपना काम करता है और देश में प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। इन संस्थानों के रहते देश में प्रदूषण कम करने की बात भी बेमानी है। वैसे आईआईटी दिल्ली और आईआईटी कानपुर जैसे संस्थान भी दिल्ली के वायु प्रदूषण के नियंत्रण के नाम पर अपनी गरिमा खो चुके हैं।

झूठ और लापरवाही से लबरेज ऐसे संस्थान कैसे प्रदूषण से निजात दिला पाएंगे, यह समझना कठिन नहीं है। एक कहावत है, जोकरों का झुंड, पर अफ़सोस यह है कि इन संस्थानों को जोकरों का झुंड भी नहीं कह सकते क्योकि जोकर भी अपना काम लगन से करते हैं। जाहिर है, ट्रेजेडी और कॉमेडी से भरपूर प्रदूषण महाकाव्य पर नाटक साल-दर-साल चलता रहेगा, सरकारें मंच पर सोती रहेंगीं, न्यायाधीश आर्डर-आर्डर करेंगें, मीडिया पराली से दिल्ली को प्रदूषित करती रहेगी, तमाम संस्थान अफ्रीका से राख को दिल्ली दर्शन कराते रहेंगे, कुछ टीवी डिबेट्स होंगें और प्रधानमंत्री प्रदूषण को भी अमृत और विकास का नाम देंगें।

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